भोजपुरी कहानी के बड़ होखे के पहचान: 'बड़प्पन' - विष्णुदेव तिवारी

भोजपुरी के आधुनिक कहानी अपना समय के,ओकरा समग्रता में उरेहे में,कबो बिछिलाइल ना। चाहे ऊ गाँव के होखे भा नगर के, बाजार के होखे भा डहर के, ओमे समय के यथार्थ के चित्रांकन बड़ा सुघर ढंग से भइल बा। ओमे सामयिकता, कहन के वैयक्तिकता, निष्पक्षता आ दृष्टि के स्पष्टता दूनों स्तर पर साफा लउकत बा- कहानियो के स्तर पर आ कहानिकारो के स्तर पर। हिन्दी कहानी नियर एहिजा अबे बहुआयामी आधुनिक बोध बहुकोनी शिल्प से जँता के काँखे नइखे पावल आ ओकर पिहुदी नइखे निकले पावल। ई अधिकांश सहज बा। इहे भोजपुरी कहानियन के खासियत बा आ सीमो बा।
आज जब विश्व-मानव एगो रोग-नटी के चक्कर में तबाह बा आ तबो तरह-तरह के चक्कर चला के 'चितचोर लोग' चैन से नइखे रहे देत, भोजपुरी साहित्य के एगो बहुते पुरान कहानी- 'बड़प्पन'-मानव के ऊपर उठान आ संगे-संगे मानवे के नरक-धसान के बड़ा गँवे-गँवे कहत कहानी - याद आ रहल बिया। एह कहानी के बारे मेें प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ विवेकी राय अपना आलोचना-पुस्तक ' भोजपुरी कथा साहित्य के विकास' में कहले रहले कि ई कहानी स्पष्ट रूप से आधुनिकता बोध के कहानी बा। यद्यपि डॉ राय आधुनिकता बोध वाली भोजपुरी के कुछ दोसरो-दोसर कहानियन के जिकिर कइले रहले, 'बड़प्पन' के कथ्य आ शिल्प के भी संक्षिप्त बाकिर सुन्नर ढंग से फिकिर कइले रहले। आज ई कहानी आ एकर सिरजनहार चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह-दूनों- कवनों दोसरा समय के सापेक्ष, बेसी प्रासंगिक लागत बाड़े। शायद जब-जब मानवता मानवते(असल मे दानवता) से
हारत बुझाई बाकिर हारी ना, जीत जाई तब-तब 'बड़प्पन' याद आई आ याद अइहें चौधरी साहेब, जे कहानी के जीवन से उठावत रहले, देखल-सुनल-भोगल से उठावत रहले-अनुभव-रहित अखबार, टीवी भा किताब से ना। अपना लघुकथा संग्रह "शिव" में ऊ साफ कहत बाड़े-'पठन, पर्यटन, सरकारी सेवा में दूर से दूर अनजान जगहन पर पदस्थापन, हर वर्ग, उम्र के लोगिन के साथ-संगत के गाँव-नगर में बास के चलते हमरा पास अतना अनुभव बा कि हमरा कल्पना-विमान के जरूरते ना पड़ेला।'
'बड़प्पन' गनिया टमटम वाला के कहानी ह। आज आदमी यान प घूमत बा(जान प बनल बा त तत्काल घरे बइसल बा)। बाकी एगो समय रहे कि टमटम मस्त सवारी गिनात रहे। दिलीप कुमार के फिल्म 'आन' के ऊ गाना पुरान लोग आजो गुनगुना उठेला- "दिल में बिठा के प्यार का तूफान ले चले। हम आज अपने मौत का सामान ले चले", जे ऊ एगो टमटम प नादिरा के बइठा के गवले रहल।
'बड़प्पन' गनिया टमटम वाला के कहानी ह। एगो अइसन टमटम वाला, जे ह त हिन्दू बाकिर एगो मुसलमान फकीर के दिहल नाँव ओकरा कर्म आ सोभाव के पहचान बन गइल बा। पहचान एह तरे कि ऊ पइसा ना गिने, गरीब के जरूरिआत गिनेला आ कतनो पइसा देत रहीं, ओकर टमटम रउआ खातिर ना टकसी यदि कवनो डॉक्टर कवनो गरीब मरीज के देखे ओकरा टमटम पर जाए वाला होखसु। एगो अउरी बात, गनिया खातिर धर्म वाला कवनो भेद माने ना रखे। हिन्दू होखे चाहे मुसलमान चाहे ईसाई, ऊ टमटम पर सबके बइठाई आ सब किहाँ जाई। ओकर टमटम अक्सर अस्पताल के आगे लागल रहेला। डॉक्टरो लोग का गनिया पर अउरी कवनो टमटम वाला से बेसिए विश्वास बा, एह से कि ऊ कुछऊ के ले के कवनो तरह के तकरार ना करे आ मए जवार-पथार के हर गाँव-घर-गली से एक दम परिचित बा। ऊ आदमिए में भगवान के देखेला आ भगवान के होखला ना होखला के लेके केहू से बहसो नाध देला, जइसे ओह दिन!
ओह दिन ऊ डॉक्टर साहेब के अपना टमटम पर बइठवले पवन-वेग से उड़ल चलल जात रहे आ अपना घोड़वा से बरबरातो जात रहे कि सरपटिया नाध दे कि एगो जिनगी बचावे के सवाल बा! उबड़-खाबड़ सड़क पर, खड़-खड़ करत टमटम के ढकरपेंच से, डॉक्टर साहेब मने-मन गुरमुसा के रह जात रहले, बाकिर घाँखी कछा ले ले रहले, से बोलसु ना। गनिया के घरे रात खा कुछ हीत-नाता आ गइल रहले आ घर में जवन आटा-दाल रहे से सब पका-खा गइल रहले त सुबहे से ऊ खाली एक कप चाहे प रहे। गरीब आदमी! आ कवनो दोसर भड़ो-बूती ना मिलल रहे। डॉक्टर साहेब के परिवार एहिजा ना रहत रहे,तबो ऊ हर काम सपरा के निश्चिंत रहले आ कोट-पैंट-टाई में अँइठइल बइठल अपना बड़प्पन के बड़ा घमंडे देखत रहले।रह-रह के ऊ कपड़ा पर परल धूर के रूमाल से पोंछ लेसु। गनिया धरती पर के लोगन के नीक से जानत बा। हाथी-कार वाला लोग साइकिल वाला के रहता से हटत देख के मुँह बिजुकावेला। सब धन के घमंड ह। ऊ लोग ना जानसु जे उनुको ले बड़वार एह रहिया से चलेला! अपना से छोट के नाँव त अँगुरिए पर रहेला, बड़ के नाँव याद ना रहे!
एकरा पहिले जब डॉक्टर साहेब अपना बड़ होखे के भाव में उभचुभ होत रहले कि गनिया एगो सवाल पुछले रहे- साहेब, रउआ भगवान पर विश्वास करींला? डॉक्टर साहेब त दोसरा दुनिया के सैर करत रहस, से एह दुनिया में लवटे में समय लागल। सवाल जल्दी ना समझ सकले। जब समझले त कहले- "हम भगवान पर विश्वास करींला, ढकोसला पर ना! एगो अनजान शक्ति के आगा माथा झुकाइँला, ओही के भगवान मानीं ला।" "ठीक बा मानीं"- गनिया कहले रहे- "हामा-सुमा के त ढकोसला के मानहीं परी!"
- " काहें?"- डॉ साहेब कुछ देर के बाद पुछले रहले त गनिया बतवले रहे कि मिठास के पता मिसिरी के खइला के बादे बतावल जा सकत बा। ओकरा कहे के मतलब एकदम सोझ आ साफ रहे कि भगवान अन्तरधान रहे वाला चीज ना हवन। आदमी के सेवा, करूणा, दोसरा खातिर सहानुभूति आदि गुणे भगवान ह। जेकरा प्रति ई सब बरतल जाला, ओकरा भगवान के छछात दरसन होला।
टमटम गाँव में पहुँचल। डॉक्टर के आइल सुन के लोग दउरल। डॉक्टर साहेब रोगी के नबुज धइले। गरम पानी मँगवले। कहले कि हालत खराब बा। देह ठंढात जा रहल बा, गरमी ले आवे खातिर सूई देबे के होई! "डॉक्टर के एक हाथ में स्पिरिट से भींजल रूई के फाहा रहे। साहस ना होत रहे कि सूई देस। गनिया उनका मन के घड़ारी पढ़ ले ले रहे। डॉक्टर के संस्कार मुर्दा के खोभे से मना करत रहे।गनिया के तरफ देखलन। ओकरा नजर में घिरिना भरल रहे। ऊ दरवाजा का तरफ बढ़ल। डॉक्टर का बुझाइल जइसे कि ऊ उनकरा जइसन पापी के हत्या करे खातिर हथियार ले आवे गइल होखे। रोगी मर गइल ए में हमार का दोष? हमरा पासे लोग गइल त हम अइबे कइनीं। तनिको देरियो ना कइनीं। हम त आइल बानीं।
हमरा त फीस मिलहीं के चाहीं। कह देबि कि मर गइल, त फीस के दी? लोग रोवे-गावे लागी। बाबूजी के मुकदमा खातिर, करज चुकावे खातिर रूपया चाहीं। भाई के कॉलेज के फीस चाहीं। लइकी के आठ-दस साल बादे भारी तिलक चाहीं। भावुक भइला पर कहाँ से आई? हाथ पर स्पिरिट मलत देर भ गइल। मन कड़ा कर के, आँख मूँद के सूई धँसा दिहले।
दवा के पुर्जा थम्हा के, खियावे-पियावे के तरीका बताके फीस चेटिअवलन आ आके टमटम पर बइठ गइलन। गनिया से नजर मिलते नजर झुका लेलन आ दोसरा ओर देखे लगलन।"
गनिया के मनोदशा के अनुमान कइल मुश्किल नइखे। पढ़ुआ-लिखुआ, चमचम चमके वाला सूट-बूट पहिरले एगो अइसन आदमी, जेकरा के दुनिया दोसर दइबे मानेला, ओकर ई कर्मनासा देख के ओकरा पर का बीतल होई, एहू के अंदाजा लगावल मुश्किल नइखे। सीधा आ सोझिया लोग के पता नइखे कि रोगी डॉक्टर के इलाज करे के पहिलहीं मर चुकल बा बाकिर गनिया के एह बात के पता त ओही घरी चल गइल रहे जब डॉक्टर रोगी के कलाई पकड़ले रहले। डॉक्टर लोग के संगे-साथे ढेर दिन ले रहत-रहत ओकरा उहन लोग के मन के नीक तरी पढ़े आ गइल बा।
डॉक्टर के टमटम पर बइठते ऊ टमटम चला देत बा। हाथ जोड़ले ओकरा मुँह से बड़ा उदास-उदास वचन निकलत बा- तब हम जात बानी!' एगो आदमी हाथ में पाँच रूपया के नोट लिहले ओकरा ओर ई कहत बढ़त बाड़े-' अपना टमटम के भाड़ा ले ले जा!'
गनिया से बोल नइखे जात। ऊ हाथ के इशारा से बतावत बा कि ओकरा भाड़ा ना चाहीं। ऊ उद्वेग में बा, गहन पीरा में बा।का पता भगवान के बारे में ओकरा विचार के का भइल? अपना से आँख चोरवावत डॉक्टर के अनदेखी करत ऊ घोड़ा के पीठ पर खींच के चाबुक मारत बा। डॉक्टर के लागत बा, जइसे चाबुक उन्हुके पीठ पर बरिसल बा। गनिया से वेदना के वेग नइखे अड़ात। ओकर आँख बरिसे लागल बाड़ी स। डॉक्टर के शायद धन के हबस के बेमारी कुछ नेवर भइल लागत बा। ऊ ओकरा बड़प्पन के ऊँचाई के देखे लागत बाड़े।
देखे जोग बा कि 'बड़प्पन' सबसे पहिले बनारस से छपे वाली भोजपुरी पत्रिका 'भोजपुरी कहानियाँ' में जुलाई 1969 में प्रकाशित भइल रहे फेर प्रो. ब्रजकिशोर द्वारा संपादित 'सेसर कहानी भोजपुरी के' आ खुद चौधरी साहेब के कहानी संकलन 'बड़प्पन' में संग्रहीत कइल गइल। ' सेसर कहानी भोजपुरी के' (1981) के 'कहानी आ कथाकार' में शीर्षक 'बड़प्पन'(गनिया) बा, जबकि कहानी के पृ.सं.-37 में शीर्षक 'गनिया' छपल बा।
तत्कालीन हिन्दी साहित्य पर नजर फेरल जाउ त ओह घरी 'साठोत्तरी कहानी' के सर चलल रहे। एह घरी लिखाइल कहानियन के एगो अउरी नाँव ' सातवें दशक की हिन्दी कहानी' से भी जानल-पहचानल गइल। हिन्दी कहानी के एह नाँव से चर्चा चलावे में हिन्दी के दू गो पत्रिका 'उत्कर्ष' आ 'अणिमा' के नाँव आवेला। एही घरी हिन्दी साहित्य के चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह के बहुचर्चित कहानी आइल रहे 'सुख'। सन् 1964 में प्रकाशित एह कहानी के बारे में कहल जाला कि अपना समय में ई कहानी उहे काम कइले रहे जवन प्रेमचंद के कहानी 'कफन' 1936 में।
'बड़प्पन' के गनिया के चरित्र में हमनी के एगो अइसन मानवीय चेतनाा के दरसन होत बा, जे दुर्लभ भले मत होखे, विरल त जरूर बा। कहानी सामान्य जन के भीतर के एगो असामान्य जन के बात करत ई बतावे के सफल जतन करत बिया कि इहे असामान्यता मनुष्यता के वर्ग चरित्र ह। । एमे बहुत ज्यादा माथा-पेचिस करे के जरूरत शायद नइखे कि पइसा के जरूरत केकरा ज्यादा रहे- ओकरा,जे अब ले उपास आ एगो छेदहिया पइसा से रहित रहे कि ओकरा, जेकर पेट आ चेट दूनो भरल रहे?आ पइसा कइसहूँ भा कवनो अधातम से सँहोथल जा सकत रहे? गनियो त पइसा ले सकत रहे! लोग देतो रहे।ओमे जोरो- जबरजस्ती के कवनो बात ना रहे। ओमे इहो बात ना रहे कि मुरदा आदमी के डॉक्टर से देखवावे ले आवे वाला टमटम वाला के आपन भाड़ा ना लेबे के चाहीं। माने- गनिया अपना टमटम के भाड़ा लेइयो लिहित तबो मनुष्यता के कवनो कानून के लंघन ना होइत। कहानीकार चाहित त कहानी में गनिया से ओकर भाड़ा लियवाइयो सकत रहे! डॉक्टर के द्वारा- आपन फीस लेत आ ओकरा के चेटिआवल त ऊ देखाइये चुकल रहे आ ओकरा (डॉक्टर के) के एगो व्यक्ति के रूप में, साथे-साथ एगो अइसन संस्था के प्रतिनिधि के रूप में-जेकरा के आजुओ लोग भगवान के बाद( only next to God) पुनीत मानेला- घोर अमानवीय आ अघोर-पतितो सिद्ध क चुकल रहे! एह से कहानी के एकनिष्ठतो पर इचिकी भर के फरक ना परे के रहे। बाकिर ना, तब एगो गरीब टमटम वाला के चरित्र अन्हारे में रह जाइत। तब कहानी के शीर्षको बदल गइल रहित आ कहानी एगो डॉक्टर के हीनतई के दास्तान भर बन के रह गइल रहित जेकरा में से से मनुष्यता के सत्व- चमक आ गमक दूनो गायब बा।
कहानीकार के दृष्टि एकांगी नइखे। एकांकी दृष्टि के कहानीकार कतनो मौलिक रही, ओकर कहानी हाड़-चाम सहित एगो 'ममी' मात्र रह जाई, जेकरा में से जिनगी के जान आ आत्मा दूनों रहता नाप ले ले बा।
गनिया के चरित्र के ऊँचाई पर पहुँचा के कहानीकार बे-लागलपेट के साफ क देत बा कि अब मानवता के बँचावे खातिर समाज के नेतृत्व गनिया जइसन मजदूरा लोगन के हाथ में, चाहे कह सकेलीं मजदूर प्रतिनिधियन के हाथ में दिहल जरूरी बा, जे आम जन- शोषित, गरीब जन के दु:ख-पीर समझ सके, उनकर जहाँ ले सपरे मदद कर सके। अइसनो नइखे कि अइसन सोच ओघरी खाली लेखके के मन में आइल आ ऊ धड़ से कहानी कह देलस। इतिहास के अध्येता लोग ई बताई कि अइसन सोच ओघरी भारत के हर सामान्य जन के सोच रहे। जे देश-दुनिया के हलचलन से तनियो-मनी जान-पहचान रखत रहे, ओकरा सामने विकल्पोके कइगो नक्शा उभरत रहे बाकिर व्यवस्था से मोहभंग त सबके हो चुकल रहे- चाहे आम होखे भा खास। शोषक शैतान डॉक्टर ओह व्यवस्था के हिमायती चरित्र रहे। ओकरा सामने खाली आपन रहे-आपन शैतानी-स्वार्थ, जवन कपारे चढ़ जाला त दुधारी तरूआर अस दोसरा के काटत अपनो के सोपह करे के समीकरण दे देला। सर्वजन के एह सोच के कुटिल राजनीतिज्ञ भाँप ले ले रहले स। काँग्रेसी शासन के सड़ांध से सभकर नाक उजबुजाए लागल रहे। फेर एमरजेन्सी लागल। फेर जनता(पार्टी) के सरकार बनल। फेर एहिजो उहे हाल आ फेर बेतलवा ओही डाल।
आम जन के हसरत तँवाइले रह गइल। त एमे एगो कहानीकार का करो? ओकरा हूब आ हक में जतना सवँस रहे, ऊ ऊ सब कइलस। कहानी समाधान ना देइ, देबहूँ के ना चाहीं। कहानी एगो छुपल विधान देले, संविधान ना। संविधान देबे वाली कहानियन के कवनो खास विचारधारा के दलान में गाड़ल खूँटा में बे दाना-पानी के बन्हाये परेला आ अंतत: हुटहुटा के देंह छोड़ देबे परेला। बाद में ओकरा मउअत के केहू ना रोवे- नू आम, नू खास, नू पाटी-पउआ। नामो लिआला त अपना खातिर, कहानी भा कहानीकार खातिर ना। ओह दौर के तमाम-तमाम हिन्दी कहानी एकर प्रमाण बाड़ी स। अकहानी, बकहानी, सचेतन कहानी, अचेतन कहानी, समांतर कहानी, विषमान्तर कहानी जइसन अनेक नाम-रूप के जे कहानी अइली स ओमे कमे, बहुत कम आज मन परेली स। भोजपुरी के 'बड़प्पन' यदि आज मन परत बा त छोट बात नइखे। आ मनो परत बा त हिन्दी के कालजयी कहानी 'सुख' के साथे। इहो छोट बात नइखे।राजा भोज त राजा विक्रमेदित्य के संगे नूं मन परेले, गंगू तेली के बात त ऊपर-नीचे के कहाउत भर ह।
ई जरूर रहल कि 'बड़प्पन' के जेह रूप में आ जइसन चर्चा होखे के चाहत रहल ओसन ना भइल(भोजपुरी यदि संविधान के भाषा वाला ग्रुप में शामिल हो गइल रहित त अनुवाद आदि माध्यमन के चलते भारत के अन्य भाषा-भाषी लोग भी एकर पारायण आ चर्चा करिते)। तबो, भोजपुरी जगत अपना एह कालजयी कहानी के साथे कवनो कमदोजई ना कइलस।अपना बल-बउसाँव भर याद कइलस आ मान रखलस।
'बड़प्पन' पर चर्चा में भाग लेत वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा के हिन्दी आ भोजपुरी विभाग के पूर्व अध्यक्ष आ भोजपुरी साहित्य के अमर प्रेम कथा 'थाती' के रचनिहार नीरज सिंह कहत बाड़े कि- "गनिया के घोड़ा के चाबुक मारल एगो अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ मानवीय करूणा सह आक्रोश के विस्फोट बा। ई चीज ओह दौर के हिन्दी कहानियन में भी आवे लागल रहे।" नीरज सिंह के एह कथन का आलोक में 'बड़प्पन' आ 'सुख' के चर्चा कइल बड़ा सुखकर होई। बाकिर पहिले ई जानल उचित होई कि 'सुख' में बा का!
'सुख' एगो अइसन आदमी के कहानी ह, जे रिटायर हो के सामान्य जिनगी जीयत एक दिन कुछ बदलल-बदलल अस व्यवहार करे शुरू क देत बा। बात ई बा कि भोला बाबू, जे पहिले तार बाबू के नोकरी करत रहले हा एक दिन साँझ के बिसवत सूरज के देखत बाड़े आ सूरज, ओकर सुरमई किरण, पहाड़ी, बदरी जइसन प्राकृतिक दृश्यन के देख के विभोर हो जा तारे। आजतक नोकरी में रहले हा त एह सब दृश्यन के कहाँ देख पावत रहले हा! त ताड़ आ बबुर के फेंड़न के बीच से अन्तरधान होत सूरज के सुषमा देख के भोला बाबू आनंद से झूम उठत बाड़े बाकिर एह के अपने तक बान्ह के नइखन रख पावत।आनंद बन्हाइये ना सके! ऊ कवनो बच्चा अस अकुताइले अपना मेहरारू के जोर- जोर से बोलावे शुरू क देत बाड़े। उनकर पत्नी आवत बाड़ी त ऊ पूछत बाड़े कि ऊ ताड़ के पीछे का देखत देखत बाड़ी? उनकर मेहरारू कहत बाड़ी कि ईंटा लदाइल खच्चरन के झुंड आ उहनी के पाछा चलत आदमी लोग। भोला बाबू के झुंझलाहट त जरूर बरल होई बाकिर ऊ अपना के दाबत हँसत कहत बाड़े- मेहरारू के जाति खच्चरे-गदहा नू देखी! उनकरा मेहरारू के ई बुझाते नइखे कि ऊ का देखावल चाहत बाड़े? अंत में भोला बाबू कहत बाड़े-'ताड़ों के पीछे देखो। धुँधली-धुँधली पहाड़ियाँ हैं।' उनकर मेहरारू कहत बाड़ी-' हाँ हैं।' 'लाल सूरज है।' 'हाँ है।' 'गोलाई पर भूरे बादलों की लकीरें हैं। 'हाँ हैं।' 'तो देखो उसे अच्छी तरह देखो।' भोला बाबू के मेहरारू कहत बाड़ी- 'उसे क्या देखना! आप आज देख रहे हैं, मैं जिन्दगी भर से देख रही हूँ।' ' अच्छा! बड़ा अच्छा काम कर रही हो, अब एक काम करो कि चलो चूल्हा फूँको।'
भोला बाबू अपना मेहरारू पर खिसियात ओहिजा से टसक के कुर्सी प आके बइठ जात बाड़े बाकिर अपना एह खुशी के बारे में ऊ बहुत लोगन से बतियावल चाहत बाड़े- का उहो लोग सूरज के एह तरी डूबत देखेला? केहू दोसरा खातिर सूरज के फेंड़न के बीच से डूबल कवनो घटने ना रहे बाकिर भोला बाबू खातिर त प्रकृति के ई नजारा अद्भुत आ अनुपम रहे। ऊ उदास हो जात बाड़े। दोसरे पर ना, अपनो पर काहें कि देसा-देसी घुमला के बादो आज ले ऊ ई दृश्य ना देख सकल रहले। ओह साँझ ऊ कई लोगन से सूरज के बिसवे के बात पुछले आ हर जगह के बात से उनकरा दिल के कचोटे मिलल। उनकरा बुझात नइखे कि लोग अइसन काहें होखल जात बाड़े! रात में,एने-ओने से घूम- फिर के अइला के बाद, ऊ मेहरारू से कहत बाड़े कि ए बेरा खाना ना खइहें। मेहरारू के लागत बा कि उनकर तबीयत ठीक नइखे। भोला बाबू के लागत बा कि उनका किहाँ कुछुओ के कमी नइखे बाकिर उनुकर दु:ख बूझे वाला केहू नइखे। उनकर बात सुन के उनकर मेहरारू आ मये परिवार रोवे लागत बा। भोलो बाबू रोवे शुरू क देत बाड़े। सबसे तेज आ दु:खी आवाज भोले बाबू के रहत बा। आ 'सुख' कहानी एहिजे खत्म हो जात बिया।
कहानी के ई अंत समूचा कहानी के एगो टभकत फोरा अस दु:खमय कर देत बा। शुरू में ऊ टभकल बरदास होत रहल। अंत में गरमी छितरियवा दिहलस। भोला बाबू के ई सोंचल कि- 'उनसे कोई गाँव नहीं छूटा, कस्बा नहीं छूटा, शहर नहीं छूटा। लेकिन यह सूरज अब तक कहाँ था? यह शाम आखिर किधर थी? आज वे क्या देख रहे हैं?' प्रकृति आ मनुष्य के रिश्तन में आइल ओह बेगानापन का ओर इंगित करत बा जहाँ पदार्थवाद मये अध्यात्मवाद के भकोस जाता आ पदार्थवादी दुनिया के बीच के एगो बड़ा कमजोर आदमी करूणाजनित विद्रोह के सुर में डेंकरत कहत बा कि ना, आदमी आ प्रकृति के बीच के ई रिश्ता ढहे के ना चाहीं। बाकिर एह विद्रोह के दिशा नइखे मिलत आ ऊ एगो कहल आ लउकल विवशता में बदल के खत्म हो जात बा। ई बेबसी हर ओह आदमी के बेबसी से जुटल बा, जे प्रकृति से मानव के आत्मीय संम्बंधन के तरफदार रहल बा। बाकिर, जहाँ सइ कसाई ओहिजा एगो के का बसाई।
अँग्रेजी कविता में रोमैन्टिसिज्म के प्रस्तोता कवि विलियम वर्ड्सवर्थ अपना एगो प्रसिद्ध सॉनेट ' The World Is Too Much With Us' में अइसने उद्गार व्यक्त कइले रहले।ओहिजा सूरज के जगह चन्द्रमा रहे। औद्यौगिक क्रांति विज्ञाने खातिर ना, सम्बन्धनो खातिर क्रांति रहे- आदमी आ आदमी के बीच के आ आदमी आ प्रकृति के बीच के सम्बन्धन खातिर। वर्डसवर्थ कहले- संसार से हमनी के लगाव के हद हो गइल। संसार से लगाव माने पदार्थ से लगाव आ रिश्तन से बिलगाव।
इहे चीज हमनी के 'बड़प्पन' में देखत बानीं जा। इहे चीज हमनी के 'सुख' में देखत बानीं जा।
एन्टन चेखव के कहानी 'दु:ख' सन् 1904 से पहिले के रचना ह। सन् 1904 में चेखव के इंतकाल हो गइल रहे। बहुमत चेखव के विश्व के महानतम कहानीकार मानेला। तॉल्स्तॉय, गोर्की, समरसेट मॉम,प्रेमचंद, यशपाल से लगाइत राजेन्द्र यादव तक एक सुर से एह बात के गवाही देले बा। श्री यादव के कहनाम बा कि-" उत्कृष्ट कहानियाँ अनेक लेखकों ने लिखी हैं, लेकिन दर्जनों की संख्या में विश्व-साहित्य को प्रथम-श्रेणी की कृतियाँ देने का श्रेय केवल इस लेखक को है और इनमें एक या दो को सर्वश्रेष्ठ कह देना असंभव है।( कहानी स्वरूप और संवेदना: वाणी प्रकाशन: 2007: पृ.सं.-223)
'दु:ख' चेखव के एगो अत्यंत मार्मिक कहानी ह, जेमे एगो गरीब आ बूढ़ कोचवान के अपार पीड़ा आ असहायपना के हृदयस्पर्शी उरेह भइल बा। कोचवान के घोड़ागाड़ी पर बइठे वाला लोगन के अपना स्वारथ आ मउज के सामने कोचवान के दु:ख के बात सुन के दु:खी होखे के त बाते छोड़ दिहल जाउ, देखउआ सहानुभूति आ प्रेम के दू बात बोलहूँ में अनस बरत बा। शराब पी के योना के टमटम पर बइठे वाला कुछ लइका त ओकरा के अत्यंत अशिष्ट भाषा में धमकावतो बाड़े स। योना पोतापोव के एकलवता बेटा मर गइल बा आ बेचारा योना आपन ई दु:ख केहू अउरियो के सुना के अपना दु:ख के कुछ हलुक कइल चाहत बा। ई स्वाभाविक बा, मानवीय बा, बाकिर ओहिजा केहू मानव होखे तब नूं, दोसरा के सुने? 'सुख' में भोला बाबू के दु:ख व्यक्तिगत ना रहे। उनकर दु:ख ई रहे कि अपना सांसारिक कार्यन में अझुराइल लोगन के पासे एतना फुरसत नइखे कि ऊ प्रकृति के नैसर्गिक छटा के देख सकसु! त अइसन जिनगी के मतलबे का जे जीवनदायी प्रकृति के बिसार दे? विलियम हेनरी डेविस( 1871-1940)) के कविता Leisure के एह पाँतिन से कहीं त-
What is this life if full of care
We have no time to stand and stare.
'दु:ख' के कोचवान के दु:ख अपना बेटा के मरला के दु:ख बा। ऊपर से व्यक्तिगत लागे वाला ई दु:ख गहराई आ विस्तार में हर ओह गरीब आदमी के दु:ख हो जात बा, जेकर सुने वाला एह दुनिया में केहू नइखे। एगो गरीब, बूढ़ बाप के एकलवता बेटा मर जाय त ओकरा पर कइसन बज्जर गिरी- एकरा के शब्दन में नइखे कहल जा सकत! अंत में योना आपन करूण-कथा अपना घोड़वे से कहे लागत बा। घोड़ा अपना मालिक के गम से गमगीन बा आ ओकर हाथ चाट के अपना करूण प्रेम के इजहार करत बा। योना घोड़ा से कहत बा- " हँ, हमार भाई! हमार पुरान संघतिया! इहे साँच बा कि कुज्या योनिच हमरा के अकेले जीए खातिर छोड़ के अपने चल गइल। तनी सोच ना, तोहरा एगो बछेड़ा होखे आ ऊ अचके तहरा के अकेले जीए खातिर छोड़ के, संसार छोड़ के चल जाउ त तोहरा कतना दु:ख पहुँची? पहुँची नूं?"
'बड़प्पन' के गनिया के दु:ख के कइसनो व्याख्या के जरूरत नइखे। ओकरा दु:ख के स्थिति ई बा कि दोसरा के दु:ख ओकर आपन दु:ख हो जात बा। कुछ अइसन जवना के तुलसीदास एह तरे कहले रहले-
निज परिताप द्रवहिं नवनीता।
पर दुख दुखी संत सुपुनीता।।
कहल जा सकत बा कि काशीनाथ सिंह के 'सुख' आ चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह के 'बड़प्पन' चेखवे के 'दु:ख' के विकास ह। काशीनाथ सिंह के कहानी 'सुख' के शीर्षको चेखव के कहानी के शीर्षक 'दु:ख' से प्रभावित जनात बा। कोचवान योना पोतापोव आ भोला बाबू के चरित्रो में ढेर साम्य बा। दूनों जाना संगे बात एके बा कि इहन लोग के बात केहू नइखे सुनत। योना के बात 'बन वाला' नइखन सुनत आ भोला बाबू के 'घर वाला'। 'दु:ख' में करूणा ज्यादा बा, 'सुख' में व्यंग्य। 'बड़प्पन' के दु:ख 'दु:ख' के दु:ख के एकतरह से फइलाव ह। दूनो कहानी एगो टमटम वाला के कहानी हई स बाकिर अलग-अलग कथानक वाली। जबतक मनुष्य रही, मनुष्यता रही- ई तीनूं कहानी कवनो ना कवनो विधि याद आवत रहिहें स। आज करोना-संकट में जब सुनात बा कि डॉक्टर लोग पइसा खातिर कवनो बेमारी के कोविड-19 कह देत बा आ इलाज के नाँव प मरीज के किडनी, लिवर निकाल के ओकरा के मुआ घालत बा, तब 'बड़प्पन' वाला डॉक्टर याद पर जात बा। बाकिर आज के डॉक्टरन के तुलना में ऊ कुछ मानवीय त जरूर रहे काहें कि ऊ मुर्दा के सूई लगा के पइसा बनवले रहे, आज के डॉक्टर त जिअता के मुर्दा बना के पइसा बनावत बाड़े स। आदमी के पतन के पराकाष्ठा अब दोसर का होई जब धरती के भगवान नरक के शैतानों के लजवा देत बा!
'बड़प्पन' कहानी पर विचार करत शालिग्राम पाण्डेय के कहनाम बा कि- " 1969 में प्रकाशित ई कहानी आजुओ ओतने प्रासंगिक बिया।डॉक्टर लोग के रोगी के साथ व्यवहार आ व्यावसायिक सोच आज चरम पर बा।साथे-साथ इहो विश्वास बा कि गनिया नियन लोग भी हमेशा रहल बा आ हमेशा रही।"
कथा-शिल्प आ शैली के लिहाजे साधारण रहला के बावजूद कथानक, प्रस्तुति, प्रवाह आ प्रभावान्वीति के श्रेष्ठता के वजह से'बड़प्पन' भोजपुरी कहानी के विश्व-कहानी के पटल पर पुरजोर ढंग से प्रस्तुत करत बिया आ बड़ा सहजे ई बताइयो देत बिया कि भोजपुरी कहानी के बड़ कहे खातिर कवनो दोसरा भाषा के कहानी के छोट कहे के कवनो जरूरत नइखे।
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विष्णुदेव तिवारी
मैना: वर्ष - 7 अंक - 120 (अक्टूबर - दिसम्बर 2020)

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