चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह ‘आरोही’ के कविता में राष्ट्रीयता - डॉ. सुनील कुमार पाठक

चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह ‘आरोही’ भोजपुरी के सुपरिचित रचनाकार हईं। साहित्य के सगरी विधन के अपना लेखनी से समृद्ध करे में इहाँ के योगदान अविस्मरणीय बा। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संदर्भ ग्रंथ, कोश-निर्माण आदि के जरिये भोजपुरी-भारती के मंदिर के सजावे में कन्हैया बाबू के साहित्यिक सेवा के महत्वपूर्ण भूमिका रहल बिया। बाकिर साँच पूछल जाव तऽ उहाँ के काव्यात्मक अवदान आऊर सब रचनात्मक प्रयासन पर भारी पड़ल बा। ‘माटी करे पुकार’ उहाँ के रचल कविता-संग्रह तइयार तऽ हो चुकल रहे सन 1979 में बाकिर एकरा छप के आवे के सुयोग बनल सन 2020 में। एह संग्रह के ‘भूमिका’ सन 1979 में भोजपुरी आ हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’ जी लिखले रहनीं बाकिर व्यवस्थित ढंग से एकर सम्पादन करके दिलीप कुमार जी सन 2020 में भोजपुरी साहित्य-संसार में ले अइनीं।
‘माटी कहे पुकार’ जइसन कि शीर्षक से स्पष्ट बा एह संग्रह में कविवर कन्हैया प्रसाद सिंह के राष्ट्रप्रेम से भरल कवितन के अधिकता बा। एह में में देशप्रेम के अलावे प्रकृति-वर्णन, पर्व-त्योहार, प्रेम, दर्शन आदि से जुड़लो गीत-कविता बाड़ी सं। संग्रह के अंत में 15 गो गजल भी संकलित बा जवना में समय आ समाज के दर्द आ विसंगति, प्रेम-विरह के स्वर आउर सत्ता के शोषक-चरित्र के विरोध में आक्रोश के स्वर मुखर भइल बा। 
भोजपुरी के राष्ट्रीय कविता में देशप्रेम के स्वर स्वाभाविक रूप में समाहित मिलेला। एह कविता में राष्ट्रीयता के जवन स्वर गुंजायमान बा ऊ कवनो ‘वाद’ से प्रभावित नइखे। अपना देश के माटी के प्रति प्रेम भोजपुरी मनई में स्वाभाविक रूप से देखे के मिलेला। अपना मातृभूमि आ मातृभाषा के प्रति प्रेम भोजपुरिया मनई के जीवन के अनुपम थाती हऽ जवना के सुगंधि ओकर रोम-रोम में व्याप्त बा ओकर संस्कारे में रचल-बसल बा। पश्चिम के ‘राष्ट्रवाद’ आ भारत के ‘राष्ट्रीयता’ भा ‘राष्ट्रवाद’ में मौलिक अन्तर बा। पश्चिमी दर्शन में जब राष्ट्रप्रेम के बात होले तऽ ओमे खाली अपने देश के हर कीमत पर विकास आ कल्याण के कोसिस प्रधान रहेले जबकि भारतीय राष्ट्रीयता के भावना में पूरा विश्व के कल्याण-कामना जुड़ल रहेले। ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ के वैदिक ऋचा एह बात के गवाह बिया कि धरती हमार मतारी हई आ हमनीं इनकर संतान। ई बात हमनीं के सांस्कृतिक बीजमंत्र के तौर पर स्वीकार कर लेले बानीं। बाकिर एह धरती के रक्षा आ सिंगार के प्रति सतत सजग-सचेत रहेवाला भारतीय कबो दोसर देश के संकट मंे डालेवाला काम ना करे। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ -सगरी दुनियाँ के धरती के बासिन्दा के हमनीं अपने परिवार के लोग लेखां समझिला। सभे सुखी रहो, सभे स्वस्थ-सानन्द रहो, सभकर कल्याण आ विकास होत रहो -ई हर भारतीय के मंगलकामना रहेला - 
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत।’’ 
कन्हैया प्रसाद सिंह जी के कवितन में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता के स्वर प्रखर तऽ बा बाकिर ओमे कवनो तरे के संकीर्णता भा अनुदारता नइखे। कवि के राष्ट्रभक्ति महज देश के माटी से, इहाँ के आबो-हवा से, इहाँ के प्रकृति आ लोग से प्रेम तक सीमित नइखे; एह में राष्ट्रप्रेम के स्वरो आ यथार्थ के अनुभूति के प्रमुखता मिलल बा। कवि कन्हैया यथार्थ के भाव-भूमि पर खड़ा होके राष्ट्रदेवता के आराधन-पूजन कइले बाड़ें। मातृभूमि के प्रति कवि के धारणा बिलुक साफ बा- 
‘‘तन के दीप नेह के बाती 
जरी देस खातिर दिन राती 
हिन्दी, तमिल, बंगला, उड़िया सबके दुलारीं।’’ 
कवि के राष्ट्रीयता के भावना में कातरता ना बलुक का क्रांति के स्वर सजोर बा। उनकर 
साफ कहनाम बा-
‘‘शांतिदूत तऽ बन मगर तू कायर मत कहलाव 
प्यासल तीर-धनुहिया बाटे अरजुन आगे आव 
माया-ममता रहल कहाँ जब खुद कौरव तैयार बा 
जाग उठ सब भारतवासी! हिमगिरि रहल पुकार बा।’’ 
कवि देश खातिर सगरी आपसी टकराव आ बैर-भाव भुला देबे के निहोरा कर रहल बा। पड़ोसी चीन के बेवहार से क्षुब्ध कवि ठेठ भोजपुरिया लेखां निठाह ढंग से ओकरा के डेरवावहू में नइखे चूकल- 
‘‘लागी चमेटा त 
निसा भुलाई 
कहँवा से पइब तू 
घरहूँ से जाई 
भारत ह बड़ नहीं अहथिर धार बा 
बरसाती नाला अस चलऽ मत फफाइल।’’ 
भारतीय ज्ञान आ परम्परा के सागर के स्थिरता के गोहरावत कवि चीन के फफाइल चाल के निंदा करे में तनिको परहेज नइखे कइले। चीनी कुचाल से सावधान रहे के आह््वान करत कवि साफ-साफ कह रहल बा कि- 
‘‘बैरी बनल पड़ोसी भइया, हो जा अब तैयार।’’ 
कवि के एह आगाही में खाली देशवासिये के तैयार हो जाये खातिर आह्वान नइखे बलुक एकरा में पड़ोसियो खातिर चेतावनी बा। कवि साफ कहत बा कि सहिष्णुता के परीक्षा खाली भारते काहे दी? ई सहिष्णुता कायरता ना मान लिहल जाव एह बदे बीच-बीच में देह झारत रहे के जरूरत बा। 
कवि अपना ‘भोजपुरिया’ नाम के कविता में देशवासी सब के सावधान कहत रहत बा- 
‘‘देसे ना रही त, रह के का करब? 
करब गुलामी बे मउवत के मरब। 
धन अउर धरती के मालिक ना रहब 
बिना सहारा के धारा में बहब।।’’ 
कवि के चिन्तन में कल्पना ले ज्यादा यथार्थ आ भावना ले ज्यादा विचार के प्रमुखता मिलल बा। दिवाली हर साल आवेले बाकिर अगर ओसे मनई के भीतरी अन्हरिया ना मिटे, हर घर-आँगन में अँजोर ना फैले तऽ ओकरा अइले ना अइले का मतलब? दिवाली के बारे में कवि के धारणा बा- 
‘‘सुजी-मैदा -सुद्ध डालडा, किसमिस तनिक मलाई 
दिआ-दिअर, तेल-पराका, हाय कहाँ से लाई 
हाथ नचावत मुँह बजावत पत्नी बन के काली रे!’’ 
कवि जातीयता, धर्मान्धता, संकीर्णता, असमानता, शोसन आ सासत से उबियाके मानवता के सतपथ पर चलेके पुकार कर रहल बा- 
‘‘तकई के तकधीन, मकई के लावा। 
के जइहें काशी, के जइहें काबा? 
बीतल सतयुग द्वापर भागल। 
त्रेता गइल सक्ति बा जागल।। 
मंदिर दुवरिया दियरिया के बारी? 
बीतते फगुनवा होलरिया के जारी? 
दूर कर जात-पात, दूर कर पूजा। 
सत-पथ छाड़ धरम ना दूजा।। 
कइसन धरम, कइसन जात? 
हमरा अब त कुछ ना बुझात। 
रामकृष्ण के नांव के लिही?
एक ईश्वर दस पूजा दिही? 
एक मंदिर के दस दरवाजा। 
अन्हरा ढेर त अन्हरे राजा।।’’ 
एजवा ईश्वरीय सत्ता ले ज्यादा मानवीय अस्तित्व आ प्रयासन में आस्था व्यक्त कइल कवि के अभीष्ट रहल बा। 
प्रकृति-चित्रणो में कवि के मन खूब रमल बा। यथा- 
‘‘उमड़ बदरिया आइल सजनी! 
धरती के आकास लुभावे 
इंद्रधनुष दिखला ललचावे 
रस से भरल फुहार चलाके 
अंग-अंग लागल गुदुरावे 
ले संदेस प्यार के जुगनू 
इधर उधर लहराइल सजनी।’’ 
भा- 
‘‘खत भेजे ना खुदही आवे! 
रिमझिम-रिमझिम बरसे बदरा 
सिहरावे पुरवा भिनसहरा 
बिरहिन के नयनन के निनिया 
काजर जइसे बह-बह जावे! ’’ 
कवि के प्रकृति-वर्णन में चित्रात्मकता आ मानवीकरण बेजोड़ बा- 
‘‘बहुत दिनन पर मन में हमरा 
सुधि के नाव चलल! 
महकत साँसन के पुरवइया 
चमकत चान चानी के नइया 
बहकत बदरा आइल बरसल 
मन के भाव गलल! 
अंग-अंग माटी सउनाइल 
धार नदी में उमड़ल आइल 
केकर ले संदेसा दियरा 
जाता धार चढ़ल? 
फूल-फूल डाढ़िन पर झूले 
धरती आसमान-मुँह चूमे 
भँवरन के गुन-गुन लहराइल 
दबल दरद उभरल!’’ 
‘माटी करे पुकार’ के गीतन के प्रेम-वर्णन में मांसलता भा वायवीयता देखे के नइखे मिलत। 
एह प्रेम-वर्णन में कोमल भावना के गहिराई मर्म के छू देबे वाली बिया- 
‘‘जान मारे नयनवा के धार गोरिया! 
देख तोहरा के फगुनी हवा रूक गइल 
बाटे लाजे कंपल के कली झूक गइल 
जब से लहरा के चललू डगर बीच में 
थम्ह गइल बाटे नदिया के धार गोरिया।’’ 
कवि के भाव-प्रवणता कहीं-कहीं दार्शनिकता का ओर डेग बढ़ावत नजर आ रहल बिया- 
‘‘धीरे चलाव ना नाव माँझी! 
लंगटे-उघारे नहात रहे इहँवें 
कबहूँ अकेले भेंटात रहे इहँवें 
बचपन के हउवे ई ठांव मांझी! 
दुनिया के लोगन से उब गइल 
आ इहँवें धारा में डूब गइल 
छूट गइल तहिये से गाँव मांझी! 
मनवा मंदिरवा के रहे मुरतिया 
कन कन से झलकेले उहे सुरतिया 
गुंज रहल हउवा में नाँव माँझी।’’ 
कन्हैया जी के एह गीत के देख के पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के गीत इयाद आ जात बा- 
‘‘बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु 
पूछेगा सारा गाँव बंधु! 
यह घाट वही जिस पर हँसकर 
वह कभी नहाती थी धँसकर 
पूछेगा सारा गाँव बंधु !’’ 
संग्रह में शामिल कन्हैया प्रसाद जी के गजल जिनिगी आ जमाना के धड़कन बनिके पाठकन के सामने आइल बाड़ी सं। एकनी में दर्द आ आहे ना मनई-मन पर युग के विडम्बना आ विसंगति के पड़ रहल दबाव आ ओकरा फलस्वरूप संवेदना में आ रहल गझिनपन आ संकोचो के बहुविध प्रभाव देखे के मिलत बा। आदमी से हेरात जा रहल आदमीयत के देखिके कवि बेचैन बा। ओकर सीधा सवाल बा- 
‘‘काहे भइल बिमार आदमी बा आजकल? 
खंडहर बनल उजार आदमी बा आजकल? 
जुता लगा के माथ में, टोपी सजा के पाँव 
भुतहा भइल इनार आदमी बा आजकल!’’ 
अपना गजलो में शायर चैधरी कन्हैया सिंह ‘बशर’ आदिमी के शक्ति, गति आ मति के विश्वासी बाड़ें- 
‘‘भीड़ से पीट, भीड़ से अलगा
लाख चाहीं मगर ना धोइला। 
देव पत्थर के लोग पूजेला 
गोड़ हम आदमी के धोइला! 
एह संग्रह के शुरूआत भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी पर लिखल कविता से भइल बा। एह कविता के ई विशेषता बा कि एमे गाँधी जी के जीवन-दर्शन के मर्म के निचोड़ के रख दिहल गइल बा। गाँधी जी के कहनाम रहे कि ‘गाँधीवाद’ नाम के कवनो दर्शन नइखे। 
उहाँ के कहत रहनीं कि उहाँ के जीवने उहाँ के दर्शन मानल जाये के चाहीं। उहाँ के सत्य के साथ कवनो प्रयोग पहिले खुद कइनीं फेर ओकरा के अपनावे खातिर ओकर घाटा-नाफा बतावत आह्वान कहनीं। साध्य के प्राप्ति में साधन के पवित्रतो के गाँधी जी जरूरी मनले रहनीं। चौधरी कन्हैया प्रसाद जी के ‘महात्मा गाँधी’ शीर्षक कविता गाँधी-दर्शन के समझे-बूझे खातिर एगो प्रमुख वैचारिक खुराक बा जवना में भावना के अवलेह मिलल बा- 
‘‘चरखा मतलब ऊ मसीन जे 
चले हाथ के बल से 
कहे अहिंसा बलसाली तऽ 
करीं नेह निरबल से 
जे कहल पहिले ओके कर के देखलवल ना! 
साँचे ईश्वर, सेवा तपस्या हऽ बतलवल ना!! 
भला काम के खातिर साधन 
भला रहे बतलवल 
नया लोग के नया अर्थ दे 
श्रमगीता समझवल 
अपना आगा में सउँसे संसार झुकवल ना! 
विश्व गुरू फिर से भारत के तूहीं बनवल ना!! 
‘माटी करे पुकार’ में एकरा शीर्षक के अनुरूप कविता संकलित बाड़ी सं जवनन में भोजपुरी माटी के सौन्दर्य आ सुरभि के साथे-साथे ओकरा विरूपता आ जथारथो के वर्णन भइल बा। ‘माटी के पुकार’ में जीवन के पुकार शामिल’ साथही बा, जीवन के संघर्ष आ चुनौतियनो के झलकावल गइल बा। एह संग्रह के सगरी रचनन में कल्पना आ वायवीयता से अलग हटके जिनिगी के धड़कन सुने के कोसिस कइल गइल बा। जिनिगी आ जमाना के धड़कन जब कवनो माटी आ बानी के पुकार में शामिल होखे तऽ ओकरा कवि के कालजयिता सहजे हासिल हो जाले। कालजीवी कविये काजलयी होला। कन्हैया जी के कविता कालजीवी कविता बिया, एहसे ओकर कवियो कालजयी बन गइल बा। 
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डॉ. सुनील कुमार पाठक
राज्यपाल के जनसंपर्क पदाधिकारी
आवास संख्या-जी-3 ऑफिसर्स फ्लैट
भारतीय स्टेट बैंक के समीप
न्यू पुनाईचक
पटना-800023 
ई-मेल-skpathakpro@gmail.com
मो॰-9431283596



मैना: वर्ष - 7 अंक - 120 (अक्टूबर - दिसम्बर 2020)

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