स्वारथ लागि करै सब प्रीती॥"
तुलसीदास जी मानस में एक दम सही औरी हमेसा सही रहे वाली बात कहले बानी। सुवारथ में अदीमी कुछु करेला औरी करे के बेरा आगा-पाछा कबो ना सोचेला। ओकरा ओ बेरा ई लागे ला कि जेवन करत बा बस तेवने सभ से बड़ सच बा। औरी केहू करबो का करी इहे अदीमी के निमन भा बाऊर साँच बा। एगो अईसन साँच जेके सभ मनबो करेला औरी मनो करेला।
सुवारथ में डुबि के अदीमी गलत से गलत कामो करेला औरी ई आज से नईखे होखत। हजारन साल बीत गईल; इहे होखत आवत बा। नेपाल में धरती के डोलला से लाखन लोग आज सड़क पर खड़ा बाड़े; तऽ हजारन लोग बिना बजह ई दुनिया छोड़ गईलन जेकरा के ले के जाने केतने सपना देखले होईहें।
ई त्रासदी बाकी सभ औरी त्रासदीन नियर कुछ सवाल पीछे छोड़ देले बे औरी जरुरी बा कि ओकरा ओर धियान दिहल जाओ ना तऽ काल्ह धियान देबहूँ लायक ना रहि जाईब जा हमनी के। ई सभ जानत बा कि धरती के ड़ोलला से अदीमी ना मरेला। मरेला अदीमी घरन के ढहला से। तऽ सवाल खड़ा होता कि इमे का नया बा? ई बात तऽ सभ जानता। फेर चरचा काँहे खाती? सवाल सही बा।
लोग कहत बा कि बिकास हो रहल बा दुनिया के औरी हमहूँ ई बात मानत बानी। लेकिन एही बिकास के दूसरका साँच ई बा कि ई बिकास अदीमी के जिनगी के मोल पर होता। पहिले लोग भू-डोल से घाही तऽ हो जाए पर एतना ना मरत रहल लेकिन बिकास के ए घरी में मरे वाला लोगन के संख्या बढत जात बा। सवाल खड़ा होताऽ कि काँहे अईसन होताऽ जब आज अदीमी के लगे पताल से ले के आसमान तक के सगरी जानकारी औरी गियान बा? काँहे कि अदीमी अपनी सुवारथ के पूरा करे खाती सगरी चीझन के भुलवा देले बा।
अदीमी प्रकृति के बिना ना रही सकेला। बलकि ओकरा हिसाबे से रहे के चाहीं। लेकिन बिकास के अन्हवट अदीमी के आँखि पर परदा डाल देले बा। नेपाल में जेवन तबाही भू-डोल से भईल ओकरा खाती नेपाली लोग औरी सरकार जिम्मेवार बे। सङही चीन औरी भारतो दोसी बाड़े सऽ। बिकास के नाँव पर नेपाल में पक्का मकान बने लगली स जेवना में चमक-दमक के छौंक लागल रहल। ऊ नेपाल जेवन कुछ साल पहिले ले लकड़ी के घर बनावे पर जोर देत रहल, देखत-देखत ईंटा-पथर के जंगल बनि गईल। सङही चीन तिब्बत के बिकास के नांव पर पूरा तिब्बत खोंन दिहलस औरी भारतो पीछे चले लागल। लोग ई ना सोचलें कि पहाड़ जमीन ले ढेर अस्थिर औरी खतरनाक होला। हिमालय बेर-बेर मना कईलस; कबो केदारनाथ में आपन नाच देखा के, तऽ कबो जम्मू कश्मीर में बाढ़ ले आ के। पर अदीमी एसे काँहा चेतेला।
नेपाल औरी बाकी सभ देस आपन-आपन बिकास में लागल रहलन औरी हिमालय अपना के बचावे में। औरी आपन खीस निकलस। ई कहानी खाली नेपाल के नईखे बाकी सगरी दुनिया के बा। प्रकृति आपन खीस तबाही के नाया-नाया रूप में सोझा आवत बे लेकिन सङही सम्हरे खाती चेतवतो बे।
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महानगर के शोभा झुग्गी-झोपड़ी
एगो प्रश्नचिन्ह?
भा विकास के चेहरा पर
एगो चिंता के लकीर
खाली अख़बार के
पढ़ेवाला करेला फिकिर
धनिक लोग के इहाँ
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किसान-व्यथा - मुकुन्द मणि मिश्रा
ऊँख के बोके दुख भइल बा ।
मिलत ना पइसा हूक भइल बा।
रुठ गइल का किस्मत खुद से ?
या हमनी से चूक भइल बा !!
दिल्ली-पटना मूक भइल बा ।
गेंहूँ -मसूरी सूख गइल बा।
काथी भरिहें डेहरी कोठिला !
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भोजपुरी के सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह भोजपुरी भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनेक काम कइले बानी। भोजपुरी-हिंदी-अंग्रेजी के पहिला त्रिभाषी शब्दकोश के भाषा- संपादक होखे के श्रेय डाॅ. सिंह के प्राप्त बा। भोजपुरी व्याकरण, भाषाशास्त्र, अनुवाद, शब्दकोश, वर्तनी सहित भोजपुरी भाषाविज्ञान से जुड़ल अनेक पुस्तक इहाँ के प्रकाशित बा।
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बेटा बड़का हाकिम रहले आ पतोह बड़का प्रोफेसर। घर में नोकर चाकर, दुअरा पर स्कार्पिओ गाड़ी, काथी ना रहे। घर में लहवर बरसत रहे। पतोह जेतने लक्ष्मी रहली ओतने सुरसती। भोजन अपने बनाके ससुर जी के परोसस, पंखा झलस अइसन सुख त केहूए केहूके नू मिलेला। बाकिर आज ना जानी जे काहे उ रामलालजी के इच्छा भोजन पर ना जात रहे। दू कवर खइलें आ हाथ धो लेलें। सुधा जे उनकर पतोह रहली। बड़ा आदर से पूछली-"बाबूजी। आजु बड़ा उदास बानी।"
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चिहुँकेली बार-बार अँचर उतार चले
बे हँसी के हँसी पति देख कहँरी।
मार-मार हलुआ निकाले ऊ भतरऊ के
डाँट के बोलावे कोई बात में ना ठहरी।
घरे-घरे झगड़ा लगावे झूठ साँच कहं
भूँजा भरी फाँके चुप्पे फोरे आपन डेहरी।
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दिन फिरे तऽ पाहुन कहाय, बिगरल दिन सार बनाय।
पहीला दिने पहुना दोसरा दिने ठेहुना तिसरा दिने केहु ना।
अइली न गइली, दुके बो कहइली।
अघाईल खंसी लकड़ी चबाए।
सियार का शरपले डांगर ना मुये
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(5 मई 2015)
(5 मई 2015)
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