गजल मुहब्बत के गवाह रहल बा काहे कि गजल के जन्म मुहब्बते के कोंख से हऽ। एही से फारसी में एकरा के 'वाजनान गुफ्तगू' कहल जाला। बाकिर गजल जब अपना में जिनिगी के रंग, सामाजिक बदरंग, राजनीतिक कलंक आ व्यंग्य समेटले समय आ मानवता के बाति करत बढ़त सामने आवेला तऽ गवाह बन जाला लोक के। ओह गजलन में रउवा पढ़ सकत बानी आम जिनिगी में बिखरल दरद-पीड़ा के देख सकत बानी सामाजिक यथार्थ के बड़ा नजदीक से। अतने ना ऊ गजल आम मनई के मन में प्रस्फुटित आक्रोश के सामने रखत आगे के राह देखावेला, सुतल मनई के जगावेला आ एगो नया सूरज के आस देत लोक के गजल बन जाला। गवाह बन जाला समय के। हँ हम बात कर रहल बानीं गंगा प्रसाद अरूण के 'गजल गवाह बनी' गजल संग्रह के। गंगा प्रसाद अरूण तीन शब्द से बनल नांव ह 'गंगा', 'प्रसाद' आ 'अरूण' अउर ई तीनों लोक धरोहर हऽ। उहाँ के लेखनी से निकलल गजल के गांज में लोक उपस्थिति बा ओहि रूप में जइसन लोक के गजल होखे के चाहीं। गजलगो के कथन हऽ 'एह में सब तरह के सवाद मिली - प्रेम, राजनीति, परिवार, समाज, साहित्य के परपंच तक के '। उहाँ के कहत बानीं कि गजल के तकनीक हम ना जानीं बाकिर भोजपुरी गवाह बा कि गंगा प्रसाद अरूण भोजपुरी गीत आ गजल के क्षेत्र में एगो स्थापित हस्ताक्षरे ना हऽ, भोजपुरी गीत - गजल के पहचान हऽ।
'गजल गवाह बनी' में अरूण जी के चउवन गो गजल संकलित बा। एह संकलन में एगो अजगुत खूबसूरती बा - एकर हस्त लेख में प्रस्तुति, जे प्रिंटिंग के फेल करत नजर आवत बा। अरूण जी के लेखनी हरदम सांच के ओरि इशारा करेले। करे काहे ना। अनुभव के थाती जे उहाँ के हईं। ई बाति एह संकलन में खूब नजर आवत बा। एह संकलन के गजलन से गुजरला पर ई एहसास होत बा कि गजलगो के भीतर समाजिक आ सियासी बदलाव के देख मन में एगो टीस बइठल बा काई बन के ।एहसासन के तरजीह देवे वाला गजलगो के नजरिया बहुत कुछ समेटले बा अपना गजलन में बड़ी बारीकी से। ई पुस्तक के सार लेखक के शब्द उधार लेके कहब त कहब कि -
सोन हरिन संहारिन धूप!
पसरल ह हतियारिन धूप!
दहकत आँवाँ के तम्मू -
जम बइठल बंजारिन धूप।
साँस चले भाथी अइसन,
भिच्छा प्रान, भिखारिन धूप।
आजु एही धूप के बदलल रूपन के बीच आदमी जी रहल बा।
हम तऽ एह संकलन के सार संक्षेप में कहे खातिर अनिल कुमार श्रीवास्तव के गजल के नीचे लिखल शेर उधार लेल चाहब।
थक चुकी है बेतरह ये ज़िन्दगी
दूर है मंज़िल बहुत ही, क्या करें।
कहकहों के बीच तनहा हम यहां,
प्रेम के हैं कोष खाली, क्या करें।
अरूण जी एह संकलन के गजलन के माध्यम से जिनिगी के अनेक सवाद के चखावे के कोशिश कइले बानीं। समय के ताल पर अनुभव के लय में जिनिगी के कांट - पत्थर भरल राहि के परिचय बड़ा सुन्नर ढंग से देखे के मिलत बा उहो सरस आ सरल शब्दन में। आजु के सियासी लूट के चलन प गजलगो के शब्द -
खुला साँढ़ अस चरनी अनकर अनघा अरथ अरजनी,
कहवाँ - कवना बंक में कतना धइनी राजा जी!
उज्जर बकुला अइसन पोठिआ - गरई खूब गटकनी,
सिंकिया से संगरा के बोझा भइनी राजा जी!
बाकिर लेखक जनता के ताकत बता दे रहल बा कि राजा जी के कि कतनो उड़ी रूप रंग बदल के लोकतंत्र में जनते सबसे ऊपर -
कतनो हाँकी पीपर, पेसीं, टोना - बान चलाईं,
खा जाई रउरा के जनता डइनी राजा जी!
आजु के सामाजिक परपंच आ आइल गिरावट पऽ गजलगो के बोल देखीं -
अभी पंघत में परोसल आग - पानी का कहीं!
काम कुत्सा कींच काँकर कूर कानी का कहीं!
.........
छेद करब हम खाइब जवने थारी में!
केहू के कुछ ना बूझब बरिआरी में!
कोट - कचहरी - थाना हमरे पाकिट में,
का कोई कर ली जी बीच बजारी में!
समय के साथ जिनिगी के बदलल रूप पऽ गजल का कह रहल बा देखीं -
आग के झरना बनल ई जिन्दगानी देख लीं!
साँस - सपना में समाइल बेईमानी देख लीं!
गुम भइल चाभी कि कुल संबंध बा ताला जड़ल, आपन आपन ना रहल तब तऽ गजलगो कह रहल बा -
पहिले गोरा मुदई रहलें परदेशी,
अब अपने लिहले लुकवारी,बाचा हो!
कुल जाना - पहिचाना लोग!
लागेला बेगाना लोग!
.....
बहुते माँजे के कइलीं उतजोग हमीं,
उनका मन पर पसरल काई ना जाई।
समाज के विद्रुपता पर गजलगो -
पूरा परिवेश जरा के
आसन आसीन आदमी!
पाठ सभ्यता के सिखावे
संस्कारहीन आदमी!
.......
बोले - बइठे के सहूर ना,
ऊ मुखिया - सरपंच भइल बा!
....
गाँव लुटाइल फूलन के!
अबहीं राज बबूलन के!
.....
कवनो अइसन जगह बताईं
जहवाँ हवसइ- हवाला नइखे!
चान - सुरुज उनके घर बंदी,
एने कहूँ उजाला नइखे।
साहित्य के अँगना में तिकड़मियन के बोलबाला पऽ -
भले रउरा रहीं जी नीक कागज पर सिआही से,
बनी इतिहास में हमरे कहानी,बूझ लीं भइया!
जरीं रउरा, बरीं इहवाँ हमीं बिन तेल - पानी के
बिछल शतरंज, गोटी के जुटानी,बूझ लीं भइया!
बिछा के सेज पर सपना दुलार दीं तनिका,
हिया के कोर से तोहरे पुकार हो जाला।
खुशबू के का बात करीं जी, जहवाँ खाली सड़न - हाँच बा! ई गजलगो के कथन हऽ बाकिर अतनो पर निरास नइखे गजलगो सकारात्मक उर्जा से भरल नजर आ रहल बा रचनाकार डेग - डेग पर एह संकलन में -
देश - दुनिया के पीर हर लीं जी!
एक अइसन मधुर लहर दीं जी!
.......
उड़े के अबहियों त आसमान बाकी बा,
नया एगो सूरज निकली, गजल गवाह बनी।
प्रकृति के रंग के गवाहो बा ई संकलन -
अमराई मोजर से, मधुरस टपकत होई,
टुसिआइल बर -पाकड़, छतनार भइल होई!
पतझर के मारल बन, कचनार भइल होई!
कुछ अइसन फागुन के, दरबार भइल होई!
.. .....
भोर अबीरी भाल, परासी गाल सँवारे,
अड़हुल ओठ,आँख सेमर ललिआइल हो!
गंगा जस बहाव बा गजलन में, अरूण के लालिमा समेटले लोक प्रसाद रूप में गजल सजि के उपस्थिति बा एह संकलन में। गजल आ गजलकार के सफलता के मानक हऽ कि सहज रूप में मन गुनगुनाये लागे,जीभ सहजे स्वीकार कर ले। एह दूनों मानक पर अरूण जी के गजल खरा उतरत बा। गजलगो आपन संवेदना आ अनुभूति के गजल में बड़ी सहजता से बिना विद्वत्ता के प्रदर्शन के जीवंत करे में सफल रहल बाड़े एकर गवाह खुद गजल बाड़े सऽ। गजल में आइल प्रतीक पाठक के मनोभूमि पर सहजे प्रभाव डाले में सफल बा। गजलगो के गजलन में प्राकृतिक, राजनीतिक आ सामाजिक भावात्मक प्रतीक के प्रयोग गजलन के खूबसूरती बढ़ावे में कारगर साबित भइल बा। भाषा के सहजता आ भावात्मक प्रवाह संकलन के सफलता आ सार्थकता में सहायक बा जे अरूण जी के भोजपुरी के एगो विशेष गजलगो के रूप में भोजपुरी साहित्य में मजबूती से खड़ा करत बा। गजल के भाव - सौन्दर्य के भरपूर खेआल राखल गइल बा। अंत में अतने कहब ' गजल गवाह बनी ' एगो नयाब गजल संग्रह।
किताब के नाम - गज़ल गवाह बनी
रचनाकार - गंगा प्रसाद अरूण
प्रकाशक - लकीर प्रकाशन, जमशेदपुर
संस्करण - २०१८
मूल्य - २००/रू.
कुल पृष्ठ -६४
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