रंगवा में लागल बाटे दाग - अभय कृष्ण त्रिपाठी "विष्णु"

फागुन महीना शुरू होते ही रग रग में मस्ती छा जाले। जवान हो या बूढ़, नर हो या नारी सब केहु फगुनहट के मस्ती में डूब जाला। फागुन महीना यानि होली के महीना, होली यानि रंगन के त्यौहार, दिलसे मईल मिटावे के त्यौहार आ एहु ले बढ़ के भाई चारा के त्यौहार। कहे खातिर त मस्ती से सराबोर महीना के शुरुआत बाकि आज के माहौल और बजारूकरण के स्तिथि देख के एह मौका खातिर ५ साल पहिले लिखल अपने गीत दिल और दिमाग में घूमे लागेला "रंगवा में लागल बाटे दाग कैसे खेली होली गुजरिया।"
शायद ही केहु के यकीन होखी कि भाई चारा के पावन पर्व धीरे धीरे ही सही आपन गरिमा से निचे ही गिर रहल बिया। 
रंग के जगह बनावटी रंग के कारन रंग भरल पर्व अब सिर्फ करिया रंग में ही नजर आवेला आ बकिया के काम स्वार्थी बाजार के घटिया सोच पूरा कर रहल बा। 
एक जमाना रहे जब होली के दिना पुरान दुश्मनी भुलावे के काम होत रहे अब ओकरा जगह करिया आ बनावटी रंग के आड़ में दुश्मनन के खत्म करे के काम हो रहल बा
। 
वइसे त्यौहार कवनो धरम भा समाज के हो ओकरा पीछे धार्मिक चाहे सामाजिक परंपरा के कहनी जरूर जुडल होला
। 
होली के साथ भी सनातन धरम के बहुत पुरान कहनी जुडल बा।
सृष्टि रचना के शुरूआती काल के बात रहे बा राक्षस आ देवता वर्ग में अपना के श्रेष्ठ साबित करे खातिर बात बात पर युद्ध के नगाड़ा बजे लगे। 
अइसने एक काल में राक्षसन के राजा हिरण्कश्यप के राज में मुनादी रहे के केहु भी देवता लोग (विष्णु) के पूजा ना करी आ ओकरा राज्य में रहे के बा त सिर्फ ओकरे (हिरण्कश्यप) पूजा करे के पड़ी
। 
एही हिरण्कश्यप के लइका रहे प्रह्लाद जे पूर्व जनम के करम के कारन से विष्णु के भक्त रहे
। 
हिरण्कश्यप के लाख समझावे के बाद भी प्रह्लाद विष्णु के उपासना बंद ना कइलस जेकरा से परेशान होके हिरण्कश्यप अपना सैनिकन के प्रह्लाद के मारे खातिर आदेश पारित कर दिहलस। 
जब प्रह्लाद के मारे क कई प्रयास विफल हो गईल तब ई काम के जिम्मेदारी हिरण्कश्यप के बहिन होलिका ले लिहलस। 
होलिका के पास एगो अइसन शाल रहे जेकरा के ओढ़ ओढला पर आग के असर ना हो
। 
योजना ई बनल कि होलिका शाल ओढ़ के प्रह्लाद सहित आगि में बइठ जाई जेकरा बाद होलिका के कुछ ना होई आ प्रह्लाद के खात्मा हो जाई
। 
तय समय पर जब होलिका प्रह्लाद के लेके चिता पर बइठल त देवतन में त्राहि त्राहि मच गईल, कहीं कहीं ई भी सुने के चाहे पढ़े के मिलल कि ओह समय देवता लोग राक्षसन के अपना भाषा में गारी भी देबे लागल। 
विष्णु के कृपा से हवा के झोका से शाल उड़ के प्रह्लाद पर चल गईल अउरी होलिका जर के राख हो गईल ।
धार्मिक मान्यता के एही कहनी में होली के मरम छुपल बा आ तबहिले ले होली पर्व के शुरआत भईल जेकरा में पहिले होलिका के जरावल जाला फिर अगिला दिना सुबह पहिले राक्षसी प्रतिक स्वरुप एक दूसरा पर रंग लगाना आ फिर संझा बेला मन से सारा मईल मिटा के एक दूसरा से गले मिल के भाई चारा पेश करना
। 
कहीं कहीं एह दिन के पुरान सम्बत (हिंदी साल) बीतला और नया संवत के शुरआत होखे के जिक्र भी मिले ला प सैद्धांतिक रूप से एह दिन के लोग मुख्यत हिरण्कश्यप और भक्त प्रह्लाद के साथ साथ होलिका से जोड़ के ही देखे ला। 
ई पर्व के सन्देश इहे बा कि अपना दिल में कवनो मैल ना राखे के चाही काहे से जेकरा मन में कवनो मैल ना रही आ ओकर मन प्रह्लाद नियर साफ़ रही ओकरा साथै देवता लोग भी खड़ा रहेला आ ओकर हिरण्कश्यप जइसन राक्षस भी कुछ ना बिगाड़ पाई ।
अउरी लोगिन के ना मालूम पर हमरा घर में हमार अम्मा संवत जरला से पहिले ओकरा में घर के सब लोगन के उबटन लगा के छुड़ावल मईल भी डलवावत रहली आ पुछला पर कहस कि अइसे करे से मन के मईल संवत जरला के साथै खतम हो जाई। 
अंत में नीचे आपन वही गीत दे रहल बानी उम्मीद बा सबके पसंद आयी
रंगवा में लागल बाटे दाग कइसे खेंली होली गुजरिया, 
सँइया रंगइले सौतन नार कइसे खेलीं होली सँवरिया..। 
लाल लाली रंगवा प्यार भरल संगवा, 
आतंकी सजावे आपन माँग कइसे खेलीं होली गुजरिया, 
रंगवा में लागल बाटे…..। 
खेत खलिहनवा किसानी के जनवा, 
हरियर से भइल भुअर जाल कइसे खेलीं होली गुजरिया, 
रंगवा में लागल बाटे…..। 
काली परछइयाँ जियवा के जरिया, 
काला धनवा में डूबल संसार कइसे खेलीं होली गुजरिया, 
रंगवा में लागल बाटे…..। 
संईया के भाइल रहे ओंठवा गुलाबी, 
सजनी चोरवली ओकर सार कइसे खेलीं होली सँवरिया, 
रंगवा में लागल बाटे…..। 
रंगवा में लागल बाटे दाग कइसे खेंली होली गुजरिया, 
सँइया रंगइले सौतन नार कइसे खेलीं होली सँवरिया..।
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अभय कृष्ण त्रिपाठी "विष्णु"











अंक - 72 (22 मार्च 2016)

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