मछरी - दिलीप कुमार पाण्डेय

देवाली आवते सन ८८ ई.के घटना मन परेला। बी.एस.सी के दुसरका साल रहे ठीक दिवाली का एक दिन पहिले सत्या भाई नित्या भाई बबलू आ ढुनमुन का संगे हमहू पोखरी कीओर चल देहनी। गांव में जवन घरारी बा उ कादू पोखरीए का माटी से बनल बा। अईसे त उ चार बिगहा में पसरल बा लेकिन देवाली का बेरा ले पानी समेटा के एक बिगहा में रह जाला। दलानीचक पर से खोलल मच्छरदानी से चारो जाना मछरी लागला लो छाने,एक घंटा बीतलो का बाद पांच गो डेरवा से बेसी कुछ ना मिलल। सभे फेने फेन हो गईल रहे।

मछरी ना मिलला पर लाज के बात होई ई सोच सभे चिंतित रहे। सब लोग पोखरी का कगरी बईठ सोचते रहे जे हमनी मच्छरदानियो नसनी आ मछरियो ना मिलल,अब का कईल जाव। अतने में रेलवई पर से केहू चिल्लाईल "हमरा खेतवा में मत मरिह लोग हो, दीअरी छठ बितल ना त् ताले तहनी शुरू कदेले? उनको कहल ठीके रहे।गांवे ई परंपरा रहे छठ का परना का दिन ले गरहा- गुरूही के मछरियन के बचा के राखे के।लेकिन लईका के जीव सुतार का आगा परंपरा कहां देखेला? 

हमनी का पता रहे जे जवना खेत में छनावल जाता ओह खेत के मालिक कलकता गईल बारें अपना भाई से भेंट करे आ अहहीं ले लौटल नईखन। एह से टोकेआला का बात के परवाह कईले बीना आराम कईला का बाद मच्छरदानी के एगो कोना हमहू धईनी ई जानते हुए कि अगर मछरी मिलबो करी त् माई बनाई ना तबो, मन बहलावे खातिर। बाकी संघतिया लोग के घर मछरियाहा रहे। ओह लो का लगे आरसी सरईला सब जोगार रहे।लेकिन हमरा घर अनदिना में मछरी आवते कांय-कुच होखे लागे ,ई तऽ परब के समय रहे। इयाद बा करवाईन हांथे कल छदेला पर कल के लुकारी से जाडल जाव ।माने करवाईन जीव के जंजाल। मुर्गाखउका लोग का आउर संकट रहे। हेह घडी मछरी ले गईला पर झंझट होईबे करीत। तबो हम चल गईनी।

माई अकेले घर रहलीे एह से हरदम काम करत-करत हराने रहस। दिवाली के सर सफाई लिपाई पोताई हो गईल रहे। बाबू माल जाल ला पगहा कीने मरहौरा गईल रहस। ताले हमरो मोका मिल गईल संघतिया लोग के जोजना मे शामिल होखे के। लेदी-पानी कईए देले रहीं। बस नदहा पर बैल बान्हे के रहे। माने दुआर पर के अपना जिम्मेआला काम के ठीक-ठाक कईके गईल रहीं। 

मच्छरदानी लेके बेसी से बेसी तीन डेग बढल होखेम ताले पानी में ठेस लागल आ हम गिरे से बचेला दहिना हांथ रोप देनी। हमार हाथ ईंटा पत्थर बा कवनो चीज का खोपडी पर परला अईसन बुझाईल। मने मने हम डेराए लगनी काहे कि बगलें में खडहुल रहे जहाँ मरल लडिकन के गारल जात रहे। हमरा ढेमनी आ सरली के मरल ईयाद रहे। जोगेश्वर बाबा के बातो ईयाद परे।उ हरदम कहस जे डाईन मुअल लईकन के कबर से निकाल के दशहरा में तेल कूंड लगा खेलावे ली सऽ। कही उहे जल्दी में मत फेंक देलें होखऽस ई सेचते रहनी ताले बबलुआ चिल्लाईल फंस गईल फंस गईल बरारी फंस गईल। देखऽतानी जे मछरी त् मच्छरदानी के हिला के बीगल देलें बीया। झट ओकरा के निकलाईल आ दोसरका छाना मारे के शुरू भईल कुछे देर में एके संगे दूगो आउर बरारी फंस गईल। सभे के मन खुश हो गईल, उत्साह मे आउर छाना खीचाईल। बरारी के उजाह छटकल रहे, दूगो आउर बरारी भेंटा गईल। मालो जाल करेकेे बेरा बीतल जात रहे। पांच गो बरारी ले हमनी चल देनी।

रास्ता में कय आदमी पूछल मिलल ह कि ना? हमनी कह देनी पानी बेसी रहल हऽ कम होई तऽ मिली आज ना मिलल हऽ। बबलुआ का घरे मछरी बंटाईल। माई का आ बाबूओ का पता चल गईल रहे जे बबुआ गईल बारें मछरी मारे। घरे पहुंचते माई कहली "ले अईलऽ अथरबन-- जा आज बाबू तहार ठीक से हजामत बनईहें। कहां ले तूं छोट भाईयन के ज्ञान बंटतऽ अपनीहीं गलती करऽतारऽ। आज लूकाईए के रहिहऽ।

अब के मछरी बनावे का फेर में बा, पांचुल मे मछरी लूकाके हमहूं लूका गईनी। रात खा जब बाबू घरे तऽ हम बथानी में। ओजनी के दृश्ये अलग रहे ,कुर्सी के चारो गोर चार जगे, टेबुल छितराईल, नोट्स टुकडा-टुकडा ऊहो टुकडा़ कईसन ना मिलल लाॅटरी का टिकट अईसन टुकड़ा -टुकड़ा। छोट भईयवो खूब हंसऽ सऽ आ कहऽ सऽ "स्वाद मिल गईल नू मछरी के? फेर से सब नोट्स जोगाड करे के परल। नोट्स का जोगाड में धनगरहां के उमेश चाचा बहुत मदद कईनी। तब से कवनो काम कुटायमा ना करीं।

एही घटना का बाद मछरी मारल छुट गईल। कुछ दिन बाद खाईलो छुट गईल। अब तऽ चेंवर चांचर पोखरा पोखरी सब सुखले रहऽता। का केहू मछरी मारी।

टुटलका कुरसीया बथानी में आजो एक ओर परल बा। बुझाला जे कहत होखे" तहरे चलते हमार ई दशा भईल।कतना लोग आईल गईल लेकिन हम केहू के बईठा ना पवनी। आखिर तहार मछरियो गईल आ हमरो के जिआन करवईलऽ"।
------------------------
लेखक परिचय:-
बेवसाय: विज्ञान शिक्षक
पता: सैखोवाघाट, तिनसुकिया, असम
मूल निवासी -अगौथर, मढौडा ,सारण।
मो नं: 9707096238

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैना: भोजपुरी साहित्य क उड़ान (Maina Bhojpuri Magazine) Designed by Templateism.com Copyright © 2014

मैना: भोजपुरी लोकसाहित्य Copyright © 2014. Bim के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.