दिनेश पाण्डेय के आठ गो कविता

पहाड़ में भोर

मेहधुईं पीठ पर भरल, 
चँगुरा में गाँव-घर धरल, 
या कि नीन में भरल गरूड़ अस
सुत रहल पहाड़ झुरमुटन तरे। 
नदी के धार में असंख आसमाँ तरे।

पात-आतपात माथ धर, 
रहि-रहि के तन रहल सिहर। 

बबरी में अझुरवले बर्फ धूरि
ठाढ़ चीड़ के बिरिछ ढलान में, 
कथी त कह रहले साँवरी के कान में।

पुरबाहुत ओत से निकल
ताक रहलि भोर कुछ बिकल।
सूरुज के बेन्दुली लिलार प?
टुप् दनी उजास अस पसर गइल। 
करियकी छाँहि कहीं आन्ह में ससर गइल।

ऐन खड्ड के कगार लग
इकलौता घर बनल सुभग,
तिरछौहीं-आड़ी सुरेख में, 
छितिज के किरमिच पे तिर दिहलस।
चितेरा पाछ में रंग कुछ गहिर लिहलस।
(शब्दार्थ - मेघधुईं- मेघधूम। चँगुरा- चंगुल। आतपात- आतपत्र, छतरी। बबरी- जुल्फ। पुरबाहुत - पूरब ओर। ओत- ओट। बेन्दुली--बिन्दी। किरमिच- कैनवस।)
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बनचीरी 

ए बनचीरी, ए बनचीरी! 
कवन दिसा से अइलू पुतरी?
कवन घिरनियाँ, कथि के सुतरी?

कवन रचावल मंच अनोखा, 
कवन लिखल अनबुझ तहरीरी?
ए बनचीरी, ए बनचीरी! 

केकर अँगुरी डोर लपेटल? 
कवन नटुअवा बाग समेटल?
खेलत डुमकच कवन छबीली, 
आँक रहल सभकर तकदीरी?
ए बनचीरी, ए बनचीरी? 

तिनुका जोरत, खोता सेवत,
दरस-परस, दृग पोंछत-भेंवत, 
हिय के ताप मिटावलि धिअई
चुगत चोंच कीरी-पनजीरी।
ए बनचीरी, ए बनचीरी!

पाँखि झरल पाँजर बल छीजल,
कइसन देह बिधाता गींजल?
मंद परल आसते सकल सुर, 
जिनिगी भरि के तानारीरी।
ए बनचीरी, ए बनचीरी! 

पाँखि पसारे थकन बिसारे,
बोझिल अँखियाँ राह निहारे।
कहीं तान में तुलसी चउरे,
बारल केहू दीप अखीरी।
ए बनचीरी, बनचीरी!
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गिरगिट

सोझ हराई में साजिश के
बुनत रहल बिखबेली जे,
काहे दुन कुछ दिन ले भइया,
बाँट रहल गुर भेली से।

ढलल बयस तबहूँ ना जानसि 
अंतर मुरई गाजर के,
रँहचट में सोना के सपना
आन्हर काढ़सि काजर के।
जेकर बगली फाटल रहुवे
हाथे रखल अधेली से।

जे बघरी में फेंकत रहुवे
सँझहीं से कंकर पत्थल,
अन्हियारे के मत्थे काने
सबद पसारल अनकत्थल।
आजु-काल्हु ना जाने काहे
उलुटे बाँस बरेली से।

जुर्जोधन के मत भरमइलसि
ठकुरसुहतियन के टोली,
जरल जुबाँ कइसे कस माने
भनत फिरस माहुर बोली।
गांधारी के आँखे झोंपा
नीमिया गाछि करेली के।
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एकांत के आलाप

अनबूझे रहल राधा,
जमुना कगरी के 
ऊ मिलन पहिलकी,
पैबस्त बा ओसहीं
अजुओ ले जेहन में
चनन खौरी, रेख रोरी,
दमकत मुख अउ शोख मिरिगा आँखि।

कुछ अँखुवा उग आइलि
ऊसर जमीन में,
कोने-अँतरे से,
जिनिगी के अँउज-पथार से।

अतल अन्हियार से 
बरल रहे कनो जोत
पहिली बेरि।

दुधमुँहे से जुवापन तक
कति अवस्था, कति दशा के फूटन,
हर पुलक प आँखि में उपजल, खखन, 
फिकिर, उदासी, खोबस, 
मन के परगट हुलास, हरख-बिखाद, 
भाव अनगिन
काल के परिहास।
हमरा बदे प्रेम अनजाना तबो रहल।

ना जनलीं,
माई-बाप के दुलार,
सहोदर इरिखा, तकरार में पेहम प्यार।

मयार नंद-जसोदा के आँखि में 
हरमेसे नजर आइल 
बाना धइले दयाभाव अथाह।

लरिकपन के सरबस पाजीपन क सोरि
ई दयाभाव ही रहल राधे,
चोरी, बरजोरी, हँड़िफोरी
सभ खुटचालन के पीछे के इहे कहनी।

कतिनो चहनी 
टूटे छद्म बछल के, 
दुलार के
ललसे रहि गइल, चेहरा प रोस,
दयाभाव-उघार के दिदार के।
कवन माटी के रहलन दुन्नोजन
भाव गोपन के हठी साधक।
चाहत अपूरन रहि गइल
बाकिर मन के का?
ओह अहसास के का?
जे हरमेसे बनल रहल आसपास,
नन्दगाँव में,
बरसाना में,
सगरे बिरज में,
जमुना के कछारे,
गाछ-बिरछ के छाँव में,
गइयन के तरहत्थी चटले निपजल
खुरदरी गुदगुदी में।

एक तुहें त रहलू राधे
जेकर मौजूदगी में कुछ अउरि बात रहे,
तोहर रूप-रंग, देह-गंध, परस, सबद सभ
सिसिर-अगन लहकावल 
समूचे वजूद में,
माटी, पानी, आग, हवा, अकास में
सगरे तूँही त रहलू
नीमन-जबून में,
खाक-बिहूद में,
हमार हम लोपित भ गइल कहर्इं
अमव्सा के चान अस।
एहि तिरन के का नाँव दिहल जाव?
सबद-बंध से परे।

एहिके बान्हे के हर जतन कइले 
छहल जाला,
हर भेव क अंत इहवाँ।

सबद त रूप के, अरूप के परगटन क जरिया ह
दुनो से आन के र्इ का छानी?
पानी में लहर कि लहर में पानी?
बानी में अरथ कि अरथ में बानी?
अइसन चीझ के कउची कहल जाला?
हम तोहसे बिलग कब रहनीं राधे?
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मी टू

ननदी ई गोसा काढ़े, 
झाँझरिया झमकावे, 
काकुल के लहरा प 
लोटऽथई सरपिन।

टहकार टिकुला प 
ढिठई के पन्नी साटी, 
बेहयो के बेहयाई 
चिहुँकल पल-छिन।

कहे के बँवारी अंग, 
अजबे ह रंग-ढंग, 
भतरे के कपरा प 
थोपऽथई तरपिन।

कहिए के लुकाछिपी 
अजहूँ मसाला मेलि, 
ओही में के हमूँ हईं 
गावऽथई कसबिन।
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कतिकी रितु

सुगइया रंग सारी, 
नदी रूपली किनारी, 
भुईं गरबिला मुँह 
आब छितरा रहल।

गाभा भर धान पौध, 
पात-पात चकाचौंध, 
मोतियन लड़ी पेन्ह 
खूब इतरा रहल।

दोरसा उचाट दिन, 
रतिया बदर बिन, 
मनवा के कोने कहीं 
ईरिखा जगा रहल।

ए री सखी का से कहीं, 
कतिना ले पीर सहीं, 
कतिकी ई रितु कौनो
रिकिथी पुँगा रहल।
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गोबर के महादे'

बड़ी रे रकटना से 
गढ़ल महादे' गोईं, 
बइठे देवल चढ़ि 
धइके गहिर ध्यान।

पान-फूल अछतो प 
पलक न खोले बौरा, 
आरजू मिन्नत कइ 
जियरा बा हलकान।

अपने गरज लागे 
छोड़ेले न पैंयाँ दैया,
हमरी गरज पर 
नाधि देले चउगान।

साँसति में लागे भोला, 
फँफरा में बड़बोला-
"चल री बछेरी मोरी 
काँटे-कुशे धाने-धान।"
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सबुज बाग

बस अबकी बेरी अजमाईं।
झाड़ू फेरबि गावाँ-गाईं।
झकझक होखी खोरी-कूचा।
अब ना रहिहें गुब्ची-गुब्चा।
जहवाँ चाहीं टाट बिछाईं।
बोलीं केकर किरिया खाईं।

अबहीं बपसी नीके बानीं।
अपने खालें सानी-पानी।
खाली महतारी लपटइली।
गहना-गुरिया कतो लुकइली।
एही ले थोरिक हिचिकाईं।
कइसे उनुकर किरिया खाईं।

मउगी त बस मउगी बीया।
तेही लेखा बाछी धीया।
दीहीं गारी चाँपीं घेंटी।
कतहूँ ना ऊ बात उघेंटी।
उनुके माथे हाथ रखाईं।

अइले गइले प्रेम बढेला।
मन में बइठल गाद कढ़ेला। 
हितई अब परवान चढ़ाईं।
बैरी लो' के लागे झाईं।
हमहूँ चाभीं रउओ पाईं ।

गली- गली में बनिहें मोरी।
धुरखेली टंटा भा होरी,
केहू ना सकिहें चहबोरी।
कहवाँ जइहनि देह धँसोरी।
मुँह अलगवले सरपट धाईं।

खंदक सभ संडक बनि जइहें।
दुअरे ले फटफटिया अइहें।
फानि के रउओ पीछे बइठबि।
तकिहें लोगे खूबे अँइठबि।
बैरिन के मुँह लागी चाँईं।
हे लीं तबले पान चबाईं।
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लेखक परिचय:-
नाम - दिनेश पाण्डेय
जन्म तिथि - १५.१०.१९६२
शिक्षा - स्नातकोत्तर
संप्रति - बिहार सचिवालय सेवा
पता - आ. सं. १००/४००, रोड नं. २, राजवंशीनगर, पटना, ८०००२३



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