गुरुविन्दर सिंह के कविता

पाती

मिलल की जइसे भूलल थाती
लिखल तहार मिलल जब पाती।

रोजे रात निहारत रहनी 
हीते-नाते सबसे कहनी
बहल लोर मोर साँझ-पराती।

मन में, बहुते बिसवास रहल
हियरा लुतियन के वास रहल
बरली ओह से दियना-बाती।

मिले साँझ रोजे दिन-रैना
बिन मांझी मोरा नइया सूना
खेले खेल समय उत्पाती।
लिखल तहार मिलल जब पाती।
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भरोसा

राह-घाट लउके ना, छपलसि अन्हरिया,
झिमिर-झिमिर बरसेले करिया बदरिया।

खेतवा में मकई के गाड़ल मचानी
सूतेला जाके बलमु अभिमानी
निनिया उड़ावेले चिन्ता-फिकिरिया।

डर लागे रतिया के सियरा-हुँड़रवा
ओहू ले उप्पर मुदइयन के डरवा
मेघवा के गड़गड़ में चिहुँके बिजुरिया।

कहे बदे हीत-मीत,टोला-परोसा
एह जुग में केकर बा कवन भरोसा
बेरा प'फेरेला लोगवा नजरिया।
झिमिर-झिमिर बरसेले करिया बदरिया।
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बिहँसल पलानी

भदई के असरा प'फिरि गइल पानी,
लउके ना बदरी के नाँवो-निसानी

अबकी असढ़वा बिगरि गइल जतरा
बरिसल ना रोहिनी बिराइ गइल अदरा
परि गइल अझुरा में सउँसे किसानी।

लच्छनि बुझाय ना कुछ अबकी बेरिया
सावन-भदउवाँ न लहकल कजरिया
लागऽ ताटे चूई ना असों ओरियानी।

चढते कुअरवाँ में मेघ घहराइल
रबी के सुतार देखि मन अगराइल
सपनन के पाँखि लगल बिहँसल पलानी।
भदई के असरा प'फिरि गइल पानी।
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नवगीत

अपुसे के रार में
हेराइ गइल बखरा,
टुकी- टुकी घरवार
हाय रे बएखरा।

देसा-देसी घूमि सब
शहरे पराइल
गाँव के पिरितिया
दुकहवाँ हेराइल
गाँव ना भइल
भइल ओझा जी के टपरा।

घर क इजतिया क
अस छेछालेदर
सुपवा के पिटला से
भागे ना दलिद्दर
खेलऽ ताटे दुखिया
कि भाँजऽता पएँतरा।

गँउँवाँ में जाइ
सुर-ताल बइठवनी
कुछ तूरि फेंकनी
आ कुछ के हटवनी
तवनो प'केतना
देखावे लोग नखर।
अपुसे के रार में
हेराइ गइल बखरा।
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लेखक परिचय:- 
नाम: गुरुविन्दर सिंह 
बलिया उत्तर प्रदेश








मैना: वर्ष - 7 अंक - 118-119 (अप्रैल - सितम्बर 2020)

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