चलीं, फगुआ गावल जाव - डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल

फगुआ कहीं, होरी कहीं भा होली कहीं, ई हटे एकही. ई बसंतोत्सव हउवे. बसंत जब चढ़ जाला त उतरेला कहाँ ? एहीसे त होली के रंगोत्सव के रूप में मनावल जाला. प्रकृतियो हमनी के साथ देले. नु ठंढा नु गर्मी, का मनभावन मौसम होला ! रंगन के महफिल में शिष्टता आउर सौहार्द्र के सुगंध होला आ पारंपरिक मर्यादा में उत्साह के विकास होला. ई ऊ पर्व हऽ जवना में अवस्था बोध व्यक्ति आ समाज- दूनो का संदर्भ में क्रियाहीन हो जाला आ व्यक्ति में ओकरा ऊर्जा का हिसाब से उछाह लउकेला. एही से त कहल गइल बा- ‘फागुन में बुढ़वो देवर लागे.’

होली में शृंगार के पराकाष्ठा भी लउकेला, खासकरके कबीरा आ जोगीरा के रूप में बाकिर तबहुँओ ओकरा कथन भंगिमा भा गायन शैली में उत्तेजना खातिर कवनो जगह ना होखे आ नाहीं काम(SEX) के विकृत रूप के सम्माने मिलेला. लोक साहित्य आ संगीत में अपना एह सीमा में रति भाव ओइसहीं स्वीकार कइल गइल बा जइसे बियाह ओगैरह मांगलिक अवसरन पर मेहरारू लोगन के गाली के गवाई.

होलिका दहन, अबटन आ झीली

फगुआ से एक दिन पहिले होलिका जरावल जाले जवना के ‘सम्मत जरावल’ कहल जाला.जब लोग अपना मोहल्ला से होलिका दहन खातिर डंटा में होलरि बान्हि के निकलेलन त जयकारा का मुद्रा में होलरि!होलरि! कहत चलेलन. ई आवाज सुनते लोग अपना-अपना घर से तेयार होके तुरत निकल जालन. होलिका दहन का दिने घर का हर सदस्य के हरदी आ तेलहन का लेप माने अबटन से पूरा शरीर के मालिश होला आ जवन मइल छूटेले, ओकरा के ‘झीली’ कहल जाला . ऊ झिलियो होलिका दहन में जरा दिहल जाले. त्वचा का सतह पर के साधारन रोगन के अतना कम समय में व्यक्ति स्तर से लेके सामाजिक स्तर तक पर मिटा देबे के एह से नीमन जोजना का केहू बना सकता ? एकरा के शारीरिक स्वास्थ्य का विज्ञान का नजरिया से भी देखल जा सकता.

रंग-अबीर आ गुलाल का सङे होली के हुड़दंग

‘रंग बरसे भींजे चुनरवाली’ जइसन होरी गीतन का पाछा जवन विज्ञान बा ओकरा के मन से जोड़के देखल जा सकता . ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.’ मतलब कवनो जीत में मन के भूमिका जबर्दश्त बा. जीवन में जब रंगन के समावेश होखे तबे ओकर मजा बा, नाहीं त जिनिगी गदहा के लादी हो जाई. रंग प्रेरणा के काम करेला, रंग उत्साह भरेला, रंग उद्दीपन त होइबे करेला, कबो-कबो अपना जबर्दश्त आकर्षण का कारन आलंबन भी बनि जाला. जिनिगी से रंग निकलि जाई त जिनिगी बेरंग हो जाई. बदरंग त खराब होइबे करेला बाकिर बेरंग ओकरो ले आले हो जाला, बेमाने के जिनिगी. अपना हित-अनहित के सोचिके जो रंग खेलल जाई त रंगोत्सव सुख आ आनंद के बरखा करी- एह में कवनो संदेह नइखे. होली के हुड़दंग माने जहाँ गारी आ गीत के अनुपात बराबर होखे. ई सबेरे से शुरु होई त दुपहरिया तक चलत रही रसदार रंग का साथ. फेरु नहा-धो के साँझि खा अबीर-गुलाल लगावे के काम शुरु होई. पहिले देवी देवता के चढ़ावल जाला आ फेरु बड़-बुजुर्ग का चरन पर आ समउरिया आदि के रूप रंग का साथे खेलवाड़ शुरू हो जाला. एह दिन घर-घर में विशेष पकवान बनेला – पुआ, पूड़ी, गोझिया आदि.

फगुआ

होली का अवसर पर जवन गीत गवाला ओकरे के ‘फगुआ’ कहल जाला. एकर शुरुआत माघ बसंत पंचमी से मानल जाला. ओही दिन ताल ठोकाला आ तब से भर फागुन गवात रहेला. एकर चरम उत्कर्ष फागुन के पुरनवासी आ चइत के अन्हरिया परिवा के लउकेला. चाहे लइका होखे भा जवान भा बूढ़, होली में सभ मस्तिए में लउकेला.

होली गायन के शुरुआत भगवान शंकर भा कृष्ण के रस, रंग आ संगीत में डूबल भजन से होखेले. ईहे हमनी के परंपरा ह आ एही चलन में हमनी के मस्ती परवान चढ़े लागेले. चौपाल सजे लागेला, डंफ आउर ढोल के थाप के सङही झाल आ झाँझ के झनकार बाताबरन के एगो खास किस्म के मोहक रूप देबे लागेले.

बाकिर, आजु मौसम बदल गइल बा. चौपालन पर से सामूहिक गायन के अधिकार टूटे लागल बा. म्यूजिक कंपनी आ नया-नया आडियो-वीडियो माध्यम होली के एह सांस्कृतिक रंग में सेंध लगा देले बाड़न स. खुलापन के नाम पर एगो कल्पित कुरूप शृंगार हाबी होखे लागल बाद्य मजबूरी के आलम ई बा कि शिष्ट आ सभ्य लोगन के आपन कानो बंद करेके परेला. ऊ लोग अइसन आयोजनन से दूर हो रहल बाड़न बाकिर नया पीढ़ी के त मजा आ रहल बा आउर बिना कवनो परिनाम के चिंता कइले ओकर कदम थिरकत लउकता.

साँच पूछीं त ई हमनी के संस्कृति खातिर एगो त्रासद घड़ी बा. एहमें फगुआ के चेहरा दिन प दिन बदरंग होखत जाता. वर्तमान लोकगायन के कहीं से नु बड़ाई कइल जा सकता नु समर्थन. आपन बजार चमकावे खातिर अधिकतर गायक बाजारू हो गइल बाड़े आ उनुका खातिर कवनो पारंपरिक भा मानवीय मूल्य माने नइखे राखत. अब समय आ गइल बा कि भोजपुरी गायक, गीतकार आ म्यूजिक कंपनी- सभके एहू पहलू पर गंभीर होखेके परी आउर संस्कृतियो के भविष्य के कुछ चिंता करहीं के परी काहेंकि एही संस्कृति से इहाँ सभ के रोजी-रोटी चलेले.

संसार के समस्त संस्कृतियन नियन भोजपुरी अंचल के संस्कृति के ईहो थाती वैश्वीकरण के भेंट चढ़ि रहल बिया. पता ना घालमेल के फैशन हमनी के कतना फायदा पहुँचाई, बाकिर अतना बिश्वास जरूर बा कि भोजपुरिहा एह त्रासद घरी में भी आपन रक्षा करे में केहूँ के मुँह ना जोहिहें आ ना मुँह के खइहें.
----------------------------------
लेखक परिचय:-
नाम: डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल
जन्म: बड़कागाँव, सबल पट्टी, थाना- सिमरी
बक्सर-802118, बिहार
जनम दिन: 28 फरवरी, 1962
पिता: आचार्य पं. काशीनाथ मिश्र
संप्रति: केंद्र सरकार का एगो स्वायत्तशासी संस्थान में।
संपादन: संसृति
रचना: ‘कौन सा उपहार दूँ प्रिय’ अउरी ‘फगुआ के पहरा’
ई-मेल: rmishravimal@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैना: भोजपुरी साहित्य क उड़ान (Maina Bhojpuri Magazine) Designed by Templateism.com Copyright © 2014

मैना: भोजपुरी लोकसाहित्य Copyright © 2014. Bim के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.