अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सम्बभूव।। १
(हमीं हवा का तरे बहीले
बिस्व भुवन के अँकवारी लेत,
एहि आकास का ओने ले,
एहि धरती के परे ले,
अतिना मोरी महिमा।)
बात तुल्य अर्थ के परगट करे वाला संस्कृत के धातु 'वद्' ह- वद् व्यक्तायां वाचि।२ ए तरे ई मुखगत उचरन अंग आ चेष्टा से परगट होखल बानीं का अरथ में बा। वद् से बनल वाद (वद्+ घञ्), जथारथ के बोध करावे वाला वाक्य के अर्थ में बा।३ गोतमसूत्र में वाद के प्रमाण आ तर्क के साधन, निंदा आ सिद्धांत के अविरोधी, पछ- जुगूति से जुक्त भा पछ-बिपछ के आग्रह के वाद कहल गइल बा।४ भोजपुरी के ब ध्वनि के उत्पत्ति के एगो सोत प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के व ह। व के ब में बदलाव आ द के अघोषीकरण से वद्/वाद के बत/बात के रूप ढलल कवनों मोसकिल नइखे। कइयक भाषाशास्त्री लोग बात के वार्त्ता से व्युत्पन्न मानेलें।५ संस्कृत के वार्त्ता 'वृत्' से व्युत्पन्न ह, वृत्+क्तिन= वृत्ति, वृत्ति+अण्= वार्त्त, वार्त्त+टाप् =वार्त्ता।६ वार्त्ता के तत्कालीन अरथ एकदमे बात के सरिस नइखे, ए में डटे, ठहरे, समाचार, गुप्त बात, आजीविका, खेती, वेवसाय के अरथ-भाव सामिल बाड़न।७
प्राकृत में वत्त, जवन बत भा बात के मूल ह, के अनेक सोत बाड़े- वृत्त, वक्त्र, वक्तु, वार्त्ता आदि, बाकि अरथगत परिवर्तन के संगति बइठावे बदे वृत्त अइसन गोल-गोल घेरा बनवले बेगर काम ना चली। वार्त्ता से बनल वार्त्तालाप प्राकृत में वत्तालाव के रूप में बा जवना से आधुनिक भारतीय आर्यभाषा में बतलाव (जानकारी देवे) बने के बात साफ बा।
बात संभाखन बखत मुँह से निकल-निकल के आपसी हिरदस्थ भाव के उजागर करेला।८ अब 'भरे भौन में करतु हैं नैनन ही सो बात'९ जइसन कुछ दुर्लभ स्थिति के छोड़ दिहल जाव त बात करे बदे भाषा के सहायता निहायत जरूरी ह। भाषा में उहे लच्छन बा जवन बात में बा। भाषा से मन के भाव भासेला (चमके ला),भाषा भाखलो (बोलल) जाला। ई परस्पर आदान-प्रदान के जवन रीति बा ए प बकता आ सुननिहार दुनों के प्रतिभा, परिस्थिति आ मन:थिति वगैरह के असर गहिरोर होला। ओइसे बात भाव परगटन के अचूक ना बलु वैकल्पिक जरिया ह। होला ई कि बस्तुसच, भावसच, भाषासच आ विचारसच के चरतहिया दौर से गुजर के बात के सरूप उहे ना रहि जाय जवन ओकर मुकुलन के बखत बस्तुसच में निहित होला। त, भइल ई कि बात कुछ अवरि रहे बाकिर बात उठल त बात बदल गइल। एह में मन के बात कहईं पीछे छूटि गइल, अब केहू बात प कतिनों जाय तबहूँ बात में पेंच रहिए जाई। चरचित हिंदी कवि कुँवर नारायण जी के एगो कविता 'बात सीधी थी' के हई अंश देखल जाव-
बात सीधी थी पर एकबार
भाषा के चक्कर में
जरा टेढ़ी फँस गई।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा-पलटा
तोड़ा-मरोड़ा
घुमाया-फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए
लेकिन इससे भाषा के साथ-साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।
पिरीत, बैर, सुख-दुख, सरधा, नफरत, उत्साह- अनुत्साह बगैरह जतिना उतिमता आ सहजता से बात के जरिए जानल जा सकेलें, आन रीति में ओइसन सुभीता नइखे।१० बात कहते, बात-बात में लोगन का आँखि का सोझे सारा नजारा साफ हो जाला, एकदम सोपट जइसे निरमल सरिल के तलहटी में पड़ल बस्तु। एगो फिकरा ह - 'तू हमरा बारे में कहऽ, हम तहरा बारे में कहबि।' मतलब ई कि बकता के बकार फुटते ओकर समूचा भीतरी-बहरी उजागर हो जाला, ए से भलहीं ऊ सामनेवाला के गुन-गिरोह बखानस, उनकर आपन गुनगन, मनोलोक बातन का सङ्हे बहरी ससर आवेलें। समर के अगताही साँझ रहे। त्रिकुट के चौरस ऊँचाई प राम के घेर के बइठल सारा मानीन लोग आगे के रनजोजना प बिचार करत रहन कि आसमान में चान निकल आइल। नजर पड़ते राम गुमसुम भ गइलें। कुछ देर के चुप्पी के बाद राम के मुँह से एगो अजीब, बेपोंछ-पगहा के सवाल उभर आइल जवन ओह हालात से बिलकुल बेफाँट रहे- "चान में ई कालिमा कथी ह?" हालांकि ओजा सभे समुझदार रहे ए से कवनों पलटप्रस्न ना भइल, ना त हँसुआ के बिआह में खुरपी के हेह गीत प ढेर लोग माथ नोंच लिहिते। अइसन बिसम माहौल में, अइसन बेतुका सवाल के का दरकार रहल ह? सुग्रीव, जामवंत आदि लोग जवन उत्तर दिहल ऊ उनकर व्यक्तित्व आ सोच के अनुरूप रहे। हनुमान त हदे क दिहलें- "तव मूरति बिधु उर बसति, सोइ स्यामता भास।११ " जे गुननिहार बा ऊ नीके जानऽता जे ई सवाल कवनों बेबात के बात ना रहे। राम के गूढ़ मकसद पूरा हो चुकल रहे। जवन निकल के आइल ऊ ढाढ़स दे गइल, सभ महारथी लो के सोच सकारात्मक रहे। हनुमान के त कहीं जनि, उनुका बदे राम के सिवाय सगरे बर्हमंड में कुछो हइए ना रहे। हेह एकत्व भाव प के ना नेवछावर जाई? आधा जुद्ध त राम हुँहवें जीति चुकल रहन। त बूझाइल होखी जे हतीचुकी सुनल बात के सोरि कतिना पाताल में रहे जेकर उद्देश्य खालिस मनोबैज्ञानिक, राजनैतिक, कूटनीतिक, रननीतिक आ ना जाने का का रहे? त अइसन प्रकरण से ई तथ्य सिद्ध भइल कि 'बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव'। कवनो साइर के कहल ह, जेकर गोटे तात्पर्य ई कि कबो पीठ पीछे बात चले त घबरइहऽ जनि, बात ओकरे होला जेकरा में कवनों बात होला।
ओहि दिन साहित्य चर्चा के दरमियान संङ्हतिया बड़ नीमन बात कहि गइले। एकरा ले बढिया साहित्य के परिभाषा कबो ना लउकल कि साहित्य बस बतबनउअल ह। बाकी सारा लच्छन, परोजन, भेद-प्रभेद एह सब्द में अपनहीं पेहम बा। ई बेबाक साँच ह। साइद अइसने वजह बाड़ीसँ जवना से भलमानुस लोग बात आ बाप के एके समुझे लें। ए में विपरीत बात भा बतकट्टी के कवनों गुंजाइश नइखे।
बात में जतिना बिसेखी हो सकेला तेकर गिनती कवनों आसान काम नइखे। ऊ बड़, छोट, लाम, पातर, लछेदार, उलटी, सोझ, टेढ़, खरी, खोटी, मीठ, करुई, भली, बुरी, सुहाती, गैर सुहाती, लगती, चुभती, चिक्कन, रूखर, अनगढ़, कथल, अनकथल कुछो हो सकेला। छोड़ीं बात के चरित्तर के बात, बात त अइसन चीझ ह जवन खुदे नैतिकता के मानदंड तय करे ला। बाते से आदिमी के चरित्तर के थाह लागेला। बात के धनी, बातुल, बतफरोश, बतोलेबाज, बतोला किसिम के लोगन से वास्ता पड़ते होखी। एगो बतकट नाँव के जीव होले। घाघ के कहनाम कि -
"नसकट पनही बतकट जोय
जो पहिलौंठी बिटिया होय
पातर खेत, बौरहा भाय
घाघ कहे दुख कहाँ समाय।"
बात के आदिमी के आपसी बेहवार में जबरजस्त भूमिका बा। कुछ लोग अनेरे बात के बतंगड़ बनावे में माहिर होलें, कुछ बात के उल्हा जाए, खाली होखे, टले, बिगरे, फैले, मुकरे से परेसान बाड़ें। बात खो गइला प आदिमी के साख में बट्टा लागि जाला। जेकर बात बन गइल तेकरा आसमान, हवा भा बादल से बात करत के ना देखले होई? कतिने लोग हेह कान के बात होह कान में डाल के समाज में हँड़होर मचावे के आदी होलें। केहू मन के बात कहि गइल त ढेर लोग के तेकर परतीत नइखे। ऊ अनसुनी क देत बाड़े, खिल्ली उड़ावत बाड़े। असहूँ साफ दिल आ साफ बात हर केहू के रास ना आवे। भलहीं सौ बात के एक बात होखे, चाहे सौ टका के बात होखे बात के नजरअंदाज करे के पीछू बहुते राज के बात हो सकेला। कुछ लोग आपने बात ऊँची रखे के फेरा में दबंगई के नया-नया कीरतिमान थाप रहल बा भा थोप रहल बा।
बात के बिपरीत असर कम नइखन बकि ए में बात के का दोख? ढेला कबो गुनहगार ना होखे, अपराधी त ऊ ह जे आन के चोटिल करे बदे ढेला फेंकल। खाली बात बनवले काम ना चले, बात लाख के आ करनी खाक के? खलिहे बात से पेट थोरे भरेला? घाघ के हई कहाउति देखे लायक बा-
"निते खेती दुसरे गाय।
नाहीं देखे तेकर जाय।
घर बइठल जे बनवे बात।
देह में बस्त्र न पेट में भात।"
ए से बेबात के बात भा बेमतलब के बाद से बच के रहल जिनिगी के एगो बड़ सीख ह। जादे बात रगरले रूखर होला। कवनों बात बास मारेला। कहईं बात उजागर भइले मुँहकरिखी लगावे के नौबत आ जाला, ए से कुछ बात गोपन रखले में भलाई ह। चाणक्य के एगो सुक्ति ह- "मनसा चिंतितं वाक्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।" बात के फैलले हजारन बाधा सिर अलगावे लागे लें। बात पक्का हो जाय, बात ठहर जाय त सही बखत प सभे जानी बकि तब बात बने में कवनों रोड़ा ना रही। सही बखत प सही बात सफलता प्राप्ति के संदेह के कमतर क देवेला। हर बात छिपवला के कोसिसो अतिवादी बात ह। कवन बात उजागर करे जोग बा आ कवन गुपुत रखे जोग, ई बिबेक बुद्धि के बिसय ह। एगो राजा रहलें। कबो फर-फरागित का बखत फेंड़ से पाकल बइर उनुका आगू टुपुक गइल। अब चाहे पाकल फर में कवनों खिंचाव होखे भा एकदम से असहीं, ऊ बइर उठा के खा लिहलन। हँ ई ख्याल जरूर रहे कि केहू देखत त नइखे, ना त कहिहें सन कि हाथी आ हरही? शौच के बखत बइर खाए के उतावली उचित नइखे। ओही साँझ दरबार में निरित करत नर्तकी के गीत के बोल सुन के राजा के कान ठाड़ भ गइल-"आँखिन देखी बतिया राजा, कही देबो ना।" भेद खुली त भद्द उड़ी, एहि चलते राजा नर्तकी के मुँह बन करे बदे इनाम-प-इनाम ठेलत गइलें। नर्तकी के बूझाय जे गीत के बन्द, राग के माधुरी आ संगीत के संजोग के असर अइसन बा कि राजा मुग्ध बाड़ें। ए से गीत के नखरा-तिलाना बढ़ले जाय। बरदासो करे के हद ह, राजा बौखला गइलें - "जो ससुरी, कहे के बा त कहि दे। इहे नू कि राजा दिसा फिरत खन बइर खइले ह?"
अब जब बात के बात निकलले बा त इहो कहल फिजूल नइखे जे कतिने बात के असर अइसन होले कि सुने वाला के मुँह बवा जाय। रहीम जी एगो ऊहा फेंकले बाड़े-
"अब आवन कह हे कपि आस न कोय।
कनगुरिया कहँ मुन्दरो कँगना होय।"
सीता के हनुमान से कहल सनेसा ह जवना में राम के बिरह में कानी अँगुरी के मुनरी के कंगन बनि जाए के बात बा, देह दुबराए का चलते। भोजपुरी के कवि कम कहाँ रहेवाला बाड़े? अइसन लीला ना केहू देखले होखी ना सुनले होखी। तनी प्रवत्स्यपतिका के हेह परतुक के देखल जाव-
"दुखवा के बतिया नगीचवो ना आवे गुइयाँ
हँसी खुसी रहला हमेस।
बजुआ सरकि कर-कंगना भइल सुनि
प्यारे के गवनवाँ बिदेस।१२ "
याने दुख त कहीं दूर-दूर ले ना रहे काहे कि हरदम के संजोग बा। कवनों सुना गइल कि नायक बिदेस जइहें, बस अब का? टप् से बाजू बंद सरक के नीचे ढरक गइल। बिरह के अइसन तेज प्रभाव!! - 'न भूतो न भविष्यति।
नीमन बात के असर कम भइले समाज में अराजकता पसरत देर ना लागे। गम्हिराह बात सभके ना पचे ठीक ओसहीं जइसे कुकुर के घिव ना पचे। अइसन बात के सामने अइले तेकरा के झूठ साबित करे बदे ई सभ तत्त्व सक्रिय हो जाले, तेकरा के बात में उड़ावे के, दोसर बात में लगावे के कोसिस करेलें। अक्सर सहज जन इनकर झाँसा में आइओ जालें, जब तक बात खुलेला तब तक बहुत देर हो चुकल रहेला।
बात हर समस्या के समाधान दे सकेला। बात के चुकले भा रूकले भीतर के बिख प्रभावी हो जाला। गोपाल दास नीरज जी एह स्थिति के हेह सब्दन में बाखूबी पकड़ले बाड़ें -
"बन्द मधुरस की बतियाँ,
जाग उठा अब विष जीवन का। "
बात के सम्हार के रखल सभ्य समुदाय के अनिवार गुन ह। बात बिगरले कुछो आसान ना रहि जाय-
"बिगरी बात बने नहीं, लाख करे किन कोय
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।
बातो कइल एगो कला ह। दुइगो बात होला, एक कि अगते से बूझत होईं, दोसरका कि एकदमें ना बूझत होईं। बूझे वाली बतियो में दुइ कटेगरी बा, एक कि बात करे के बा त बात चला दिहनीं। निठल्ले बइठला से बढिया कि कुछ बतरस होखो। अब सामने वाला के बतियावे के मन नइखे त का करी? ऊ आपन मुँह गोल करीं, माथ हगुआई आ असमान में मुँह उठा के जम्हाई लीही। मान लीं कि ओकर धेयान कतहीं अउरि बा आ बतियावे वाला जिद्द धइले बा कि हम बतिअइबे करब त का करी? तनी देखीं -
बतरस लालच लाल की,
मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करे नैननि हँसे
देन कहे नटि जाइ।१३
हिंहाँ त मुरलीवादक रहन। मान लीं आजु के बात ह आ भिरी रउरे बानीं। अब बतियावे के मन बा आ खोदाखादी कइलो प रउआ ठान लेले बानीं कि केहू कतिनों बोलावे त ना बोले के भा अबो ले जम्हाइए लेत बानीं त का हो सकेला? ऊ राउर बगली से छटकल चुनउटी लुका दिही। अब लीं अब आइब कि ना रहता प?
"ए भाई, हमार चुनउटिया देखलऽ ह कहईं ?"
"अयँ, चुनउटी? ई कवन चीझ ह जी?"
अब ओकरा में रधिका अस नाक भौं चमकावे, मचले, इठलाए आ किरिया खाए के ऊ नफासत कहवाँ बा जवना प सिरिकिसुन छपिटा के रहि जात रहन।
बूझेवाला कटेगरी में दोसरका होला कि हम जानत बानीं आ राउर टोह लेवे के मन बा। पूछि दिहनीं कि अस्सी खूँटा नब्बे ऊँट, सब में बान्ह फूटेफूट, कतिना होई? रउआ का कहबि? " एँ, हम ना बताइबि, तू जानि के पूछत बाड़ऽ।" अब रउए कहीं बेगर जनले कइसे पूछी केहू? कुछ अन्दाजा अगते से रहबे नू करी?
एही प एगो बतकथा इयाद आ गइल। एगो राजा रहलन, बड़ी बदमाश आ क्रूर। कुछ लरिकन के देखीले? ऊ लमकी पोंछ ओली तितलियन के पिछहुरिए सींक खोंस के एह दंभ में भर जालेसँ कि भगवान जी के कीरति में भइल गड़बड़ी के सुधार दिहनीं। अब ई लमहर पोंछ नीमन लागऽता। तितलीं के परान प का बीतता, ए से का मतलब? ऊ रजवा के बूझवलिया पूछे के सगल रहे। शर्त ई रहे कि पहेली ना बूझनीं त गइनीं ओ गाँवें। मतलब पूछे वाला पूछी आ राजा ना बूझि पवले त पूछेवाला के खालेभूस भरा जाई। लोग बरियारी ध के ले आवल जाय आ पहेली पूछे खातिर बेबस कइल जाय। उनुकर हस्र का होत होखी ई अंदाज कइल जा सकेला। ससुर रजवा एको पहेली बूझल होखे अइसन जानकारी अबहीं ले नइखे।
त ओहि दिन आपन कविजी धरा गइलें। गरई अइसन छपिटात कविजी के गरदन प तरुआरि धइल रहे कवनो असबस ना देखिके हुहाँ का पूछिए दिहनीं -
"होखे करियट्ठी राजा
घरे-घरे जाए,
नाँव ह बिलइया तेकर
दूध घिव खाए।
ई कवन चीज ह?"
रजवा जोर से थपरी पीट के चिचिआइल - "भँइस।"
अब त कविजी के सभ चल्हाँकी घुसर गइल बाकी अचके कुछ सूझल। ऊ उछल पड़ले - "अरे वाह रज्जाजी, ई ना दिआई रउआ त अगतहीं से जानत रहलीं।
चलीं अब खतम कइल जाव, बात के बात अनंत बा। बात माने ना माने के आपन-आपन कारन बा, आपन-आपन तर्क बा, श्यामबिहारी तिवारी देहाती जी के कहनाम-
"कइसे मानीं उनकर बतिया,
मुखवे सुखल, बीतल रतिया।
कहाँ जुड़ाइब आपन छतिया
कतवा तुरले जाय।
भँवरा रसवा चुसले जाय। "
______________संदर्भ सूची:-
१. ऋग्वेद, १०.१२५.८
२. धातुपाठ।
३. 'यथार्थबोधेच्छोर्वाक्यम्' - शब्दकल्मद्रुम।
४. 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ: सिद्धांताविरुद्ध
पच्छावयवोपपन: पक्षप्रतिपक्ष परिग्रहो
वाद:।' - गोतमसूत्र।
५. भोजपुरी भाषा और साहित्य, पृ०-३६५- डॉ०
उदयनारायण तिवारी।
६. संस्कृत हिन्दी कोश- वामन शिवराम आप्टे।
७. 'वृतिरस्यांयस्तीति।'- दुर्गादास, ५/२/१०१।
'वृति: जनश्रुति:। इत्यमर:।
'वार्त्ता, प्रवृत्तिवृत्तान्त
उदन्तोऽथाह्वयोऽभिधा।' -
अभिधानचिन्तामणि, देवकाण्ड, १७४-
हेमचन्द।
८. 'बात' शीर्षक निबंध- प्रतापनारायण मिश्र।
९. बिहारी।
१०. प्र०ना०मिश्र।
११. रामचरित मानस, लंकाकाण्ड, दोहा १२क।
१२. 'बिरहा नायिका भेद' से - बाबू रामकृष्ण
वर्म्मा 'बलवीर'।
१३. बिहारी।
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नाम - दिनेश पाण्डेय
जन्म तिथि - १५.१०.१९६२
शिक्षा - स्नातकोत्तर
संप्रति - बिहार सचिवालय सेवा
पता - आ. सं. १००/४००, रोड नं. २, राजवंशीनगर, पटना, ८०००२३
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