इयाद न जाए - मीनाधर पाठक

हमरी इयाद के मोटरी हमेशा लगवे रहेला। जब मन करेला खोल के बोल बतिया लेनी आ फेरु से गठिया के ध देनीं। घर के काम-काज की साथे साथे इहो चलल करेला। कबो कबो त अकेले में कुछु इयाद क के हँसी आ जाला आ कबो आँखि में लोर भरि जाला। ए समय फेरु से हमरी मन की गठरी में कुच्छु इयाद कुलबुला रहल बिया।

घर में बड़े स्तर पर खेती होत रहे। ऊँखि, दलहन, तेलहन की साथे किसिम किसिम के धान गोहूँ आ सन के खेती भी होत रहे। ओ समय ज्यादातर खेत हल से जोतल जात रहे। ट्रेक्टर कमे चलत रहे। लगभग सब केहू के आपन आपन हरवाह रहे। दुवारे दुवारे बैल बान्हल रहे। हमरो घर के खेत हरवाहे जोते। ओकरी बदले आपन परिवार जिआवे की खातिर ओकरा के खेत दिहल गइल रहे आ दुनू समय के भोजन पानी घर की रसोई से दियात रहे। हर जोते खातिर हमरियो दुआर पर बैल बान्हल रहे।
त दुपहरिया में खेत पर खेलावन काका, माने हरवाह खातिर खाना पानी पहुँचावे के पड़त रहे। घर में जब अउरी केहू ना होत रहे त ई काम हम लइका लोग की माथे आ जात रहे।
दुआर पर नीबी तरे बाबा अपनी खटिया पर ना रहलें आ भइया कहीं गइल रहलें।
“आजु त दुवारे पर केहू नइखे। हरवाहे के खैका कइसे जाई?” दोगहा की चउकठ लगे ठाड़ काकू ईया दुवार खाली देखि के कहली।
“बिंदिया की हाथे भेज दा।” ओसारा में बइठल साधू बाबा (मझिले बाबा) ईया की समस्या के समाधान बता दिहलन।
अब घर में बिंदिया दीदी के जोहाई होखे लागल। दीदी पुरनका दोगहा में दुसूती के चादर पर कढ़ाई करत मिल गइली। हम दीदी लगे बइठल उनका के लाल,पीयर, हरियार धागा से जवन सुन्दर-सुन्दर फूल-पत्ती काढ़त देखत रहनीं।
“छोड़ इ कुल। उठ जल्दी से आ महुवा लगे खेत पर खेलावन खातिर खाना ले के जो।” ईया के आदेश भइल। दीदी काढ़ल फूल में सुई फँसा के चादर एक ओर ध दिहली।
“चल उठ ।” बिंदिया दीदी हमरी ओर देख के कहली।
“हँ, एकरा के पानी थमा दे।” काकू ईया हमरा खातिर काम बता दिहली। बाकिर दीदी हमके खाना के गठरी थमा के अपना पानी के लोटा ले लिहली। दूनू जनी खेते की ओर चल दिहनीं जाँ।

हमरी गाँव की किनारे एगो मंदिर बा आ मंदिर किनारे पोखरा, जवना में बारहों मास पानी रहेला। गर्मी के दिन में पानी तनी कम हो जाला बाकिर बरखा में उफनाए लागेला। ए पोखरा के बारे में गाँव के बुढ़ पुरनिया लोग कहेला कि मंदिर में जवन विशाल शिवलिंग स्थापित बा ऊ एही पोखरा से निकलल बा एहीसे ए पोखरा के पानी कबो ना सूखेला।
हँ, त गाँव से निकल के महुवा तर जाए खातिर जवन पगडण्डी रहे ऊ बरखा में पोखरा की पानी से डूब जात रहे। कारण ई रहे कि हमार गाँव तनी ऊँचाई पर रहे आ पगडण्डी नीचे। आधा सावन बीति गइल रहे आ पोखरा के पानी फैलाव ले के पगडण्डी के कुछ हिस्सा डूबा दिहले रहे।
हम आ दीदी गाँव की बहरा पगडण्डी ले आ गइनीं। दीदी आपन फराक समेट के धीरे से पानी में उतर गइली आ हम रुक गइनीं। दू चार डेग पानी में चलि के दीदी पीछे देखली आ हमके ठिठकल देखि के पानी में उतरे के कहली। हम एक हाथ में खाना आ एक हाथसे आपन फराक समेट के डेरात डेरात पानी में गोड़ ध दिहनीं। धीरे-धीरे हमनिका ठेहुना से तनी ऊपर ले पानी पार क के निकल गइनीं जाँ।
बरखा से रस्ता की दूनू ओर खर पतवार जामि गइल रहे। बेंग आ बेंगची एने ओने फुदकत रहें। लाल लाल गेंड़ुवारि के जत्था के जत्था देखा जात रहे। ओकनी के देखि के हमार जीवु गिनगिना जात रहे। दीदी त बेधड़क चलत रहली बाकिर हम बड़ी देखि देखि के धरती पर गोड़ धरत रहनीं। ऊ हमरी खातिर थोड़ी थोड़ी दूर पर रुक जात रहली काहें से कि हम नीचे देखि-देखि के धीरे-धीरे चलत रहनीं। ऊ रिसियातो रहली। जल्दी चले के कहत रहली बाकिर हमार गोड़ जल्दी ना उठत रहे। तब्बे एकदम से एक ओर से सरसरात करिया के कीड़ा निकल के रास्ता काटि गइल। मजगर लमहर के रहे। दीदी आगे आ हम पाछे, बीच में ऊ। देखि के हम जड़ हो गइनीं। बस परान भर ना निकलल। दीदी कहली की “चुपचाप ठाड़ रहु, बाबा निकल जइहें। आख़िर ई धरती खाली हमनिए के ना नु ह !”
हम हँ में मूड़ी हिला दिहनीं। बाबा मस्ती में लहरात निकलियो गइलें। बाकिर हमार परान अबहिन ले हलक में अटकल रहे। दीदी आ के हमार हाथ पकड़ लिहली। हमनिका बगइचा में पहुँच गइनी जाँ।
“बिसखापड़ देखले बाड़े ?” दीदी एकदम से पुछली। हम उजबक अइसन उनके मुँह देखे लगनीं।
“ई का होला ?”
“साँप।”
कहि के हमरी ओर देखली आ जोर से हँसे लगली। लोटा के पानी छलके लागल। ऊ साफ़ जगहि देखि के लोटा नीचे ध दिहली आ पेट पकड़ के खूब हँसली। कारण, हमरी मुँह पर बारह बजल रहे।
“डेरो मति, एने ना आई।” आपन हँसी रोक के कहली ऊ आ लोटा उठा के चल दिहली। अब बाबाजी (साँप) के दर्शन ना होखे। मनेमन भगवान से मनावत हम फिर से उनकी पाछे चल दिहनी।

धान बोवे खातिर सभे आपन आपन खेत तइयार करत रहे। ढेर लोग के खेत में धान रोपा गइल रहे बाकिर आबो कहीं-कहीं क्यारी में बेहन जवन लहर लहर हरियर मखमल जइसन लहरात रहे। जे पिछुवा गइल रहे ओकरी खेत में हल चलत रहे। बैल की गले में बान्हल घंटी के टुन्न-टुन्न आवाज हवा में घुल के काने में उतरत रहे। घाम भइल रहे बाकिर बयार चलत रहे। कबो कबो एक टुक्का बादर आ के छाँह क देत रहे। बिलकुल ओइसहीं जइसे हरिऔध जी अपनी ‘प्रिय प्रवास’ में राधा जी से कहवावतानी कि --

“कोई क्लांता कृषक-ललना खेत में जो दिखावे
धीरे धीरे परस उसकी क्लांतियों को मिटाना
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला
छाया द्वारा सुखित करना तप्त भूतांगना को।”

त रहि रहि के छाँह के सुख उठावत हमनिका अपनी खेत में पहुँच गइनीं जाँ। हमनीके देखि के खेलावन काका बैलन से का जाने का कहलें कि बैल रूकि गइलें कुल। दूनू के पीठि ठोकि के काका हमनीकी लगे आ गइलन।
“आजु हिरिया जिरिया के आवे पड़ि गइल ?” कहते कहत ऊ अपनी मूड़ी पर बान्हल अंगौछा खोल के फटक दिहलन जेसे ओकर अँइठन छूटि गइल आ मेड़ लगे बिछा के आपन दूनू हाथ आगे बढ़ा दिहलन। दीदी उनकी हाथ पर पानी ढार दिहली। खेलावन मुँह हाथ धो के ओही माटी पर पलथी मार के बइठ गइलन। हम उनके खाना अंगौछा पर ध दिहले रहनीं। ऊ गाँठ खोल के सबसे पहिले पियाज उठवलन आ मेड़ पर ध के एक मुक्का मरलन। पियाज छितरा गइल फिर ओकरा के छील के अपनी आगे ध लिहलन। एगो कागज़ पर लहसुन, मरिचा, नून बुकल चटनी धइल रहे। आ रोटी पर साग आ दू तीन गो हरियर मरिचा। ईहे उनकर खाना रहे। माने आजु काल्हि के लंच।

हम ओहिजा मेड़ पर बइठ गइनी। दीदी अपनी सखी के देखि लिहले रहली। ऊ उनकी ओर बढ़ि गइली। हम देखनीं कि उनकी सखी की खेत में सोहनी होत रहे। उनके खेत पहिले रोपा गइल रहे तबे सोहात रहे। हम उनकी ओर से नज़र घुमा के खेलावन काका के देखे लगनीं। काका साग चटनी आ पियाज से रोटी अइसे खात रहलें जइसे केतना सवदगर भोजन उनकी आगे परोसल होखे। उनके खात देखि के हमरी मुँह में पानी आवत रहे। हमरी देखते देखत ऊ सब रोटी खा गइलें आ अँजुरी बना के मुँहे से लगा लिहलें। हम लोटा उठा के एक धार से अँजुरी में पानी गिरावे लगनी, ऊ गट गट पिए लगलें। लोटा खाली हो गइल। खेलावन काका एगो लमहर डकार लेत उठ गइलें। आपन अंगोछा उठा के फेरु से फटक के हाथ मुँह पोंछलें आ अपनी मूड़ी पर बान्हत ऊ हल बैल की ओर बढ़ि गइलें।

हम दीदी की ओर देखनीं। ऊ अपनी फराक में ढेर के साग खोंट के ले आइल रहली। हमनीके वापस ऊहे राहि ध के घर की ओर चल दिहनीं जाँ। फेरु से ऊहे पानी राहि रोक के ठाड़ रहे। घाम से हम दूनू लोग के मुँह लाल हो गइल रहे। घरे पहुँचे के जल्दी रहे। दीदी अपनीं फराक में साग सुरक्षित बाँध लिहली आ पानी में उतर गइली। हम फेरू से पानी में उतरे के हिम्मत ना कर पावत रहनीं। ओहिंगा रुकल रहनीं। दीदी पानीं में जा के घूम के पीछे देखली आ जोर से बोलली, “काहें नइखें आवत रे! ओहिजा ठाड़ रहबे का !”

उनके डाँट सुनि के आपन फराक समेटत हमहूँ पानी में गोड़ ध दिहनी। बाकिर बुझा कि कवनों साँप गोड़ में न लिपट जा। चाहें कवनों केचुवा पाँव की नीचे ना दबा जा। चाहे ईया की कथा के बुडुवा सुरती मांगे ना आ जाउ। हमरी भीतर के भय, का जाने का का सोचवावत रहे। डेरात डेरात हम आगे बढ़त रहनीं। दीदी हमरी आगे पानी चीरत चलत रहली जेसे पानी में लहर उठत रहे। बीचधार में आ के हम देखनीं कि दीदी पार होखे वाला रहली बाकिर अबहिन ले पानी उनकी घुटना के ऊपर ले रहे। तब्बे हम उनकी गोरहर जाँघ में दू-तीन गो करिया करिया जोंक चिपकत देख लिहनीं। ऊहो कुल ‘बाबा’ जी की तरे पानी पर लहरात रहलीसन। हमार होश फ़ाख्ता हो गइल। ऊपर के साँस ऊपर आ नीचे के साँस नीचे। अब त हम जोर जोर से चिल्लाए लगनीं।
“दीदी, जोंक, जोंक !”
जोंक के नाँव सुनि के दीदी आगे भगली आ पार हो गइली। उनके फराक के सब साग पानी में गिर गइल। हम पीछे भगनी। बाकिर पानी में हम अपनीं मन मोताबिक भाग ना पावत रहनीं। पानीं में भागल केतना कठिन बा, ई बाति हमके ओ बेरा बुझाइल। बुडुवा, साँप, केंचुवा, सब भुला गइल। जोंक के रूप में हमके साक्षात ‘जम’ देखाई देत रहलें। बुझात रहे कि हमके दबोचे खातिर ऊ हमरी पीछे दउड़ल आवत रहलें।
दीदी ओने से चिल्लात रहली आ हम चिल्लात भागत भागत कइसो बहरा निकले के प्रयास में रहनीं बाकिर पानीं हमरी वेग के रोकत रहे। कवनों तरे हम बहरा निकल अइनीं। घूमि के देखनीं त पाछे केहू ना रहे। ना जम, ना बुडुवा कीरा, ना जोंक, बाकिर पानी पर उतरात साग हमके मुँह रिगावत रहे। हमार साँस चढ़ल रहे आ धड़कन काने ले सुनाई देत रहे।

अब दीदी ओने। हम एने। बीच में पोखरा के पानी। कइसे पार होखे ! दीदी कहते रहि गइली कि चलि आउ, बाकिर हमार हिम्मत जवाब दे दिहले रहे। दीदी जोंक के नोंच के हटा दिहले रहली आ खून के धार अपनी फराक से पोछ्त रहली। हमके आवे के कहत कहत हारि के ऊ घरे चल गइली आ हम दूसर लमहर राहि पकड़ लिहनीं। ट्यूबेल से खेत खेत में पानी जाए खातिर पक्की नाली बनल रहे। ऊहे नाली पकड़नी आ भर दुपहरिया में घरे पहुँचनीं। लाल मुँह लिहले पसीना से तर, सिर दर्द से बेहाल। ईया हमके छाती से लगा लिहली।
“हमार बाबू! अब कबो हरवाहे के खाना ले के तू मति जयिहा।” ईया कहते रहली कि तब्बे हमके काकू ईया के बोली सुनाई पड़ल।
“हरे! तहनीके लोटा कहाँ छोड़ि अइलसन ?”
सुनि के हम सब पीर भुला गइनीं। का जाने कब लोटा हमरी हाथ से पोखरा की पानी में छुटि गइल रहे।

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नाम : मीनाधर पाठक
जन्म : 27 मई 1967
जन्मस्थान : कानपुर (U.P.)
शिक्षा : एम.ए. हिन्दी।
संप्रति : अध्यापन, लेखन
प्रकाशित कृतियाँ : ‘घुरिया’ (2019) ‘व्यस्त चौराहे’ (2022) (दोनों कहानी-संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य- भोजपुरी उपन्यास : ‘निमिया रे करुआइनि’साझा प्रकाशन : ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ (साझा उपन्यास) के साथ दस से भी अधिक साझा संकलन और प्रतिष्ठित हिन्दी व भोजपुरी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित व आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित
सम्मान : शोभना वेलफेअर सोसायटी द्वारा शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान, मांडवी प्रकाशन द्वारा साहित्यगरिमा सम्मान, अनुराधा प्रकाशन द्वारा विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान, विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन कनाडा द्वारा सम्मान तथा विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा ‘विद्यावाचस्पति सारस्वत’ सम्मान


मैना: वर्ष - 11 अंक - 122 (फरवरी-मई 2024)

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