दिन बहुराइल बा अब जाके
सदियन के ऊँघी टूटल बा
चमक उठल बा मन मरुआइल
मनसायन जे घड़ी बनल बा।
सूरुज के ना आवल लउके
बेरा डूबल कहाँ बुझाओ
आन्ही-पानी, ओला-पाला
केकर ओ’रहन कवन दियाओ।
अधमुअला अस रहे अजोध्या
रोआँ-रोआँ प्रान बहल बा॥
पीढ़ी ना पीढ़ियन के चिंता
बनल फाँस हिरदै में जामल
ताकत टुक-टुक बरिसन बीतल
रहल करेजा बाकिर तातल।
गत्ते-गत्ते, रेसे-रेसे
लोक राग के तान चढ़ल बा॥
मन में, तन में, जन में, कन में
राम बिरल बन व्यापल बाड़े
जे बन्हले मरजादा जग के
ऊ दसरथसुत जनमल बाड़े।
इचकी भर ई बात भुलाके
निहतनियन के तींत बढ़ल बा॥
तन से मनई मन से राछछ
उतपाती अतताई पागल
मन्दिर भर ना अहसासो के
तुरला थुरला में बस लागल।
जिद-जबरी के घटा-टोप बलु
पाँच सदी के बाद छँटल बा॥
लेखक परिचय:-
नाम: सौरभ पाण्डेय
एम-2 / ए-17, ए.डी.ए. कौलोनी
नैनी, इलाहाबाद -211008 (उप्र).
सम्पर्क - 09919889911
मैना: वर्ष - 10 अंक - 121 (जनवरी 2024)
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