मैना: वर्ष - 3 अंक - 71

महेंदर मिसिर विशेषांक


बरतमान अपनी अतीत पाँव पर खड़ा रहेला अउरी भविष्य खाती जमीन बनावेला। ई बात सभका खाती बरोबरे सही बा। ऊ आदिमी होखे भा साहित्य। साहित्य कऽ विकास में समाज अउरी पुरनियन कऽ जोगदान ओतने बरिआर बा जेतना कि बरतमान कऽ साहित्य सेवकन कऽ। एसे ई संभव नइखे साहित्याकार भा आलोचक अपनी समाज भा पुरनियन के ओर से आँख मोड़ लेव। 
आज जदि भोजपुरी साहित्य जगत पर नजर दउरावल जाओ तऽ हमनी आँखि के सोझा अंहवट छाड़ि के अउरी कुछ नजर ना आई। कई सौ साल के भोजपुरी साहित्य के इतिहास में आज के पीढी भिखारी ठाकूर के छोड़ि के सयदे केवनो भोजपुरी साहित्यकार के बारे में जानत बे जबकि जाने केतने भोजपुरी साहित्यकार बाड़े जिनकर भोजपुरी में जोगदान कबो भूलाइल ना जा सकेला। अनगिनत नाम बा बाकिर इयाद बा तऽ बस भिखारी ठाकूर। कुछ अइसने भूलाइल नाँव में से एगो नाँव बा महेंदर मिसिर (महेंद्र मिश्र) के जिनकर जोगदान ना तऽ भोजपुरी भूला सकेले नाहीं भिखारी ठाकूर। 
16 मार्च 1886 के छपरा के मिश्रवलिया गांव में जनमल महेंदर मिसिर भोजपुरी के अइसन सेवक अउरी साहित्यकार बाड़े जिनकर जोगदान के भोजपुरी साहित्य हमेसा से कम आंके के कोसिस कइले बा अउरी अइसन खाली हिन्दी साहित्य जगत अउरी राजनीति में एगो विचारधारा के बढावे खाती कइल गइल बा। जब ई सभ होत रहे ओह बेरा भिखारी ठाकूर कऽ जातिगत पहचान ओह समय के राजनीति खातिर एगो बढिया मोका रहे अउरी बस लोगन के भलाई अकउरी हित के नाँव पर भिखारी ठाकूर कुछ अइसन ढंग से पेस करके परियास होखे लागल जइसे भोजपुरी में अउरी केहू साहित्यकारे नइखे। आलोचना के नाँव पर भिखारी ठाकूर के साहित्य के हाथे गोड़े कुछ अइसन सिधान्तन के गढ़े के कोसिस कइल गइल जेवना से भिखारी ठाकूर नाही केवनो मतलब रहे अजउरी नाही ओकर समझ बाकिर हिन्दी आलोचक लो खाति भिखारी ठाकूर एगो उपजाऊ खेत रहलें अउरी उनकरा जेवन नीक लागल उहे बो-बो आपन नाँव अउरी घर भरि के हाथ दुमावत चलि दिहलें अउरी एह काम जेवन-जेवन साहित्यकार बाधा रहलें उनकरा गते से सरका के हाशिया पर डाल दिहलें। ए खेल के सिकार महेंदर मिसिर, मनोरंजन प्रसाद सिंह, महेंद्र शास्त्री, तेग अली तेग, प्रभुनाथ मिश्र अउरी भोलानाथ गहमरी अउरी जाने केतने साहित्यकार भइले। 
सभसे अजीब बात ई भइल कि भोजपुरी साहित्यकार चुपचाप एह खेल देखि पटाइल रहलें भा एह खेल में हिन्दी के तथा कथित महान आलोचकन के सहजोगी बनि गइलें। ओह बेरा उनकरा ई ना बुझाइल कि भोजपुरी के नोकसान कर रहल बाड़ें। आज भिखारी ठाकूर के नाँव पर भोजपुरी से जियादे काम करे वाली संस्था बाड़ी स बाकिर उह संस्था कुछ लोगन के जिए खाए के जरिया भर बाड़ी स। उन्हनी के भिखारी ठाकूर के साहित्य से केवनो लेना-देना नइखे। इहे हाल अधिकतर आलोचक लो के बा। उहँलो भिखारी ठाकूर के साहित्य के उनकरी देस काल परिस्थिति अउरी आज के संदर्भ से ना देखि के अविष्कार करे में लागल बाड़ें। 
जदि महेन्दर मिसिर के साहित्य अउरी साहित्य काल पर धियान दिहल जाओ ई सूरूज नियर साफ-साफ चमकत बा जदि महेन्दर मिसिर ना रहितें तऽ सायद भिखारी ठाकूर भोजपुरी साहित्य में जनम ना ले पवतें। महेन्दर मिसिर ना खाली भिखारी ठाकूर आर्थिक रुप से सहजोग कइलें बलुक साहित्य अउरी संगीत दूनू में अंगुरी धऽ के चले के ढंग सिखवलें। आलोचक महेश्वराचार्य कऽ ई कहल एकदम सही लागता कि "जो महेंदर न रहितें त भिखारीठाकुर ना पनपतें । उनकर एक एक कड़ी ले के भिखारी भोजपुरी संगीत रूपक के सृजन कईले बाडन । भिखारी के रंगकर्मिताकलाकारिता के मूल बाडन महेंदर मिश्र जेकर ऊ कतहीं नाम नईखन लेले । महेंदर मिसिर भिखारी ठाकुर के रचना गुरु, शैली गुरु बाडन। लखनऊ से लेके रंगून तक महेंदर मिसिर भोजपुरी के रस माधुरी छींट देले रहलन, उर्वर बना देले रहलन, जवना पर भिखारी ठाकुर पनप गईलन आ जम गईलन हाँ।" (भोजपुरी सम्मलेन पत्रिका, फ़रवरी १९९०, पृष्ठ-३१.)। एतने ना महेंदर मिसिर क लिखल "टुटही पलानी" वाला गीत ही भिखारी ठाकुर के "बिदेसिया" की नींव बन गइल। बाकिर एकर जिकर कहीं नइखे। बस जदि मोका मिलल तऽ पूरबी के जनक कही के लोग आपन काम खतम क लेला। 
आज के जरूरत बा कि ओ हर साहित्यकार के साहित्य पर चरचा होखे के चाहीं जे भोजपुरी साहित्य के दिसा देबे के काम कइले बा। ना कि भिखारी ठाकूर से संतोख क लिहला के काम बा। 
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महेन्दर मिसिर एगो विलक्षण गुनी आ धूनी के नाम ह। उनकर व्यक्तित्व कवनो एगो मोनिया में ना बंद रहे, ऊ त अइसन पारा रहले कि जेके जवने कोर से पकड़ के समेटे के चाहीं, ऊ कवनो दोसरा छोर में विराजमान लगइहें। गतर-गतर खाँटी माटी से सिरजल रहे। पहलवानी के बेरा माटी के रस पोरे-पोर पहुँचल रहे। रूप-रंग से ले के पहिनाव-ओढ़ाव, शौक-शैली से ले के उठल-बइठल, हर रूप में ऊ एगो आकर्षक मानवता के नाम रहले। ओह भाव-भंगिमा पर आ गोर-भभूका रंग पर मुँह में पान के चबाये वाला मिसिर एगो अलगही जीवन जियें। महेंदर मिसिर के काया के सिरजना सुन्नर रहबे कइल, ऊ बड़ा सुरीला गइबो करें। उनका सुभावे में गीत-संगीत के प्रति रसियापन रहे आ ऊ जानकारो रहले। ऊ बड़ा तल्लीनता से गीत लिखबो करें आ गइबो करें। पूरबी गायन के लोक शैली उनका नस-नस में बसल रहे। ऊ अपना रचना-धर्मिता से लोक-संगीत आ लोक-साहित्य के बहुते समृद्ध कइले। 
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एक व्यक्ति दू नाव पर सवारी, कइसे? समस्या विकट बा आ ओहु से विकट बा ओकर समाधान। सबसे बड़ बात ई कि समाधान के चिंता केहु के नईखे काहे से आज हर केहु जेतना ज्यादा मिल जाये ओतना नाव पर सवारी करे खातिर ना सिर्फ लालाईत बा बल्कि सवारी के मजा लेबे खातिर कवनो हद तक जाये खातिर तैयार बा। ना कोई समझे के तइयार बा आ ना केहु के पास समझावे के शक्ति मौजूद बा, सबसे बड़ समस्या ई कि सामने वाला के त्याग भी करल मुश्किल काहे से अपना के छोड़ल आसान ना होला। चलीं पहिले वस्तु स्तिथि समझावे के कोशिश करत बानी ई उम्मीद में कि शायद केहु हमरा से बेहतर सोच राखत हो।


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(15 मार्च 2016)

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