गउवाँ अब, गांव कहाँ रहल - तारकेश्वर राय 'तारक'

गउवाँ अब, गांव कहाँ रहल
बिकाश ना भेटाई एहिजा, सब केहू इहे कहल।

बीरान आ सुन बिया पुरनकी बखरिया
ढहत डगरात देखत बीतता उमरिया।

कटा गईल कुल बाग़ आ बगइचा
कहाँ बइठेके बिछावल जाता दरी गलईचा।

कहाँ अब सुने के मिली पपीहा क पिहकारी
कनवा तरश्ता सुने के चरवहान के टिटकारी।

पहिले उच्छिट गईल चरनिया से बैला
संस्कार बिछला गईल, लउकेला खाली छैला।

ताल, तलैया, चवरां, गड़ही, पोखरा कूल्हे हेराइल
कहाँ भेटाई बिहशत मनई, लउकता मुँह मेहराइल।

पछुवा के चलते फ़ेडन क पात पियराइल
माटी क घर फुटल, छान्हि-छप्पर कुल उधिआइल।

चढ़े के जहाज प तबो रहे सपना
गोड़ रहे जमीन पर, मुहं प ढ़पना।

बोलात रहे माईभाषा, लिखात न लउके
आज ज्ञानी बा उहे जे अंग्रेजी में फवुके।

रहे दुवार खुला, लेकिन रहे मनसाइन
परिवार रहे एके संग, ना होखे किचाइन।

देखि पंचे राजनीत क बिषधर गरेसला बा गावं के
कीच कीच काँव काँव में अझुराइल, तरश्ता छावं के।

गड़हा भर के कच्ची डगरिया त पक्की भईल
टूटत, छुटत, परिवार देख, "तारक" सोंचेले ई का भईल।

लउकत ख़ाली खेते बिल्डर, सड़के किसान, गाड़ी खाँचल
उधिया गइल सबकुछ, खाली पुरखा पुरनियन के नावे बाँचल।

बाट जोहता, गावँ देखता पंचे बड़ा आस बिश्वाश से
औंधिआइल भाग पलटी, ख़ाली रउवा एहसास से।
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लेखक परिचय:-
सम्प्रति: उप सम्पादक - सिरिजन (भोजपुरी) तिमाही ई-पत्रिका
गुरुग्राम: हरियाणा

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