मन के अँगना में एगो रंगीन सतरंगी चूनर लहरा गइल बा। बहे लागल बा बसंती बयार, जेहमें सोनपुर के मेलवा जइसन गंध बसल बा। धरती के आँचल में सरसों के फुलवा फाटल जा रहल बा, जइसे सोने में गरम आभा उतर गइल होखे। गाछ-बिरिछ आपन बेजान ओढ़नी फेंकि के नवा हरिअरी पहिन रहल बा।
बसंत, ई बसंत, जवन एगो पियास ह, एगो मिठास ह, एगो अल्हड़ चंचलता ह। ई बसंत, जवन एगो कविता ह, जवन लयबद्ध, सुरमयी आ रसगर बा। चिरई-चुरुंग के गान में तान पड़ गइल बा। कोइलिया के कुहुक अब बैरागी ना रहल, अब ओकर कुहुक में विरह ना रहल, बलुक मिलन के उमंग समा गइल बा।
गाछ के पात-पात रसिया बन गइल बा। अमवा के बगिया में बौर अइसन लागता कि मनई के अंग-अंग में सुवास समा जाई। जवन ई बौर के खुशबू सूँघ ली, ऊ त बसंत के कंठहार बन जाई। पियास लागे, त इहे बसंत गहना हो जाला, चूड़ी हो जाला, गीत हो जाला।
गाछ के फुनगी पर बैसल ह कगवा, नूरेमल कगवा, ऊ कब से बसंत के जोह रहल रहल बा! फगुआ के मिठास भइल आ समुन्दर नियर ओठंग गइल। चटक रंग के घाघरा पहिनले धइहरिन जइसे गाँव के पगडंडी पर परिछही करत होखे, ओसही ई बसंत चारो ओर पसर गइल बा।
जब बसंत आवेला, त देहवा में जइसे फगुआ के फुहार बरस जाला। आ जब ई फुहार बरसता, त तामस गल जाला, कुटिलता पसर जाला, दुश्मनी के देवाल भसियाइ के गिर जाला। लोकगीत सुने के मन होखेला। भोजपुरिया माटी के गंध में जे मिठास बा, ऊ बसंत में अउर सवादे लागेला।
"फगुनवा में रामा, रसे-रसे बहकेला रस"— ई रस बसंत के ही त देन ह। जइसे कवनो पुरान चिठ्ठी से मने प्रेम के घवाहि केसर जइसे बरसात में टीस देवे लागे, ओसही बसंत के आहट एगो पुरान मीठ याद बन जाला।
धरती के कंठ में जइसे फाग के धुन लाग गइल होखे। जब हवा चलsता, त ऊ साँझ में फगुआ गावे लागे। सहर-गाँव के कोर-कोर में ई बसंत अलसा के समा गइल बा। ओढ़नी के कोर से जब धइहरिन आँखी पोछे, त लागेला, ई आँसू खुशहाली के बा।
बन में महुआ चुवे लागल बा। गाँव के गँवईं मिठास अब ओह महुआ में उतर गइल बा। जे महुआ के गंध लूट लेव, ऊ बसंत के पी लेव। कवनो चीज अब फीकी ना लागत। चटकीला रंग, मीठ बोली, फगुआ के हुलास, ई सब मिलके बसंत के रस बना देला।
गाँव में अबीर के थरिया सज गइल बा। मउगी के लाज अब बसंत के धूप में सुखाए लागल बा। खेत-खलिहान में गेहूँ के बाली झूमे लागल बा। ऊ बाली, जवन सोने से भारी हो गइल बा। घर के दुआरी पर मड़वा सजाए के तइयारी बा।
"फगुनवा में हमरो पिया अइहे"— ई उमंग अब गाँव-गाँव गूँजे लागल बा। नदिया के धार में अब चटकील हरियाली के छाया पड़ रहल बा। ठंडा पानी अब गरमाहट ले के बहे लागल बा। आ बसंत के ई गरमी मनवा के अलसाए ना दे रहल, बलुक रोमांचित करे लागत बा।
"रंगवा खेलबू हो रामा, संग सजनवा के"— जब ई सुरवा बजेला, त पूरा वातावरण में रस बरसता। बसंत के रंग पियक्कड़ बना देला, फगुनवा में मदहोशी समा जाला। कवनो के हंसी अब घुंघुट्टा में लुकाइल नइखे, हंसी अब नचाए लागल बा।
जिनगी के संग चलsता, त जिनगी के अँगना में बसंत अइबे करी। इहे बसंत ह, जे ना ह, त सुखो फीका, आ गम भी। बसंत बिना जिनगी के फगुआ ना, बसंत बिना मन के फुलवारी सूनी-सूनी। इहे बसंत ह, जवन हर साल अइला के वादा करेला।
बसंत, तू अइले बा, हम तोहर दीवाना हो गइनी। एह माटी में, एह हवा में, एह खेत में, एह नदी में— हमके त लागता, अब हर ओर बस बसंत ह, बस बसंत!
बसंत के आहट जइसे मनवा में नया गीत भर देला। ई कोई साधारण रितु ना ह, ई त एगो संगीतमय उत्सव ह, जवन परकास के फुहार नियर चारो ओर बरसता। गाँव-गाँव, सहर-सहर, गली-गली, हर कोना में ई रंग भर देला। पुरान छेंका खुल जाला, मन के जड़ता गल जाला, आ उमंग के नया कोपल फूटे लागेला।
बसंत आवते, बगिया में रंग के सौंदर्य उमड़ि पड़ेला। गुलाब, गेंदा, जुही, चमेली— सभे सज-धज के बसंत के स्वागत में लागल बा। जइसे कोहबर में सुहागिन मेहरारू सज के आपन साजन के राह देखे। मधुमक्खी फूलन के रस पी के उड़े लागल, तितलियन के उड़ान में अल्हड़पन आ गइल।
ग्राम गीतन में अब कोयल के मिठास घुल गइल बा। घोंसला में चिरइंया फुरफुराए लागल, त बगियन के अमवा से बौर के गंध पसर गइल। ओझा-बाबा भी अब जड़ी-बूटी छोड़ के फगुआ के गीत गावे लागल। दुनिया के सगरी राग-द्वेष जैसे एह मौसम में ठहर जाला, पिघल जाला।
बसंत एगो संकल्प भी ह— बीतल दुखन के भूला के आगे बढ़े के संकल्प। ना त साल भर के ठंढा दिन, ऊ माघ-पूस के रात के ठिठुरन, ऊ जाड़ के कुहासा— सभे मन में कवनो न कवनो उदासी छोड़ जाला। लेकिन बसंत आवते सब सिहरन भूल जाला, मनवा रसगर बन जाला, मन के हर कोना हरिअरा हो जाला।
गाछ के पुरान पात झर गइल, नया कोंपल निकलल, त लागल कि बसंत एगो नया अध्याय लिख रहल बा। कवनो अनजोर बूढ़ काठी भी बसंत में जोश से भर जाला। ठेहुना पर हाथ दे के खड़ा होखे लागेला, मुसकी परस देला, आ बसंत के रंग से लथपथ हो जाला।
आसमान में अब उन्माद भरल बादर ना, बलुक हलुक-हलुक उजास बा। इहे उजास, जे मन के अंधियारा के दूर करेला। जब मनई के भीतर के दुख टपक जाला, त ऊ दुखवा में बसंत के कोमल स्पर्श समा जाला। फगुआ के धुन बजते, त जइसे दुनिया अपना दुःखो में हँसले सिख जाला।
बसंत त एगो सहज सौंदर्य ह। सभके अपना-अपना तरह से ई महसूस करे के आजादी बा। कवि एहमें कविता देखेला, गीतकार एहमें सुर खोजेला, प्रेमी एहमें अनुराग खोजेला, किसान एहमें धन-धान्य के भविष्य देखेला। एहमें कवनो एक रंग नइखे, एहमें सगरी रंग समा गइल बा।
एह बसंती मौसम में जीवन के हर कोना नहा जाला। मंदिर के घंटी भी ज्यादा रसगर लागत, मस्जिद से निकले वाला अजान में भी एगो मिठास समा जाला, चर्च के घण्टी में भी बसंत के राग सुनाई पड़े लागेला। मने, बसंत त कवनो एक समाज, एक जाति, एक धरम के ना होखे— बसंत सबके ह, सबके।
फागुन के रंग अब चटक हो गइल बा। जब जवानी पर बसंत चढ़े ला, त आँख में काजर आ लाली के संगे-संग अनुराग घुल जाला। जइसे पियवा के पाती पढ़े के मन होखे लागे, जइसे अंगना में चूड़ी के खनक अउरी तेज हो जाला, जइसे मुसुकावत ओठ में अबीर के सुरूर समा जाला।
जब बसंत में अमराई झूमे लागे, त पुरनका गीत सभ याद आ जाला—
"बनवन में बागिया फुला गइल, मोरे राजा फगुआ आ गइल"।
ई गान के बोल में प्रेम के महक बा, बिछोह के उम्मीद बा, मिलन के अधीरता बा। इहे त बसंत ह— जइमें हर भावना के जगह बा, जइमें हर उमंग के रस बा।
खेत में गेहूँ के बालिया जब बसंत के हलुक झकोर में लहराए लागे, त किसान के मन भी झूमे लागेला। ऊ अपन मेहनत के हर बूँद एह बसंत में सार्थक देखेला। जिनगी के कठिनाई भी बसंत में आ के धइरी बन जाला, मनवा में एगो नया भरोसा समा जाला।
जब फगुआ के दिन में महुआ टपकता, त जइसे धरती खुदे गीत गावे लागे। नदिया के लहर में भी मादकता आ जाला, तालाब के जल में चाँदनी अउरी सुहावन लागत। ई बसंत त एगो सुरूर बा, एगो दीवानगी बा, एगो अटूट प्रेम बा।
बीतल दुःख के भुला के, मनवा के बसंती रंग में रंगे के चाहीं। बसंत के एह सौंदर्य के, एह लय के, एह गीत के, एह मधुरता के अपनावे के चाहीं। काहे कि जिनगी में जेतना भी पतझर आ जाव, बसंत फेरु अइबे करेला। जेतना भी दु:ख के घड़ी आ जाव, बसंत फेरु मुसकिये के हमनी के अँचरा में खुशबू बिखेरबे करेला।
ई बसंत, ई चिरनूतन, ई संगीतमय बसंत— हमरा मन में, तोहरा मन में, हमनी सभकर मन में, हमेशा जिंदा रही!
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नाम: परिचय दास
जन्म: रामपुर, देवल आश्रम, मऊ नाथ भंजन, उत्तर प्रदेश
भोजपुरी, मैथिली और हिन्दी मे लेखन
20 से अधिक पुस्तकें
कविता,निबंध,आलोचना आदि मे गहन हस्तक्षेप
द्विवागीश सम्मान,श्याम नारायण पांडेय सम्मान आदि 7 सम्मान
'इंद्रप्रस्थ भारती' [हिन्दी] तथा ' परिछन' [मैथिली-भोजपुरी ] पत्रिका का संपादन
मैथिली-भोजपुरी अकादेमी, दिल्ली तथा
हिन्दी अकादेमी, दिल्ली के सचिव रह चुके हैं.
संपर्क:-
76, दिन अपार्टमेंट्स , सेक्टर -4, द्वारका ,नई दिल्ली-110078
मोबाइल-09968269237
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