डायरी: नीक-जबून (3) - डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल

7.
अनुवाद उहे, जे रच बस जाए


एक महीना पहिले एक आदमी एगो प्रश्न पूछि के हमरा के अजीब पेशोपेश में डाल देले रहे। जइसे ‘थैंक्यू’ का प्रतिउत्तर में ‘युअर वेलकम’ जइसन कुछ ना कुछ कहल जाला, ओइसहीं धन्यवाद का प्रतिउत्तर में का कहल जाई ? त हमार एगो मित्र चट दे कहि दिहले- “राउर स्वागत बा, कहीं आ घर के पता दे दिहीं।” एह ‘चट दे’ पर हँसी त खूब भइल बाकिर विषय के गंभीरता में कवनो कमी ना आइल। संतोषजनक जबाब ना मिलल।

हम कबो-कबो सोचींले कि हर विदेशी शब्द के अनुवाद खातिर लबलबाइल ठीक ना होखे। जवन शब्द कवनो खास संस्कृति के अंग बाड़े सन, उहनी के अनुवाद से हमनी के बचेके चाहीं। थैक्यू, सॉरी, गुड मार्निंग आदि शब्द अपने आप में संस्कृति के अविभाज्य बिंब बाड़े सन आ इहनी के अनुवाद जादा दिन ना चल पाई। हमनी किहाँ जब केहू उपकार करेला त थैंक्यू से काम ना चले। जीवन भर कृतज्ञ होके रहेके परेला। “प्रति उपकार करउँ का तोरा”, “कपि से उरिन हम नाहीं”- ईहे हमनी के संस्कृति ह। थैंक्यू कहिके भा कुछ पइसा देके चल दिहला से उपकार के भार ना उतरी एहिजा। एहसे अनुवाद कइके पूरा संस्कृति समेटला से नीमन होई कि जहाँ औपचारिकता के जरूरत बा, सीधे थैंक्यू बोल दीं आ ओकरा बाद लौटावेवाला नेवतो-पेहान ले लीं।

गुड मॉर्निंग। एकर माने होला (राउर सुबह शुभ होखे, नीके बीते)। ई त हमनी किहाँ असिरबाद हो गइल। हमनी किहाँ बड़ असिरबाद देले आ छोट प्रणाम करेले। तीसर त कुछ ना होखे आ पछिम में दूनो में केहूँ भा दूनो गुड मॉर्निंग कर सकऽता। आउर त आउर टाइम देख के अभिवादन करीं। 12 बजे रात के बाद जब फोन आवे त अन्हुवाते ‘सुप्रभात’ कहीं। अपनहूँ जम्हाई लीं आ अगिलो के सरग के सुख दिहीं। ढेर लोग बोली- रतिए खा ? हमार कहनाम बा कि अंतर्राष्ट्रीय दिन शुरू हो गइल नु जी त अपना अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के अब खिले दीं। रेडियो का किरिपा से सुप्रभात त आजकल केहू समझ लेता बाकिर गुड आफ्टरनून, गुड इवनिंग, गुड डे आ गुड नाइट के अनुवाद कतना लोग जानतारे ? आ एह अनुवाद से कवन खजाना मिल जाई भा गंगानहान हो जाई ? ‘सॉरी’ आदि शब्द भी एही तरह के बाड़े सन। हम त ईहे कहबि कि ई शब्द अपने आप में एगो खास संस्कृति के प्रतिनिधित्व करतारे सन। व्यवहार में जरूरी लागे त सीधे प्रयोग में कवनो संकोच ना होखेके चाहीं काहेंकि अनुवाद में कठिनाई बहुत बा। तबहुँओ जो बेहतर अनुवाद मिले त अपना भाषा के कोष बढ़ावे से परहेज ना होखेके चाहीं। ओही शब्दन के अनुवाद कइल ठीक होई, जेकरा हमरा संस्कृति में रच-बस जाए के गुंजाइश होखे।
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लेखक परिचय:-
जन्म: बड़कागाँव, सबल पट्टी, थाना- सिमरी
बक्सर-802118, बिहार
जनम दिन: 28 फरवरी, 1962
पिता: आचार्य पं. काशीनाथ मिश्र
संप्रति: केंद्र सरकार का एगो स्वायत्तशासी संस्थान में।
संपादन: संसृति
रचना: ‘कौन सा उपहार दूँ प्रिय’ अउरी ‘फगुआ के पहरा’
ई-मेल: rmishravimal@gmail.com

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