विश्वनाथ प्रसाद ‘शैदा’ के दू गो कविता

करे के ना चाहीं

खुशामद केहू के करे के ना चाहीं
कहीं बात वाजिब डरे के ना चाहीं।

जवन बात सपनो में दे दीं केहू के
त बजरो के परले टरे के ना चाहीं।

रखीं जे अमानत केहू के ऐ ‘शैदा’,
त ताखा दियानत धरे के ना चाहीं।

पसेना के अपना कमाई उड़ाईं,
मगर खेत अनकर चरे के ना चाहीं।

कोई ताल ठोके त ठोकीं, हटीं मत,
मगर धुर में जेवरि बरे के ना चाहीं।

बने के ना चाहीं बेपेनी के लोटा,
कोई काम खोंटा करे के ना चाहीं।

झुलत सुख के झुलुहा प देखी केहू के,
बिना आगि-काठि जरे के ना चाहीं।

बनीं जे खेवइया त मझँधार में फिर,
बुड़ा सभ के अपने तरे के ना चाहीं।

जियल सान से मोल ह जिन्दगी के,
कुकुर अस जिए आ मरे के ना चाहीं।
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रहलीं करत दूध के कुल्ला

रहलीं करत दूध के कुल्ला
छिल के खात रहीं रसगुल्ला
सखी हम त खुल्लम खुल्ला, झूला झूलत रहीं बुनिया फुहार में
सावन के बहार में ना

हम त रहलीं टह-टह गोर
करत रहलीं हम अँजोर
मोर अँखिया के कोर, धार कहाँ अइसन तेग भा कटार में
चाहे तलवार में ना

हँसलीं, चमकल मोरा दाँत
कइलस बिजुली के मात
रहे अइसन जनात, दाना कहाँ अइसन काबुली अनार में,
सुघर कतार में ना

जब से आइल सवतिया मोर
सुख लेलसि हमसे छोर
झरे अँखिया से लोर, भइया मोर परल बा 'शैदा'-मझधार में
सुखवा जरल भार में ना
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