केतना दिन अउरी चलत रही चकरी।
कूटि-पीसि खा गइनीं जिनिगी के सगरी।
जोरत-अगोरत में थाती हेराइल
तनमन के गरमी सब देखते सेराइल
धार में चिन्हाइल ना, चलि अइनीं कगरी।
हेतना हमार हवे, हेतना ह राउर
सोचत-बिचारत भइल कुछु बाउर
थाकि गइल जांगर अब आगे का सपरी।
लीखि-लाख, कउड़ी-करोड़ के ई मेला
उसरि जाई मेला, जब होइबि अकेला
पुतरी का मिलि जाई, आखिर में उतरी।
खेला चिन्हाइल ना, मन पगलाइल
उड़ि गइल चिरई ना हाथ में धराइल
"अंजन" रचल ना, उलटि गइल पुतरी।
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