फगुआ विशेषांक

बसन्त पंचमी, सम्मत, फगुआ अउरी चइता के महता भुला के आज समाज (शहर होखे भा देहात) खाली देखावा करे में लागल बा। आज बसन्त पंचमी असभ्य गानन पर सभका संगे नाचे, सम्मत पड़ाका फोरे अउरी फगुआ शराब आ कलिया-मछरी खाए के मोका में बदल गइल बा अउरी सभ परम्परा, धरम अउरी तेवहार के नाँव पर कइला जा रहल बा। एह बात से हमरा तनिको असहमति नइखे कि समय के संगे तेवहार अउरी परम्परा आपन रुप अउरी ढंग दूनू बदले ला बाकिर इ बदलाव केवनो नाया परम्परा शुरू ना करेला अउरी जदि केवनो नाया परम्परा शुरू होखत होखे तऽ तेवहारन के परदा कऽ के उनह्नी के महता कम कइला के केवन काम बा?
आज जरूरी बा कि हमनी के पीढी अउरी नवकी पीढी अपनी परम्परा अउरी पुरखन के विरासत से परिचित रहो अउरी जदि ऊ सभ परम्परा बिगड़ रहल बाड़ी सऽ तऽ उनह्नी के साहित्य के रुप में सोझा ले आवल जाओ। एही मतलब से मैना के ई अंक फगुआ पर आइल बा। उमीद बा पसन परी।
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फागुन आइल
बयार फगुनहटा के ले के
कि दिहलस अइगा
चइती के डेगे-डेगे।
एह बीच रंग उड़ी
उड़ी अबीर
अउरी धरती सजी
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सारा ऋतुवन के राजा वसंत के मौसम में फागुन के पूर्णिमा के मनावे जाये वाला इ परब आनंद के बयार बहावे में हर साल सक्षम होला आ भारत के पुरातन गौरवशाली इतिहास के परिचय भी करावेला। होली इ बतावे के प्रयास करेला की होली के जइसन ही जीवन भी रंग से भरल होखे के चाही।बेरंग के दुनिया केहू के निमन ना लागेला, हमनी के जीवन के कई गो रंग होला ,कई गो ओकर रूप होला काहे की जब सब रंग मिल जाला एके में त उ करिया लउकेला, एहिसे हर रंग के पहचान होखे लायक रखे के चाही, न त उ करिया धब्बा बन जाई। सब केहू के जीवन में अलगे अलगे जगह पर ओकर अलग अलग रूप का एगो मर्द जात कही बाप त कही बेटा त कही पति त कही मालिक चाहे सेवक ओईसही औरत के भी अलग अलग रूप बा।
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फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल।
एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल॥
जोगीरा सारारारारारारारा......
गोरिया घर से बाहर गइली, भऽरे गइली पानी।
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बाबू कुँवर सिंह तोहरे राज बिनु
अब न रंगइबो केसरिया।
इतते आइल घेरि फिरंगी
उतते कुँवर दोउ भाई।
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रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में
हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में
मन को रंग लो रंग रंगिले कोई चित चंचल चोली में
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फागुन फाग बुलाई दिहले - मास्टर अजीज
फागुन फाग बुलाई दिहले, अंग-अंग फुलाई दिहले हे।
मइया ओढ़ि के वासंती चुनरिया, नगरिया हरसाई गइले हे।।
चइत चनरमा चिढ़ाई गइले, पिया बिन तरसाई गइले हे।
मइया वासी जे भात अरुआई गइले, लरिका छछनाई गइले हे।।
फागुन फाग बुलाई दिहले, अंग-अंग फुलाई दिहले हे।
मइया ओढ़ि के वासंती चुनरिया, नगरिया हरसाई गइले हे।।
चइत चनरमा चिढ़ाई गइले, पिया बिन तरसाई गइले हे।
मइया वासी जे भात अरुआई गइले, लरिका छछनाई गइले हे।।
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फगुआ फाग खेलन को जनकपुर आयहु राज दुलार
फगुआ फाग----
आयहु राज दुलार हो
आहो आयहु राज दुलार
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बियहल तिरिया के मातल नयनवा, फगुनवा में॥
पियवा करवलस ना गंवनवा, फगुनवा में॥
सगली सहेलिया कुल्हि भुलनी नइहरा।
हमही बिहउती सम्हारत बानी अँचरा।
नीक लागे न भवनवा, फगुनवा में॥
पियवा .....
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फागुन महीना शुरू होते ही रग रग में मस्ती छा जाले। जवान हो या बूढ़, नर हो या नारी सब केहु फगुनहट के मस्ती में डूब जाला। फागुन महीना यानि होली के महीना, होली यानि रंगन के त्यौहार, दिलसे मईल मिटावे के त्यौहार आ एहु ले बढ़ के भाई चारा के त्यौहार। कहे खातिर त मस्ती से सराबोर महीना के शुरुआत बाकि आज के माहौल और बजारूकरण के स्तिथि देख के एह मौका खातिर ५ साल पहिले लिखल अपने गीत दिल और दिमाग में घूमे लागेला "रंगवा में लागल बाटे दाग कैसे खेली होली गुजरिया।"शायद ही केहु के यकीन होखी कि भाई चारा के पावन पर्व धीरे धीरे ही सही आपन गरिमा से निचे ही गिर रहल बिया। रंग के जगह बनावटी रंग के कारन रंग भरल पर्व अब सिर्फ करिया रंग में ही नजर आवेला आ बकिया के काम स्वार्थी बाजार के घटिया सोच पूरा कर रहल बा। एक जमाना रहे जब होली के दिना पुरान दुश्मनी भुलावे के काम होत रहे अब ओकरा जगह करिया आ बनावटी रंग के आड़ में दुश्मनन के खत्म करे के काम हो रहल बा।
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होली में हूड़दंग करे
आईल पछिम टोला,
केहू पियले दारू बा
केहू खइले गोला।
नशा के ख़ुमारी में
गउज-माउज होला,
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'मत रहियो पिया परदेस आया फागुन रे...'
फगुआ खेलत मेहरारूअन के टोली आगे बढ़ जाता. टोली के बोली पर हमरो मन होलिया गइल. फगुआ के रंग में डुबकी लगाये खातिर बेताब होखे लागल. बाकिर रह रह के मन मायूस हो जाव कि हमरा नियर बंडा सियार आ ऊपर से करी्अठ पर के रंग डाली. बाकिर दिल के एगो कोना में नोनियवा घास नियर आसा के किरन जामल कि होली ह. एहमें उमिर आ करीआ -गोर ना देखल जाला. ई विचार आवते दिल दरियाव हो गइल. भीतरे भीतरे अगराये लागल. कबनों गोरकी भउजी मिल जइती त उनुका ऊपर एक बाल्टी हरिहरका रंग डाल देती आ उ. ऐने ओने कुछ कहती त उनुकरा सुघर गाल पर लालटेस रंग पोत देती. तब उ हमरा से पीछा छोड़ावत भगती.
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लाग गइल नजरी उलटा गगनवाँ में,
लाग गइल नजरी।।
ना देखीं मेघमाला, ना देखीं बदरी।
टपकत बुन्दवा भींजे मोरा चुन्दरी।।
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मनमौजी हुड़दंग, मौज-मस्ती आ सबके सतमेझरा रंग में रंग देबे वाला होली के लोक-पर्व से के बचत होई? ना केहू बचत होई आ ना केहू बचे के चाही। एह मौसम में त पेड़ो-खूँट बउरा जाला, मनई के मन त बउरइला के साथे अगराइओ जाला। फगुआ के फाटक खटखटावते सभे तनी दोसरे नियर बोले लागेला। ई सब शहर से दूर त रहबे कइल ह, अब एकर रूप गाँवो-देहात में बदल गइल बा। अब ना ढोलक के नाल चढवला के गरज पड़ेला आ ना झाल झनकवाला के। अब फगुआ के सगरे रंग एगो कैसेट के दुअर्थी गीतन में कैद हो के फेंकरत लागेला। कारन कवनो होखे बाकिर होली के बेर हमार मन मचले लागेला।
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(22 मार्च 2016)
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