ओरहन - सुरेश कांटक

का हो बसंत भाई,
ईहे होई ?
जलचर थलचर नभचर सभमें पइसि पइसि के
सभका के तू जगावेलऽ
सुस्ती पस्तीआउर निराशा
के तू दूर भगावेलऽ
सूखल के हरियर क देलऽ
गतर गतर टूसा भरि देलऽ
किसिम किसिम के रंग से रचि के
बगियन के गमकावेलऽ
हंस बेचारा सुसुकि सुसुकि के बोलऽ ना
कबले रोई?

कवनो भेद उमिर के नाहींं
सभका भामिनि कामिनी चाहीं
अँखियन में उतरे लऽगते
मुसुकी लहरत हहरत छाँहीं
सपनन में लउकेला ऊहे
जेकरा से लागे गलबाहीं
पिया हिया में पइसि हँकारत
देवरू के भउजइया भाहीं
बाकिर धोबिनिया पाँच बरिस प आई आ
सभका के धोई?

एकइस हाथ बुढ़ापो फाने
केहू बूढ़ ना खुद के माने
पाम्ही वाला कान्ही पऽ बा
दुनिया पलटे के ऊ ठाने
नयी बहुरिया कम केकरा से
चमकत लचकत मारत मटकी
नइखन गइल बिदेस बलमुआ
बाँह पिया के बा सिरहाने
दिन दिन डूबत करज में देसवा नोकरी खातिर
कबले रोई ?

लउकत ना हलचल गुलाल पऽ
कहाँ गुलाबी रंग गाल पऽ
झँखत झुरात झरत झिलँगी पऽ
माथ ठोकत बा गाँव हाल पऽ
बिक्री होत बिलात बेजनले
दुखी राम के मुलुक मड़इया
उड़त हवा में सपना सभके
राजा अपने मस्त चाल पऽ
किसिम किसिम के निसा में डूबल लोगवा कबले
दीदा खोई?

परबत जंगल के लूट मचल
उनके आँगन हर चीज सजल
उनकर बसंत हर मौसम में
हमरे बसंत के बैंड बजल
तहरो चलती अब थक जाई
हर ओर प्रकृति लुटा जाई
तब का करबऽ बोलऽ बसंत
कहँवा गइबऽ तू गीत गजल
पानी पताल माटी में आगि केकरा खातिर
तब के रोई?

का हो बसंत भाई,
ईहे होई?
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लेखक परिचयः
ग्राम-पोस्ट: कांट
भाया: ब्रह्मपुर
जिला: बक्सर
बिहार - ८०२११२





मैना: वर्ष - 11 अंक - 122 (फरवरी-मई 2024)

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