बसंत आ रहल बा - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

ढहत-ढिमिलात, कंहरत-कूंखत बसंत आ रहल बा, अइसन कतों-कतों सुनातों बा। सुनला पर नीमनों लागत बा आ मनो खुस होता। होरी क दिन नगिचा आ रहल बा, मने बसंत त आइये गइल होई। अब मानही के परी, जब कलेंडर के तारीखो बोल रहल बा, फेर न माने के सवाल कहवाँ से। दिल्ली से लेके एन सी आर तक हेर अइली, तबों मन लायक कुछ बात भेंटाइल नइखे।हो सकेला कि दिल्ली के चुनाव के जहर भरल बातिन से घवाहिल भइला के डरे एने आवे में डेरात होखे। राष्ट्रवाद आ संविधान के अझुराहट के सझुरावे में जब बड़-बड़ लोग के पसीना एड़ी से मुड़ी ले चढ़ रहल होखे,उहाँ बसंत के का मुराद?कुछ लोगन के बिरियानी आ कुछ लोगन खाति मरखनी बनि चुकल कई गो जगह अलगे बाति के प्रस्तुति दे रहल बा। अपने घरे में आवे-जाये खाति ढेर लोगन के तकलीफ़ों बा। जहां झूठ-साँच के फरक करे में सारस के मत मरा गइल बा,उहाँ आम लोगन के कनफुजीआइल बड़ बात नइखे। गारी-गुन्नर के बाति छोड़ीं, जहवाँ प्रधानमंत्री आ गृहमंत्री के मारे के बाति नन्हका लइका-लइकी करत होखें, उहाँ बसंत के डेराए वाली बात माने जोग बा। 

अचके खियाल आइल कि काहें न गावें चलल जाव, शहर में डरे बसंत नइखे आ पावत, गावें त जरूर आइल होई। अरे ई का, इहवों कुछ-कुछ उहें वाला हाल बुझाता। कुल्हि टोला -मोहल्ला धूमि अइनी,कतों बसंत के झाँको ना भेंटल। आम के पेंड़ में बउर त लउकत बा, मने ई त बसन्ते में होला। फेर बसंत मानल मजबूरी बा। अब जरी-मनी बुझाये लागल बा कि आजु के जमाना में कालीदास वाला बसंत न भेंटाई। कालीदास के जमाना कुछ आउर रहे, अब तलक त ऊ वाला बसंत बूढ़ा गइल होई, एह घरी ओहमें जवानी हेरल, बुरबकाहिये नु कहल जाई। अब बसन्ते के काहें दोष दीहल जाउ, जवानी के जोश त अब नवहा लोगन में कहाँ बाचल बा?कतों बाचलो बा त ऊ कुल्हि बाउर कामन में अझुराइल बा। 

हवा-पानी आ जाड़ में कुछ बदलाव त देखात बा जरूर बाकि कुछ गड़बड़ बुझात बा। बयार त बदलल बा बाकि ओहमें सुगंध के बात कइल बेमानी बा। बसंत त हर बरिस अपना समय पर आवेला। असवों अइबे करी। मने बसंत बा बाकि ओहमें बसंत वाली बात नइखे। लागत बा कि बसंत के प्रान दुबरा गइल बा। टह-टह अँजोरिया के बात फागुन में भूलल-बिसरल बात लेखा हो गइल बा। कंक्रीट के जंगल में बाग-बगइचा,आम के मोजर में कोइली के कुंहुक, महुआ के कोंचिआइल,ढोलक के थाप आ अलाप सपना के सम्पत लेखा बुझा रहल बा। मने बसंत में जवानी आउर ओकरे रवानी के बात बेमानी हो चुकल बा।देख-सुन के मन में अचके ई बात समा गइल बा कि कहीं बसंत बेमार त नइखे नु भइल। 

बसंत अपने आवे के सूचना बेगर विज्ञापन के कबों देत रहल होई, भा बे बोलवले आवतो होई। अब त लोग कह रहल बा कि बसंत अपना से ना आवेला, ओकरा के बोलावे के परेला। सुनते मन अपने में अझुरा गइल कि के बसंत के बोलाई आउर कइसे बोलाई?अगर कुछ लोग के तइयार कइयो लीहल जाव तबो ऊ लोग काहें के बोलाई? मान लीं कि ऊ लोग बसंत के बोलाइयो देसु, त ओकर सोवागत के करी?जहाँ लोग अपना बूढ़ माई-बाप के घर से बहरिया देता,उहाँ त बोलावे के बात आ फेर सोबागत के बात?ई साँचो पत्थर पर दूब जमावे के बाति बुझाता। 

बसंतोत्सव मनावे के रीत बा त मनावलो जाई। एह देश के मनई रीत आ परम्परा निभावते आ रहल बाड़ें बाकि अब के लोगन में पहिले वाली तासीर कहाँ बाचल बा?नवहा लोगन में होरी के हुलास मने अल्हड़ता आ चुहलबाजी कमें भेंटाला। जेतने बा ओतने में निभावे के बा। बसंत के अगवानी में सुरसती माई के अर्चना त करहीं के बा, त आईं अपनही एगो गीत से शुरू करल जाव-

रूसली भगिया, जगवतु मोरी मइया हो
बीनवा क तार झनकवतु मोरी मइया हो। 
बिरथा जवानी गइल
रवानी भइल बिरथा
बुद्धि बिनु माई मोरी
कहानी भइल बिरथा 
बुद्धिए क सोत बहववतु मोरी मइया हो। 
बीनवा क तार झनकवतु मोरी मइया हो। 

समाज जड़ हो रहल बा, ई बाति सभे मालूमों बा। बसंत जड़ता के बिरोधी ह,ढेर ना त थोर बहुत आपन असर देखावल सोभाव होला। बसंत का अंग-अंग में तरंग भरल, रोम-रोम हुलास भरल सोभाव ह। बसंत प्रेम पियार,मान-मनुहार के उत्सव भा मदनोत्सव भा बसंतोत्सव का रूप में बेसी जानल जाला। अब उत्सव बा त कुछ न कुछ असर होखबे करी। आम मोजरबे करी। अइसना में पगली कोइलियो गइबे करी

पगली कोइलिया काढ़ि करेजा
पियउ के गोहरावेले। 
छीजत राह निहारि कोइलिया
मिलन क आस जगावेले॥ 

कतने दिन में सुधिया आइल
अलम न भेंटल कोख झुराइल 
कइसे मन बसंत अब गाई 
भूललि राग सुनावेले॥ पगली कोइलिया......

बसंत में खिलल धूप , पियराइल खेत-बघार , खिलल- खिलल फूल भलही कम देखात होखे, भलही बाग-बगइचा खेत-सिवान से निकर के बालकनी के गमला में सिमट गइल होखे, बाकि बसंत का असर से उहो ना बच पावेला। चिरई-चुरमुन आजु सपना हो रहल बाड़ें मने संस्कृति के रूप बिला रहल बा। अइसना में एक बेर डॉ अशोक द्विवेदी के इयाद बरियारी से आइये जाला–

गलत कलेण्डर के तिथि लागे
जे देखs ,बउराइल भागे
कोइलरि गइल बिदेस भँवरवा
गड़ही – तीर मगन !!

कवन गीत हम गाईं बसन्ती
पियरी रँगे न मन !!

मन त अपनही में राजा होला, मोका पवते लइकाईं के दिन के ईयाद करल ना भुलाला। सरस्वती पूजा से जवन खुमार गंवही में चढ़ि जात रहे, ऊ एकसुरिए बुढ़वा मंगर ले बनल रहत रहे। रोज सांझी के कूल्हे मंदिरन पर रामायन गवाए लागे आ 5 दोहा पूरा होखते होरी के गवनई शुरू होखत रहे, खूब गवात रहे। ओह रंग में लइकन से लेके बुढ़वा तक ले बरोबर सराबोर होखत रहे। कहलो गइल बा-'फागुन में बाबा देवर लागे, फागुन में'। होरी के गवनई 'खेलें मसाने में होरी दिगंबर, खेलें मसाने में होरी।' से शुरू होके 'नकबेसर कागा ले भागा, मोर संइया अभागा ना जागा' आ 'होरी खेलें रघुबीरा अवध में, होरी खेलें रघुबीरा' से होत 'आज बिरिज में होरी है रे रसिया' जइसन गीतन से गाँव आ शहर दूनों गुलजार होत रहे। लोगन पर साँचो फगुनहट चढ़ि के बोलत रहे। भउजाइन से चिकारी देवरन के संगे भसुर लोग कबों-कबों कर लेत रहे आ केहु एकरा के बाउर ना मानत रहे। बाकि शहरन के छोड़ीं अब त गाँवन में रिस्तन के पहिलकी तासीर नइखे बाचल। अब जइसे-तइसे परंपरन के निबाहल जा रहल बा। त चलीं हमनियों के एगो गीत के संगे एह रीत के निबाहत बसंत के सोवागत क लीहल जाव काहें से कि बसंत आइये चुकल बा-

हमहूँ खेलब रंगवा से होरी पिया 
हमहूँ खेलब रंगवा से होरी॥ 

सासु से खेलब ननदियो से खेलब
अरे देवरा से खेलब बरिजोरी पिया॥ 

हमहूँ खेलब रंगवा से होरी॥ 
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लेखक परिचय:-
इंजीनियरिंग स्नातक;
व्यवसाय: कम्पुटर सर्विस सेवा
सी -39 , सेक्टर – 3;
चिरंजीव विहार , गाजियाबाद (उ. प्र.)
फोन : 9999614657
ईमेल: dwivedijp@outlook.com

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