जयशंकर प्रसाद द्विवेदी के सात गो कविता

बुड़बक आ बकलोल

बुड़बक आ बकलोल
बोलत बिरही बोल
बेगइरत बा निपोरत खीसी
बुझs बबुआ गदह पचीसी॥

एक के बाबू,एक के माई
दूनों बेकल, धाई-धाई
दूनों के बा डिब्बा गोल
केने जइहें खबर नबीसी॥
बुझs बबुआ.....

दस-पाँच बीतल दूनहुं के
कुछ नइखे नीमन सुनहुं के
दूनहू मे बा लमहर झोल
झारत फिरत चार सौ बीसी॥
बुझs बबुआ.....

उलटा सीधा बात बखानत
झूठ साँच एकही मे सानत
गठजोरिया बा बनल भकोल
अबकी बेरी झरी बतीसी॥
बुझs बबुआ.....
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देखs कवि जी इतरा गइलन

नेपाल घूम के का अइलन
देखs कवि जी इतरा गइलन॥

अब रोज बकैती झारेलन
सगरों गियान बघारेलन॥

का एकबचन का बहुबचन
सब घोर घार के तारेलन॥

अपने लुगरी अपने लकड़ी
संग मे फोटू खिंचवा अइलन॥

मुँह बिजुकावें सुनि लोकराग
चमचन के संगवे भाग-भाग॥

आपन महिमा अपने गावें
पकड़ि पाँव भौकाल बनावें॥

जब पड़ल काम शमशेरन से
मुँह आपन नोचवा अइलन॥

मोबाइल के जब चलन बढ़ल
एडमिन बनला के भूत चढ़ल॥

अब ग्रुप बनवा के अकड़ेलन
सब हाथ जोरि के पकड़ेलन॥

मगरू झगरू के फेरा मे
चलती बेरा ढिमिला गइलन॥
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भाषा के खातिर तमाशा

इ भाषा बदे ही तमाशा चलत हौ
बिना बात के बेतहासा चलत हौ
इहाँ गोलबंदी, उहाँ गोलबंदी
बढ़न्ती कहाँ बा, इहाँ बाS मंदी।

कटाता चिकोटी सहाता न बतिया
बतावा भला बा इ उजियार रतिया
कहाँ रीत बाचल हँसी आ ठिठोली
इहो तीत बोली, उहो तीत बोली।

मचल होड़ बाटे छुवे के किनारा
बचल बा इहाँ बस अरारे सहारा
बहत बा दुलाई सरत बा रज़ाई
न इनके रहाई न उनके सहाई।

भगेलू क इहवाँ बनल गोल बाटे
सुमेरु क उहवाँ बनल गोल बाटे
दुनों के दुनों ना भगीरथ कहालें
सभहरे क दुख देख गंगा नहालें।

घरे मे इहाँ पे उठल बाS हल्ला
इहाँ हउवन जुटल लखेरा निठल्ला
कबों बुनत बाना,कबों मार ताना
कहीं निगहबीनी कहीं बा निशाना।

करीं काम भाषा क होवे बड़ाई
शुरू होत जमके लिखाई पढ़ाई
इ भाषा बनै सिरजना कै निशानी
सँवारे सही से सभेके जवानी।
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हो हमरा बनल रही भौकाल

केनिओं थूकब केनियों चाटब
चलब कुटनियाँ चाल।
हो हमरा बनल रही भौकाल॥

दिन के रात, रात दिन बोलब
झूठ के भोरही गठरी खोलब
लूटब रहब निहाल।
हो हमरा बनल रही भौकाल॥

जात धरम के पाशा फेंकब
तकलीफ़े मे सभका देखब
बजत रही करताल
हो हमरा बनल रही भौकाल॥

कुरसी के बस खेला खेलब
सभही के आफत मे ठेलब
होखी बाउर हाल
हो हमरा बनल रही भौकाल॥
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मेहरारू आउर पिंजरा

रोज पिंजरा मे दरद सहत
टूटल हियरा जोरत
ओकरे पीर ढोवत
डहकल परान
फतिंगा नीयन बुझानी मेहरारू।

उ मनई रहे
जवन आकास त दिहलस
बाकि पतंग के डोर
अपनही पकड़ के राखस
मेहरारू बुझेनी ओकरा
आपन घर आउर घरौंदा।

उ मनई रहे
जवन बेदरदी नीयन
रौंद के मुस्किया दिहलस
मेहरारू सोचत रहे
खुलल आकास मे उड़ल।

उ मनई रहे
जवन काट दीहलस
ओकर पांख
बन्द क दिहलस ओकरा
पिंजरा मे।

मेहरारू बन्द पिंजरा मे
सातों जनम इहवें पूरा करेलीं
फेरु सोचेलीं उतारल बोझ
तब सोचेलीं अपना के निखारल
चाहेलीं उड़ल तितली नीयन
चाहेलीं सुख चिरई लेखा
बाकि उहो चाहत मरि जाले
ओही पिंजरा मे।
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मरिचाई

मरिचाई लागेले
छुवला पर कबों-कबों
बेछुवलो लागि जाले
बेछुवल लागल मरिचाई
ढेर दिन ले छछराले
का जानि काहें
ई लगियो जाले
कुछ लोगन के।

बुझाये लागेला
दोसरो के
बाकि जेकरा साँचो लागल रहेले
उ कहियो ना पावेला
आपन दरद आउर पीर
ओकरा चीसत देखि
ढेर लोग मुस्कियात रहेले
कनखी मार के।

भलही आपन लूर
एकहु कउड़ी के ना होखे
डींग हाके मे सभेले आगे
अलगा जाये आ देखावे के फेरा मे
निकलुवा अस हो जाला
तबों घुमची अस अपना
ललछौही निरेखत रहेला
जरलकी करियई से निभोर होके।

अपने गुरुरे आन्हरन के
ढेर लागेले मरिचाई
अब मरिचाई लागल बा
त परपराइबो करी
टीसबो करी
फेर खजुली ना होखी
त का होखी
कुछ के इहे सुख बा।
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खोरी में

हिन्दी हिन्दी उहो क़हत हौ
हिन्दी गाई खोरी में।
कबले बनी राष्ट्र के भाषा
न कबौं सुनाई खोरी में॥

भाषा विकास के कूल्हि रूपिया
भेंट चढ़ाईं खोरी में॥
हिन्दी ला बस काम करी ना
बात बनाई खोरी में॥

उत्तर से दक्खिन के जतरा
घूम रहल बा खोरी में।
पोता रहल बा करिखा सगरों
फेसबुकियाई खोरी में॥

आपन काम बनावे खातिर
बात बनाई खोरी में।
झूठ मूठ के करिया उज्जर
खूब फैलाईं खोरी में॥

मलाई वाली कुरसी खातिर
गैंग बनाई खोरी में।
थेथरई के नवका चक्कर
खूब चलाई खोरी में॥

साँझ अवध के सुबहे बनारस
फेर बताईं खोरी में।
भोजपुरी आ अवधी वाला
लूर सिखाई खोरी में॥

राजभाषा के राष्ट्रभाषा क
ताज पेन्हाई खोरी में।
हिन्दी बने विश्व के भाषा
जुगत लगाई खोरी में॥
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लेखक परिचय:-
नाम: जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
संपादक: (भोजपुरी साहित्य सरिता)
इंजीनियरिंग स्नातक;
व्यवसाय: कम्पुटर सर्विस सेवा
सी -39 , सेक्टर – 3;
चिरंजीव विहार , गाजियाबाद (उ. प्र.)
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