असो जाए फगुनवा ना बाँव सजना - डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल

असो जाए फगुनवा ना बाँव सजना
कुछो हो जाए अइह तू गाँव सजना।
काल्हु बुधनी के डेगे ना हेठा परे
ओहके फुरसत ना हमरा से बातो करे
ओकर दुलहा जे पाती पेठवले रहल
संग रङ आ अबीरो भेजवले रहल
बा बढ़ल ओकर टोला में भाव सजना।
असो छवरी के अमवो बा मोजरा गइल
पिछुवरिया के कनइलवो कोंढ़िया गइल
रोज गाके कोइलिया डोलावेले मन
तोहसे मीले के सपना देखावे सजन
कान तरसेला सूने के नाँव सजना।
रोज रोटी आ दूधे कटोरा भरीं
तनी उचरऽ ए कागा निहोरा करीं
आँखि पथराइल देखे में रहिया पिया
केहू बूझे दरद ना विमल के हिया
लागे केकरो ना बोली सोहाँव सजना।
हो गइल दिन बहुत रंग खेलल पिया
मुसकराइल हँसल अउर चहकल पिया
अबकियो जो ना अइबऽ त कइसे जियबि
कइसे तोहरा बिना हम ससुरवा रहबि
तोहरा बिन लागे घरवा उबाँव सजना।
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लेखक परिचय:-
नाम: डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल
जन्म: बड़कागाँव, सबल पट्टी, थाना- सिमरी
बक्सर-802118, बिहार
जनम दिन: 28 फरवरी, 1962
पिता: आचार्य पं. काशीनाथ मिश्र
संप्रति: केंद्र सरकार का एगो स्वायत्तशासी संस्थान में।
संपादन: संसृति
रचना: ‘कौन सा उपहार दूँ प्रिय’ अउरी ‘फगुआ के पहरा’
ई-मेल: rmishravimal@gmail.com

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