देवेन्द्र कुमार राय के अठारह गो कविता

अजबे भइल बा भाव

आजु हमरे शहर हमरा से अन्जान लागता
जमनी जवना अंगनवा अब उहे मशान लागता
पीपरा के पात जस कांपता मन का हम कहीं
लोभ में लसराइल आजु सभके परान लागता।

नीत राजनीति सभ बालु के भीत भइल
सभे लालच के लार के मशीन लागता,
आस बिसवास खास केहू के ना पास
अपने घरवा ई अपने में हीन लागता।

खासे में खास केहू खासमखास लउकता
आजु उहो दुनिया में बड़का दीन लागता,
धोखा के सोखा अनोखा ई दुनिया बा
छल के जे मोटका बा उहे मेहीन लागता।

अजबे भइल भाव ना लउकता नीक ठांव
सगरो आन्हार भकसावन डहर लगता,
अपने जमलो प अब ना बिसवास बांचल बा
देखि दुनिया के रीत अब अपने से ड़र लागता।
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हमरा के कहे लोग

हमरा गरीबी के लोग अमीरी के बाजार कहेला,
पढ़ल बानी बाकी लोग हमरा के गंवार कहेला।

नियोजित हईं हम दुख केकरा केकरा से कहीं,
हमार हाल त शासन के हर अखबार कहेला।

छुंछे पीके आखर पानी कसहूं दिन बिताइला,
तबो एह पानी के छप्पन भोग सरकार कहेला।

जेकरा खातीर छछनि छछनि के उमीर गंववनी,
आजु उहे सरकार हमरा के बेकार कहेला।

एक जुग से भूखे रहिके हम जेकर बोझ उठवनी,
आजु उहे हमरा के दुनिया खातीर भार कहेला।

कतनो नीमन बात बताईं सुने प नइखे केहू तैयार,
उ सोमार के एतवार आ एतवार के सोमार कहेला।

कोर्ट कानून कहे कि ई पढ़ल लिखल हवे,
बाकी जाहिल अनपढ़ राय ई दिल्ली सरकार कहेला।
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जीनीगी के टेम्ही

जीनीगी के टेम्ही सेराए लागल।
हरिअर भभकत रहे
एकदिन अंखियां के खेत,
बिगहा लउकता अब
उहे गढ़हा समेत,
अब त ढिबरी के बाती,
ओराए लागल।
जीनीगी के टेम्ही सेराए लागल।

डालीं कवनो हम तेल
पेट के टंकी बा फेल,
गाडी़ बढी़ ना आगे
चाहे कतनो तुं ठेल,
भूख के चूल्हा के पूता,
नोनीआए लागल।
जीनीगी के टेम्ही सेराए लागल।

देहिं के गाडी़ के चाका
हिलत नइखे,
हावा कतनो बा बल
अब मिलत नइखे,
बढ़ते तनीए सा आगे,
अझुराए लागल।
जीनीगी के टेम्ही सेराए लागल।

आज भइल जब भोर
अचके मचल हाडा़होर,
केहू चुपचाप खाड़
केहू के बहत रहे लोर,
कंचन काया त आगि प,
धुंआंंए लागल।
जीनीगी के टेम्ही सेराए लागल।
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अबिसवास के बोरसी

बुराई के बोरसी में आजु सभकेहू पाकता,
सवारथ के खिरीकी के लुबु लुबु झांकता।

बाते के फेन में फेनाइल रहे लोग,
झूठ के चबेनी के दरेरि के लोग फांकता।

बतंगड़ के लबदा फेंकाता चारू ओर,
धोखा के झाटाहा से केहू नाहीं बांचता।

सुखवा के सेज प त सभे बा संघाती,
परल तनी काम त लुत्ती लेखा भागता।

बाहबाही के बांहि त सभे फैलावता,
दुखवा के भुभुरी त केहू नाहीं आवता।

छल के मउरी से हर माथ सजल बा,
फोकट के फल खातीर चारू देने धावता।

अपना मड़वा में गीत भुआ भइल बा,
दोसरा के मड़वा में गीत कुदि कुदि गावता।

सभ डार्हि सुखाइल सच्चाई के दुनिया में
त अबिसवास के बोरसी में सभकेहू पाकता
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माई

माई के आंचर बिना सगरो आन्हार बा,
माई के नेह सोझा बेद ग्यान बेकार बा।

माई के अंचरे ह जीनीगी के कुल्हि कौलेज,
गोदिए के झूला में दुनिया के सभ नौलेज।

कतनो पढा़ई करब एह दुनिया में घुमि घुमि,
ओहसे जादे माई देली माथवा के चुमि चुमि।

खंखरी पताई सभ माई के नेह बिन,
सभ धन अछइत लुआठी लागे सभ दिन।

माई के थपर बिना कहां केहू तरल बा,
जेकरा ना मिलल ई जियते उ मरल बा।

माई के पियावल दूध के केहू नाहीं भेदी,
ब्रह्मा बिसुनु महेशो के तीर छाती नाहीं छेदी।

माई के ममता कवच ह तीनो लोक के,
भीरी कइहें दम नइखे जीनी में शोक के।
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हमरा इहे बुझाला

बहकल जेकर नजर बा उ बहकले रही,
मन कतनो सकोरी बाकी सहकले रही।

जे हरदम तउल के बोलत रहेला,
कही कुछऊ उ बात त फटकले रही।

गलत भइला प जेकर रोवां रोवेला,
देखिके दुनिया के रुप उ सटकले रही।

दुख दोसरा के देखि के भभरि जाला हो,
सभके साथे उ मिल सभ समेटले रही।

मिले सभका के सुख जे ई सोंचेला,
मन के कोरा भलाई उ सहेजले रही।

जेकरा अपना के छोडि़के फिकिर ना रहे,
राय कबहीं उ आन्हार में लटकले रही।
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भारत के लोर

का कहीं कहल जात नइखे
कहला बिना रहल जात नइखे।

आजु देखीं सभे शिक्षा के आधार,
कइसे नैतिकता हो गइल किनार।

परहिर के छींट कहसु लागे बडी़ फीट,
ई सभ हमरा सोहात नइखे,
का कहीं कहल-------रहल जात नइखे।

आजु बदल गइल बा सभके परिभाषा,
सभके कपार प चढ़ल पछीम के नाशा।

बाबुजी कहले छोड़ एह पछीम के आस,
इहे धन्धा रही त हो जाइ बिनाश।

बबुआ लोग के इ सभ बुझात नइखे,
का कहीं कहल------रहल जात नइखे।

कइसन हिन्दी, कइसन संस्कीरीत
कहसु बड़ अझुराइल भाषा,
अंगरेजी के करसु बडा़ई 
आ बाबुजी.के कहसु पापा।

बाह रे पछीम ,बाह रे भाषा कइसन इ चतुराई,
माई भाखा छोडि़ के बबुआ हो गइले खंटाई।

का कहीं एही सोंच से भारत चली,
ई हमरा बुझात नइखे,
का कहीं कहल----------रहल जात नइखे।

बेद पुरान के सुन, राष्ट्र प्रेम के भाव जगाव,
छोड़ पछीम के आस हिन्दुस्तान के लाज बचाव।

आपन देश ह आपन माटी, अपने ई कहाइ,
का कहीं आगे कुछ कहात नइखे,
का कहीं कहल-----------रहल जाज नइखे।

हाय,बाय के छोडि़ छाडि़ के,
माई भाखा के खाल मिठाई।

कवि देवेन्दर आस लगवले,
माटी तब सोना हो जाई।

ई पछीम के लंगा तनिको लजात नइखे,
का कहीं कहल----------रहल जात नइखे।
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फरीछ भइल फिफीहिया

खरकटल खरवरिया से, अब भराता रोज गिलास,
कतनो सहोरी अंकवारी में, बा ना केहू खास।

रात रकटल भोर भटकल, दुपहरिया अगराइल बा,
गधपुरना के गढ़ लिखाइल, भइल महल के नाश।

मेहनत के मथनी मुरुकल, ग्यान के गगरी चटकल बा,
फरीछ फिफीहिया बनिके फेंकरे, होता गजब आभास।

उठल बंडे़रा सोंच के, फफकत फारत आइल,
पतई पतई भइल नापाता, अइसन बहल बतास।

जेने देखीं सभे खोजे, जाने हीरा रतन हेराइल बा,
पांजारा के बोरसी केहू ना देखे, तापे सभे आकाश।

सभ्यता के सांप डंसलसि, संस्कार गइल मुरुछाइ,
जेनहीं ताकीं ओनहीं लउके, मानवता के लाश।
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लुआठी

करिके दोश बाडे़ खमोश
निर्दोष के देले खोरना खोंस,
लाचार हताश बा सच्चाई
कर्मठ लउके हरदम बदहोश।

खुन पसीना से बेवहार जे बोवल
करम से अपना जीनीगी जे ढो़वल,
ओकर चूल्हा चऊकी सेराइल
हकछिनवा लउके दूध के धोवल।

कतनो रोईं चाहे कतनो धोईं
चाहे सांचे सांच बात बताइ,
ना केहू सुने ना केहू गुने
हमरे सभे दोष गिनाइ।

हमरे बोअल सइंचल ह
आजु हमरे चरकल खाटी,
हमरे सुतरी से सेज सजा के
हमरे प फेंकसु जरत लुआठी।

भिन्न कहीं कि अभिन्न कहीं
चेतन कहीं कि अचेतन,
भरम से भरल बा दुनिया
निरोग रही कबहीं ना मन।
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ए बचवा सुन

ए बचवा सुन
अपेक्षित आ उपेक्षित के
रात में पढ़ लीह टंच से,
काल्हू एकरे के दिन में पढे़के बा
शपथग्रहन के मंच से।

ए बाबुजी काल्हू ना पढे़ आइ त
बिलार जस मति खिसीअइह,
जहां केहू कुछुओ कहल त
तुं आपन असली रुप देखइह,
चुप बकलोल ई का कहले
अइसन जाति जाति चिचीआइबि
कि हमार सभ जाति खलबला जइहें,
राज्यपाल के अइसन मगज खराब होई
कि उ खाढे़ मंच प पगला जइहें।

कहसु कवि देवेन्दर हो सकेला ई बात
कुछ जाति बिसेस के बाउर लागे,
बाकी इहो हो सकेला कि
पढ़ल लिखल के कुछ आउर लागे।
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महंगाई

महंगाई अइसन कइले बा बेहाल,
कि नुन रोटी हो गइल मोहाल।

माई के दूध सुखल बचवा के अंतडी़
हमरा.कमासुत के झुरा गइल गतरी।

आगे बुझात नइखे होइ कवन हाल,
कि नुन--------------हो गइल मोहाल।

दर्जन में दाल मिले सुंघे के तरकारी,
केहू बुझत नइखे हमरो लाचारी।

अब ना कहाए एह सवतीन के हाल,
कि नुन--------------हो गइल मोहाल।

सुनी सभे हमरो दरद के कहानी,
कइसे बिताईं भूख छूंछे पीके पानी।

सुखि गइल मेहरी के फूलल फूलल गाल,
कि नुन रोटी हो गइल मोहाल।
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तिलक दहेज

करबि बिआह बाकी लेबि फटफटिया।

मैट्रिक पास माटी के घर
एको चउकी ना दुअरा पर,
बेटिहा के करेले इहो दुरगतिया
करबि बिआह------लेबि फटफटिया।

बीए पास ईंटा के मकान
बेटा बडुए पुलिस के जवान,
दुअरा प बान्हल एगो गाय करकटिया
करबि बिआह-----लेबि फटफटिया।

एम ए पास के मति पुछ बात
तिलक मांगसु पांच लाख,
बइठे बडुए ना टुटल एको खटिया
करबि बिआह-----लेबि फटफटिया।

बेटहो एकदिन बेटिहा होइहें
उहो दोसरा के दुअरा जइहें,
बेटहा के बाउर लागी देवेन्दर के बतीया
करबि बिआह------लेबि फटफटिया।
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कइसन सवारथ

धन त धन होला कफन बंटाता
गोतीआ के सलाह प बीचे फराता,
मरल देंहि कइसे जरी केहू ना पूछे
हमर कतना मिली अब इहे जोडा़ता।

सवारथ के आगि में झुलसल 
कइसन हो गइल दुनिया कपटी,
पेवन लागल आइल कफन के
हो गइल अब छीना झपटी।

जियत ना मिलल लोटाभर पानी
अब पीपर में जल ढरकावत बाडे़,
जीनीगी भर झोकले धूर आंख में
अब खाढे़ जल चढा़वत बाडे़।
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लिखात नइखे भोर

सुरुज के ललकी सियासी से
लिखात नइखे भोर,
कतनो दिल में दीया बारीं
लउके ना अंजोर।

रात में रतौन्ही भइले रहे
दिनवो में दिन्हौनी भइल बा,
अइसन घेरलसि घोर अन्हरिया
कि मनवा हो गइल थोर।

जेकरा भीरी जतने अन्हरिया
ओतने फरीछ बुझता,
जेकरा मन के सुरुज ना डूबल
आजु उहे बडुए चोर।

ठकुर सुहाती बात जे करे
ओकरा से नीमन केहू ना,
पइंच फटक के बात जे करे
केहू ना ताके ओकरा ओर।

जीनीगी मोन्हा मौनी भइल
देखिके एह दुनिया के रीत,
मन मोरवा के पांखि नोचाइल
अब कंहरे राय के पोरे पोर।
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केहू आइल बा

अपना गाँव में कतहीं
आवाज फेरु आइल बा,
लागे तिरंगा में लपेटाइल
खास केहू आइल बा।

हलफा उठल बा राहि में
सभे धावल काहे ओने,
कहल अचके में इ केहू
देख ना वीर आइल बा।

केहू के राखी केहू के आस
काहे रोज अइसे आवता,
केहू के मांगि के सेनुर 
लागता फेरु पोंछाइल बा।

लड़त देश के खातीर
लगवले जान के बाजी,
भरि ताबुत सेना साथ में
केहू के लाल आइल बा।

लगवले दाव प जीनीगी
चल चलिके त देख,
सिसकत अंखिया के लोर से
राय बिदाई दिआइल बा।
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सुसुकत नदी

रहे पानी जबतक हमरा में
सभ तन धोके सिंगार कइल,
जल आंचर में मुंह पोंछि के
के ना हमसे प्यार कइल।

लचकत कमरिया जब तक रहे
पानी के तन हिल हिल बहे,
अइसन रहे सुघराइ एकदिन
कवन सोनभद्र ना अलबत्त कहे।

जलप्रपात जस जोबन प
सभ प्रेमी डीठ गड़वले रहन,
बहत जल के अंकवारी में
सभ आपन हीक मिटवले रहन।

तन वसन जस पानी सुखल
अब लगे ना केहू आवेला,
जेकरा प नेह में रहीं नेवछावर,
अब उहो जीभ बिरावेला।

सभके चढ़ल जवानी ढरकी
कड़गर चाम जरुरे लरकी,
भइल उतान जीनीगी में छोड़
बल के ढेरी एकदिन भरकी।
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ठूँठा पीपर

रहे जबाना हमरो एकदिन
जब लहकत हावा भीरी आवे,
कर हथजोरी अउर चिरौरी
छांह खातीर देंहि दबावे।

एहवाति से रांड़ हो गइनी
पतई झरल खोंखड़ भइनी,
जेकरा खातीर आपन रहीं
ओकरे खातीर गैर हो गइनी।

घाम में अतना हिम्मत ना रहे
हाथ जोडि़के उ रास्ता मांगे,
हमरा से लेके उ आदेश
तबे राहि प आगे बढे़।

चिरईं चुरुंग के गाँव रहीं
जरत प्रकृति के छांव रहीं,
समय गुजरल भइनी ठूँठ
सभके खातीर भइनी झूठ।

जांगर थाकल का हम बघारीं
अब त खडा़ चुपचाप निहारीं,
शीतल करेके समय बीतल
राय रोवे अब ठूँठा पीपर।
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गरमी

गरमी गरम बना लहकता,
चिरईं चुरुंग सभ मरता।

अइसन चलता ता गरम हावा,
खडे़ देंहि भइल बा लावा।

खाएक त रुचिआते नइखे,
अब खाईं का बुझाते नइखे।

घर भइल बा बोरसी जइसन,
लहके देंहि करसी अइसन।

पंखा के हावा से लागे लुक,
अइसन लागे तन जाइ सुख।

सभ हरिअर मउराइल बा,
पछेया से सभे झुराइल बा।

खाए में करे सभ आनाकानी,
मन मांगे खाली ठण्ढा पानी।

सउंसे भारत भइल बेहाल,
कहे का राय गरमी के हाल।
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लेखक परिचयः
जमुआँव, पीरो, भोजपुर, बिहार









मैना: वर्ष - 7 अंक - 117 (जनवरी - मार्च 2020)

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