चौपाल - विवेक सिंह

चईत के महीना रहे। फेंड़-पौधन में फूल-फर आकार लेवे लागल रहन। खेत से पाकल फसिलन के कटनी का बाद खरिहानी मे टाल लाग गइल रहे। फर से लदरल बाग आ अनाज के टाल से सजल खरिहानी देखि के किसान के मन मे जेतना ख़ुशी, जेतना आतमबल के संचार आ आपन कर्म प अभिमान होला ऊ उनुकर लिलार के चमके देखिए के बूझा जाला।

एहू से अनघा ख़ुशी देवंती के मन मे आपन बेटा लाखन के देखि के होखे। देवंती लाखन के बेरि-बेरि बोलावस बाकिर लाखन अपना संघतियन संगे नीम के छाँहि में गुल्ली-डंडा जमवले रहन, उनुका ना माई के आवाज सुनाई देवे ना दोसर कोनो काम के फिकिर होखे। थाक-हार के देवंती खुदहीं उनुका पास गइली आ उनुकर हाथ पकड़ के जबरजस्ती संगे लेआवत बोलली- " का रे, तोरा स्कूल नइखे जाएके, दस बजे जा रहल बा आ तू अबहीं ले गुल्ली-डंडा में अझुराइल बाड़े? आरे, आदमी बन आदमी। तनी पढ़-लिख ले, ओ से ज़िनिगी सुधर जाई। आज तोहर बाबू रहिते त ते एतना अवारा गरदी ना करते।"

लाखन आपन हाथ झटकि के देवंती से छोड़ा लिहलें आ दूर भागि के मुँह बिरावे लगलें- "ना जाएम, ना जाएम, हम पढ़े ना जाएम माई! पढ़-लिख के का होई? नूतन काका आ मंगरू काका कहत रहे लो' कि लाखन, पढिके का करबे? तोर बाबू के जवन ज़मीन-जजात बा ऊ सब त तोरे ह? ऊ कहिया कामे आई? अरे लाखन, आराम कर आराम।"

एतना कहिके लाखन भाग गइले। देवंती के मन के सारी ख़ुशी छोभ आ दुख के रुप मे तब्दील हो गइल आ आँखि के राहे लोर बन के टघरे लागल। ऊ आपन करम आ नसीब के कोसे लगली।

अब देवंती के मन में ई सवाल खुद-ब-खुद तन के ठाढ़ भ गइल रहे कि आखिर ई समाज चाहता का? एहि समाज के, आपन जीअल जिनिगी के अनुभव आ सीख से, बिकास का राह दिखावे वाला बुजुर्ग समूह के का इहे फर्ज ह कि कौनो अनाथ के गलत दिशा में ढकेले के उत्जोग करे, ओकरा के कुटिल बुध्दि के सीख देवे? का समाज के भूमिका आ दायित्व इहे ह? हे भगवान, ई लाखन कवनि राहे जाता? आज एकर बाबू ज़िन्दा रहते त ई दिन ना देखे के परित। आखिर, इंसान इंसान बदे काहे कुभल सोचत बा? आन त आन, आपनो कहाए वाला जब अहित सोचे त का होखी? आज हम मंगरू आ नूतन से बेगर पूछले ना रहब, खुद त दुनिया भर के अवगुन से भरल बा लोग आ चलल लोग लाखन के बिगारे।

एने लाखन मंगरू आ नूतन भिर आके सारा किस्सा सुना चुकल रहन- "जानत बाड़ काका, माई हमरा के जबरी पढ़े भेजत रहे , हम भाग अइनीं हँ।" मंगरू के चेहरा प संतोख के हँसी रहे।

"ह्ह्ह्ह्... ठीक कइले, आरे पढ़े-लिखे मे कुछो नइखे, चुप-चाप तें एजा बइठल कर, हमनी के तोरा के बहुत कुछ सिखा देमजा।" नूतन अपना टेंट से खैनी के डिबिया निकाल के लाखन का ओरि बढ़ावत कहलन--"हई ले खैनी , तनी बनाउ त हमनी खातिर।"

" काका, हमरा बनावे ना आवे, कहईं चूना ढेर हो जाई त तू लोग हमरा के मारे लगबs।"

" आरे बुड़बक, लाव हेने आपन तरहथी।" मगरू अंदाज से खैनी-चूना निकाल के लाखन के हथेली प ध चुकल रहन आ मले के रीत बतावे में मसगुल रहन। ऐन इहे ऊ बखत रहे जब देवंती आ धमकली, ई बात लाखन के कनपट्टी प जोरदार चमेटा पड़ला के बादे समुझ में आइल। ओकर हथेली प पड़ल हाथ के झटका से चूना सानल खैनी के महीन बुरादा तिनहुन के आँखि मिचमिचावे लागल। लाखन थप्पड़ के चोट आ गलती पकड़ला के बोध से रोए लगले। एने देवंती नूतन आ मंगरू प बेभाव के सुरू रही- "जा हो करमजरू बेसरम लोग, कहवाँ हम तहनी लोग के आपन समुझत रहीं, आज मालूम पड़ल कि आपन केहू ना होला। गोतिया-देयाद, भाई-पटीदार सभ बनले के संहतिया हवे तनिका सकेता में पड़ते आपन असली औकात देखाइए दिहें। आरे, लाखन के बाबू तहरा लोग के साथे कबो अइसन कइले रहले? कवनि जनम के बदला लेत बाड़ तोहन लोग, ई हम नइखीं समुझ पावत। तहरा लोग के नरको मे ठिकाना ना मिली जे हेह अबोध के नाँसे प पड़ल बाड़ऽ लोग। कवनों दुसमनी निकाले के बा त हमरा से निकालऽ लोग, ई मासूम तोहन लो' के का बिगडले बा, जे एकर भभीस खराब करे में लागल बाड़ऽ। एसे ना त तोहनी के कुछ भेंटी ना गाँव-समाज के कुछ भल होई। विनाश होई विनाश!"

देवंती आजु पूरे रौ में रही- "केहू से बैर काढ़े खाती ओकर आगे के पीढ़ी खराब करबs त तहरो अगिला पीढ़ी ओही आँच से खाक हो जाई। कमजोर नेव पे बनल इमारत जादे देर ठाढ़ ना रह पावे। एगो बिगड़ी त सब दूसित होखे से ना बँचिहें, विकास राहि से भटक जाई आऊर पूरा समाज के पतन हो जाई। संभल जा तोहन लोग। अपना साथे-साथे आपन परीवार और समाज खातिर भी कुछ करअ लोग! हम एगो औरत होके ई सब कहत बानी, अगर हम अपना पे आ जाई त बहुत कुछ हो जाई.. आज के बाद हमरा लाखन के कुछो बुरा, भला सिखइबऽ लोग त चेता देत बानीं कि आगे जवन होई ऊ नीक ना होई। "

नूतन और मंगरू आपन शैतानी के पकड़इले अगतहीं से झेंप आ अपराध बोध से ग्रस्त रहलें, ते प हतहत उद्बोधन से निपजल साँच के आँच में उनुकर कलुषता झोंकर गइल रहे। देवंती के हई रौद्र रूप के अंदाजा ओ लो' के ना रहल कबो। गलती के एहसास के संगे दृढ़ धमकी से उपजल डर उनुका लो' के देवंती से माफी मांगे प बेबस क दिहलस। देवंती के मुँह प सच्चाई आ विजय के जोत रहे। ऊ लाखन के हाथ धइले अपना घर का ओरि चलल जात रही।

एह घटना के बाद के दिन रहे। धुलल-पुँछल स्कूल ड्रेस में पीठ प बस्ता लदले लाखन ओही राहे चलल जात रहन। नूतन आ मंगरू के जुगल जोड़ी पहिलहीं जस हुँहवे बइठल रहे। लाखन प नजर पड़ते दुनहुन के नजर नीचे झुक गइल ना पता सरम से, पछतावा से कि आपन गलती के अहसास से।
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लेखक परिचय:-
पता: पंजवार सिवान
संप्रति: किसान






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