दुख के चादर ओढ़ले
मनई के आँगन
इंतजार रहे
सुख के एगो छोट टुकड़ा के
काहे राह भुला गइल
सुख के चान।
अमावस्या त घरे बइठल रहे
इंतजार रहे
पूनिया के चान के
रोटी आ बेटी दूनों भार भइल
काहे राह भुला गइल
सुख के चान।
चान पे जा के का करब
उहाँ ना खेत - बधार
मशीनीकरण हाथ काटि के
कइलस बेरोजगार
छोट पेट रोटी के तरसे
काहे राह भुला गइल
सुख के चान।
नून, तेल, लकड़ी के फेरा
कटनीं जिनिगी आपन
सुबहित रोटी मिलल ना हमारा
ना केहू समझल आपन
हम मजूर रोजी ला तरसीं
काहे राह भुला गइल
सुख के चान।
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