पतई - सुभाष पाण्डेय

हमरा खातिर उज्जर दिनआ
अँजोरिया रात का बा?
हवा के झकोरा से उधियाइल
माँटी में लसराइल
ओही में समाइल
माँटी में मिलि के माँटी बनि गइल
माँटी खातिर अपना के माँटी कइल।

रहनीं कहियो गाछ- बिरिछ के ताज
छोट ना बड़हन रहे समाज
हमरे से ओकर भोजन रहे
गछियो के नीमन वोजन रहे।

हरियरी के खान
बगइचा के शान
छाती उतान।

कहीं तुलसीदल त कहीं पीपर
पुजइनीं आ चढ़ावल गइनीं देवता ऊपर
कहीं आम के पल्लो
कहीं हरहर माहुर तीत नीम
आदर देसु बैद आ हकीम।

समय के फेरा ह
बेरा कुबेर ह
कबो गाड़ी नाव पर त कबो गाड़ी भुँइयाँ
कबो कुआँ के पानी
कबो पानी खोजे कुँइयाँ।

एकदिन पियरा गइनीं
अपना के जियतार डाढ़ि से बिलग पवनीं
माँटी के नियरा अइनीं।

बाकी कवनो चिन्ता ना फिकिर
ना हरख के ना बिखाद के
केहू से कवनो जिकिर।

हम सुनले बानीं आ जानत बानीं
कि
टूटि के माँटी में मिलल अन्त ना ह
एही माँटी से फेरु जनम होई
नया करम होई
नया धरम होई
फेरु पतई बनि के होइबि बिरिछ के ताज
जेकरा छाँह में छँहाई सकल समाज।
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प्रधान सम्पादक, सिरिजन, भोजपुरी पत्रिका।
मुसेहरी बाजार, गोपालगंज, बिहार।

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