पचइयाँ : दूध, दूब आ नेह के गंध - परिचय दास

नाग पंचमी पचइयाँ वन्दना श्रीवास्तव मैना भोजपुरी साहित्य कऽ उड़ान

पचइयाँ के दिन जब आँगन के गोबर लिपल धरती साँप के बरे सजावल जाला, त उ घरी गाँव के हावा में एगो गंध उठेला—माटी, दूध, गोबर, दूब आ आँच के। पचइयाँ, जे नागपंचमी ह, बाकिर भोजपुरिया मन में ई शब्द 'पचइयाँ' बन के उतर गइल बा—नरम, जनाना, जइसन कवनो भउजी के अंचरा से झाँकत बिंदी।

पचइयाँ के बिहान जइसे ही सूरज अगोरत फजीहत भइल, गोरू-बइसी जाग गइल, आ घर के मेहरारू सब ओसारा में झाड़ू मारत, ककड़ी, दूध, चिउड़ा राखे के तैयारी करत दिखाई पड़ीं। ओ दिन पुरुख लोग खाली आव-आव करत बरामदा में बैठल मिलेला, चूना लगावत, खैनी मलत। बाकिर असली रंग पचइयाँ के मेहरारू लोग रंगेला—ओकरा अँगनवा में।

लइकियन के भीड़ में, सबके हाथ में दूब के गट्ठर, पीयर दूती में लपेटल दूध, आ खील-लावा । पचइयाँ आवते साँप देवता के लउकावल जाला—नहीं त देवाल पर, नाहीं त माटी के लिपल जमीन पर गोबर से बनावल उनकर रूप। एगो पुरखिन कहेली—"बबुनी! साँप देवता के आँख मत बना—अन्हार के मालिक होखेलन, देखला से डर जाला।"

एगो लइकी गोबर से नागिन बनावत कहेली—"ई देखऽ माई, हमार नागिन के देह में तीन बेर गोदना भी बा—जइसे हमार बाँहि में बा।" माई मुसकात कहेले—"तोहरे बदे त ई नागिन जनमल बिया।"
पचइयाँ के पूजा कौनो कर्मकाण्ड नइखे, ई त स्मृति के भोजपुरिया उत्सव ह। ई ओह देहात के स्त्रियन के परंपरा बा, जे जियत-जागत धरती से सिखल—कि साँपो के पूजा करल जाला। माटी के देह, माटी के देवता। ई संस्कार जिनगी से उपजल बा, किताब से ना।

घर के पुरान पातर दीवार पर गेरू से नाग के आकृति बनावल जाला, आउर ओपर दूब रख दीहल जाला। ओके दूध चढ़ावल जाला, खील छिरकल जाला, आउर मन ही मन कह जाला—"हे पचइयाँ बाबा! बहर जइहऽ, भीतर मत अइहऽ। तोहार गाम, तोहार जंगल—हमार देहरी छोड़ि देहऽ।"

पचइयाँ के संझा के गंध कुछ अउरी होला। सुतली में पिरोके खील-लावा लटका दीहल जाला छप्पर पर। चिउड़ा-दही के थरिया सजावल जाला। आ लइकी सब सखी-संग चिउड़ा खात-कात आपन दुख-सुख बतियावत हँसेली। एह घरी में साँप, जवन मर्द के मन में डरल किआन बा, मेहरारू के मन में सहेज के राखल देवता हो जाला।
बचपन के ओह पचइयाँ के याद, जब पहली बेर गोबर के साँप बनवले रहीं, माई हाथ से ठीक कइले रहली—"ना बबुनी, नागिन के पूँछ पतली आ गरदन भारी होले।" ऊ कला आज ले सीखाइल बा। ओह में कवनो डर नइखे, सिरिफ सम्मान बा—प्रकृति के, विष के, जीवन के।

पचइयाँ में भोजपुरिया मन एगो अनजान सुर गुनगुनावेला—जइसे धरती अँगना में सुस्तावत बा। साँप के पूजा क के, गाँव के लोग कहेला—हम देखत बानी, हम मानत बानी, हम सहेजत बानी। एहमें जवन अस्थायी बा, ओह के भी टिकाव देवे के लालसा बा।

पचइयाँ हमार भाषा में, हमार मन में, हमार देह के घाघरा में जइसन जरीदार किनारी ह—ना बहुते उजास, ना बहुते रंग, बाकिर ऊ पुरनिया छुवन जइसन—जे सगरो चुपचाप मौजूद बा।

पचइयाँ के ई तिहार, भोजपुरिया घरन में केवल अनुष्ठान ना ह, ई सभ्यता के एगो मौन पाठ बा। हर साल जब सावन के परछाईं लंबी होखे लागेले, तब एगो महीन आवाज गाम भर में घुस आवेले—पचइयाँ आ गइल बा। अइसन लागे, जइसे पुरखिन के बोली बगिया में फुलाइल होखो, जे कहे—"कवनो जनावर के पूरा तरह जानल जाला का?"
साँप के पूजा करल भोजपुरिया मन के एगो गहरा विश्वास ह। आदमी जवन खलिहान के रखवाली करेला, ऊ ई मानेला कि साँप के संग बना के राखल जरूरी बा। चूहा के खाइल ओकरे काज, बाकिर मनुष्य के डर देख के ऊ भाग जाला। अइसन न्यायप्रिय प्राणी के पूजा कईल त विवेक ह।

पचइयाँ के दिन साँझ के जइसे अइलस, गाम के पगडंडी से निकल के एगो बियन्हा के गीत आवे लागल—
"पचइयाँ बाबा के दूध चढ़ाइब, गोसाँइ नइहर ना अइहऽ..."

ई गीत सुनत-सुनत ससुरार के आँगन में बइठल नवविवाहिता लजाय के मुसकाय लागे। ओकरा माई कहल रही—"पचइयाँ के दिन दूध देखाके पूत होले।" ऊ अब आपन अंचरा में दूब के टहनी बांध के कहेले—"हमहूँ देखाइब, हमहूँ माँगब।"
भोजपुरिया संस्कृति में पचइयाँ के मतलब बा—नरम भाषा में, धरती के जीव-जंतु के संग रिश्तेदारी। ना ऊ गारजियन हो, ना मेहमान—बस 'अपने'। एह 'अपनेपन' में जे आत्मीयता बा, ऊ किताब में नइखे, ऊ त रोटी पर गिरी मट्ठा के जइसन बा—भिंगहाइल, बाकिर स्वाद से भरल।

ओ दिन बचवन के टोली खेत के मेढ़ पर जाके साँप खोजेले, बाकिर मारेला ना। देख लेला त चिल्ला के भाग जाला—"साँप! साँप!" दादी कहें—"जवन साँप दिखि गइल, ऊ कबहूँ नाही डसत।" ई कहावत पचइयाँ के दर्शन ह। साँप देखाइल त जीवन बचल।

पचइयाँ में साँप घर में घुस आओ त ओकरे बदे दूध के कटोरा रख दिहल जाला। आ साँझ में बबुनी सब कहेले—"देखऽ, दूध पी के चल गइल—धन्य भइल अँगना।" अइसे, साँप भोजपुरिया समाज के उ चुप साधु ह, जेकरा जिंदा रहला पर घर के सुगंध टिकल रहेला।

एगो बूढ़ पंडित कहेले—"अरे बेटा, पचइयाँ त केवल साँप के पूजा ना ह, ई सगरो जहर के शांत करे के तंत्र ह। तन, मन, समाज—तीनों में जे विष बा, ओके मिटावे के अनुष्ठान ह।"

ई सुन्न के लागेला कि पचइयाँ पर साँप ना, हमनीं आपन भीतर के जहर के चढ़ाव रहल बानी—चिउड़ा, दूध, खील, लावा से। आ ओ जहर के हम विनती करत बानी—कि तू बाहर रहऽ, भीतर मत घुसऽ।

एह दिन के सबसे करुण आवाज तब सुनाई देला, जब बुढ़िया एगो पीपल के नीचे चुपचाप गोबर से साँप बनावते-बनावते गुनगुनावेला—

"हमार पचइयाँ बाबा!
जहिया से सगाई भइल,
तहर नामे नेवतल जानी।
पचइयाँ ना आवे त
के राखी सासुर में पाँव?"

एतना कह के ऊ साँप के माथा पर दूब राखेला, आ आँख मूँद लेला। साँप ओकरा मन में ना रहेला, ओकरा जात में, जीवन में रहेला।

पचइयाँ, भोजपुरिया संस्कृति के ओ माटी के दीपक ह, जवन ना बुझेला, बस गाछी में, आँगन में, देह के भीतर टिमटिमात रहेला। जेकर रोशनी ना तेज होला, बाकिर गहरा होला।

पचइयाँ के तिथि अइसन ह, जइसे अन्हरिया में सूप के छनछनाहट। कौनो बड़ा नगाड़ा नइखे, ना साज-सिंगार के सैलाब, बाकिर मन के भीतर एगो जुग-जुगात कथा बहे लागेला। ई तिहार उहे बाँचल ह, जवन चुपके-चुपके जिएला। जेकरा ना घोषणा चाहीं, ना प्रदर्शन। पचइयाँ ओकरे मन के चीन्हेला, जे लोर में भी देवता के देखेला।

एह दिन जब सांझ घरे लौटे के होखेला, त ओसारा में राखल चूल्हा के मुँह से धुआँ उठे लागेला। रोटी जरे के गंध के साथ गोबर के लिपाई में लहकता दीया के लौ काँपे लागे। पचइयाँ में खाइला के भी एगो तटस्थ विनम्रता होला—ना पकवान, ना परोस। बस चिउड़ा-दही, खील, आ शुद्ध जल। ई परहेज भोजपुरिया परंपरा में पवित्रता के विन्यास ह।

गाँव के एगो अंधरिया कोठरी में एगो अधेड़ मेहरारू, जेकर नजर कमजोर बा, हँसी-हँसी में बहू से कहेले—"बबुनी, देखऽ त, गोबर के ई नागिन अबहियों जइसन पहले बनावेनी, ठीक से टेढ़ देह, उबड़-खाबड़ पीठ, आ पूँछ में दूब के गाँठ।"

बहू मुस्कइले—"माई, ई तोहके ही आवेला। हम बनाईं त बिलइया लागत!"

"ना बबुनी, साँप कबो सीधा ना होले। सीधा साँप डसे ला। जेकर देह में टेढ़ बा, उहे बाँचेला।"

ई बात भोजपुरिया लोक के दर्शन बा। साँप जइसन जीव के भी आदमी 'टेढ़' मान के पूजेला। जे सीधा ह, ऊ खतरनाक हो सकत बा। एह में जिनगी के ऊ हँसी-हँसी में बोला गइल गूढ़तम व्याख्या बा।

ओ दिन अँगना में, जब सब लड़की लोग आपन-आपन साँप बनाके लउकेली, त उनकर उंगलियन में गोबर के माटी, चुटकी में दूब, आ आँख में घमंड होला—"हमार बनावल बढ़िया!" ओकरा में कौनो बड़ाई ना होला, बस एगो अपनापन। उहे अपनापन जे भोजपुरिया संस्कृति के चिन्ह ह।

पचइयाँ पर उ ब्राह्मण भी मंदिर ना जाले, जवन रोजे ओहि राह से पंडिताई करत गुजरेला। ऊ कहेला—"आज घरहीं पूजा करब, धरती पर साँच के साँप बनवले बानी, ओही के परसले बानी।"

ई दिन ना त मुहर बा, ना साक्षरता के लेबल। ई त मन के प्रमाणपत्र बा। ई दिन भोजपुरिया समाज आपन भीतर झाँकेला। पचइयाँ के साँप, गाँव के गाछी, गोबर के लिपाई, आ लइकियन के हँसी—सब कुछ में एगो सहज गीत बहे लागेला।

कभी-कभी एही दिन, कवनों बूढ़ पुरनियाँ ओठ से बुदबुदात कहे—

"हे पचइयाँ!
तूँ रहऽ जंगली,
हम रहब गृहस्थ।
तूँ राखऽ फुफकार,
हम राखब अँजोर।
तूँ ले लिहऽ दूध,
बाकिर बचा लिहऽ पूत!"

एह प्रार्थना में ना त कमजोरी बा, ना हीनता—ई त जीवन के गोड़ पखारल ह। भोजपुरिया स्त्री, जेकरा के सब कोई अबला कहे, ऊ एह दिन ई बता देलेली कि ऊ देवता के गोबर से गढ़ सकेले, आउर दुआ से ओकरे विष के अमृत बना सकेले।

पचइयाँ, असल में, भोजपुरिया जीवन के साज-संवर ह। माटी, डर, प्रेम, संस्कृति आ अपनापन के रंग से रचल एगो लकीर, जे गोबर से खींचल जाला, बाकिर जवन समय के दीवार पर अमिट रहेला।

पचइयाँ भोजपुरिया जीवन का उ गहिर रस ह, जवन अनपढ़ देह के भीतर पढ़ल आत्मा जइसन गूंजेला। एकरा में देवता के गोबर से गढ़े के हिम्मत बा, आ डर से दोस्ती करे के करुणा। ई पर्व खाली साँप के पूजन नइखे, ई मनुष्य के अपन संपूर्ण जटिलता, विरोध, भय आ विश्वास के सुघर सुलह ह।

गोबर, दूब, दूध आ दूती—ई सब भोजपुरिया जीवन के पवित्र प्रतीक ह। पचइयाँ ओह लोकधर्मी सौंदर्य के उत्सव ह, जे कवनो शास्त्र के मोहताज नइखे। एहमें जवन पूजा बा, ऊ देहधारी प्रकृति के बा। एहमें जवन गीत बा, ऊ जिए गइल पीढ़ियन के अनुभव से उपजल बा।

पचइयाँ ओ समय के याद दिलावेला, जब जिनगी सीधी ना रह के भी सरल रहेली। जब साँप डसला से ना, भूख, जात, अन्याय से डरे के जादे जरूरत रहेला। आ जब स्त्रियाँ सांप के गोबर से बना के, दूध चढ़ा के, जीवन से कहेली—"हम तहार डर देख लिहनी, अब तू हमर भरोसा देख।"

आज जब मॉल, मोबाइल, मेट्रो के बीच संस्कृति के चूड़ी टूटे लागल बा, त पचइयाँ जइसन पर्व एक चुप इनकार ह—औपचारिकता के खिलाफ, विस्मरण के खिलाफ। ई पर्व बतावेला कि स्मृति जियत बा, माटी के मर्म अभी सूखल नइखे, आ देह के स्पर्श में आज भी देवता के गंध बा।

पचइयाँ, भोजपुरिया संस्कृति के चुप, किन्तु अडिग हस्ताक्षर ह—जे कहेले कि जहाँ साँप पूजाइल जा सके, उहें आदमी साँचे में आदमी हो सकेला। आ जे देहरी पर दूब राख के दूध चढ़ावेला, ऊ हर साँप में विष ना देखेला, कुछ देवता भी देखेला।

ई त एक अइसन भोजपुरिया तिथि ह, जे माटी के पन्ना पर लिखल कविता ह। एकर भाषा ना लिपि माँगे, ना अनुवाद। ई अपना बोली में, अपना देह में, अपना लोक में जीयल दर्शन ह—पचइयाँ! 

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परिचय  दास मैना: भोजपुरी साहित्य कऽ उड़ान
लेखक परिचय:-
जन्म: रामपुर, देवल आश्रम, मऊ नाथ भंजन, उत्तर प्रदेश
भोजपुरी, मैथिली और हिन्दी मे लेखन
20 से अधिक पुस्तकें
कविता,निबंध,आलोचना आदि मे गहन हस्तक्षेप
द्विवागीश सम्मान,श्याम नारायण पांडेय सम्मान आदि 7 सम्मान
'इंद्रप्रस्थ भारती' [हिन्दी] तथा ' परिछन' [मैथिली-भोजपुरी ] पत्रिका का संपादन
मैथिली-भोजपुरी अकादेमी, दिल्ली तथा
हिन्दी अकादेमी, दिल्ली के सचिव रह चुके हैं.
संपर्क:-
76, दिन अपार्टमेंट्स , सेक्टर -4, द्वारका ,नई दिल्ली-110078
मोबाइल-09968269237
e.mail- parichaydass@rediffmail.com

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