दिनेश पाण्डेय के पंद्रह गो कविता

हुत्तू तुत्तू

जोत-कोड़, हेंगी, घसियारी,
माँटी भुरकुस, चौरस क्यारी,
खादो देनीं, पनियों देनीं,
काहे निपजल खेत मरेनीं?
कइसे राज चली हो नत्थू?
हुत्तू तुत्तू।

राजा-राजा खेल कबड्डी,
दुनो गुइयाँ, एके चड्डी,
जाता चोरवा बोल पढ़ावे,
अगल-बगल अस्तीन चढ़ावे,
चले दिखउआ गुत्थमगुत्थू,
हुत्तू तुत्तू।

कवन गने घट पीपर झूले,
सटकल साध बनेचर हूले,
रकत पिसाची कोन-भँडारे,
रह-रह बान अगिनिया मारे,
उल्टा पाठ पढ़े अवधूतू।
हुत्तू तुत्तू।

ओका-बोका अलबल बानी,
नीमन लो के माथ पिरानी,
खनक सेन्ह प बिरहा गावे,
सिर धुन घरुआरी पछितावे,
के-के बनिगा बज्जरबट्टू?
हुत्तू तुत्तू।

बीड़ी दे दीं, पानो दे दीं,
थूके के पिकदानों दे दीं,
अबहीं हाथ सकेता बा से,
धोती कुरुता कवन अवाँसे?
कोरे गउँछी बान्हीं सत्तू।
हुत्तू तुत्तू।
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इआ के गठरी

बूढ़ी इआ तूनेली कपास।

कज्जल झँपोलिया से गठरी निकासि लेली,
पुरबारी ओसरी भि' चदरी उकासि देली।
खुले लागल मद्धिम उजास।

नीलही चदरिया पऽ पैरेली भुचेंगनी।
रुइया के फहवा-सी फूटेली तरेंगनी।
फूट-फूट नदी में दहास।

तूनि-तूनि पूनी सहियारेली फलक मधे,
भर घरे बखरी-बधारी तबो कहाँ सधे,
इयवा के जीयवा धधास।

कनिया बयारि बउरी डोलेली कने-कने?
फेरली बढ़नियों ना आजुले नीमन मने,
सगरी उड़ेला भुँइए कास।

किरनी पसारि गइलसि कुसुम्भी चुनरिया के।
परगट होला भेद राति खा के चरिया के।
नवकिन के छुपे ना हुलास।

बुतरु चुरुँगनन के भोरे चाहीं दाना-पानी।
सबकुछ बेंड़ि देबि, पेटवा न छाना मानी।
श्रम बिना मेंटी ना उपास।

गाछिन के जुलुफी प चिपकेली धूप धारी।
पंडुकी जुगल गावे मंदराग मनहारी।
टांगि देली गठरी उँचास।
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भोरहीं से

भोरहीं से आज मेहा
बेतरे' बरखे सखी!
भोरहीं से।

आज ना निकसल मुसाफिर
परेवा गमगीन बा।
हवा ले रह-रह उबासी
नीड़-झीरी झीन बा।
डारि के आधार अब्बर
कुछ कहीं दरखे सखी!
भोरहीं से।

भइँस तऽ पगुरी नधइली,
कतो बाजत बीन बा।
तिन जनी के बात कउँची
ढाक पतई तीन बा।
बुड़े के जे पीर झेलल
ऊ कहाँ हरखे सखी?
भोरहीं से।

तितिकियो ना सुलग पावे
ओद मउसम के असर,
फूँक मारत बिजन हउँकत
धुंधराइल नम नजर।
ताक रहलसि ब्यग्र झबरा
हिय सजल करखे सखी!
भोरहीं से।
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लागे बरखी बुन्दनियाँ

पियवा तनिका काम निवारऽ
लागे बरखी बुन्दनियाँ।

पछिमाही में कारा बान्हल,
मलके बिजुरी।
सघन गाछि पर धावत रहली,
अबगे चिखुरी।
मोरवा अबहीं बनल नचनियाँ
लागे बरखी बुन्दनियाँ।
साजन मन बिखाद अजवारऽ
काहे भइलऽ निरगुनियाँ।

पंछी भागे हदसल जइसन
पाँख सिकोरे।
हवा खिलंदड़ निरलज बौरी
देह झकोरे।
दुबकल बइठल ललमुनियाँ,
लागे बरखी बुन्दनियाँ।
बालम थोरिक साँस सम्हारऽ
माथे झलकल श्रम बुनियाँ।

आँगन में अलगनी पसारल
भींजी सारी।
छाजन पर के सुखत अदौरी
कवन उतारी?
तजि दऽ अनकर घुरबिनियाँ
लागे बरखी बुन्दनियाँ।
अगते आपन घर सहियारऽ
फिन सझुरइहऽ सभ दुनिया।

रस-झींसी से आँतर कोना
ले पम्हिआइल।
मुरझल जिनिगी-डाढ़ि सचेतन,
पनखी छाइल।
मन भरल गंध गुड़धनियाँ,
लागे बरखी बुन्दनियाँ।
सइयाँ धरती रूप निहारऽ
मेंटी हिय की चुनटनियाँ।
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चिनगी

माँड़ पसे।
कतिने दिना प
सोन्हगंधी हवा पसरल।
रूखी फुदक के चघल खट से
फेंड़ प अरमूद के।
पक रहल फर का?
चिटखल भूख चिनगी
दूर तक
कहईं कुलाँचत भीतरे।

फाँड़ खसे।
बेरि-बेरि सम्हारते अति ब्यस्त धनियाँ।
पगचाप आतुर।
बज रहल छागल निगोरी-
नाज से कुछ।
लग रहल हरका।
चिटखल भूख चिनगी
दूर तक
कहईं कुलाँचत भीतरे ।
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सुलह

आईं तनी नगीच।
पँजरे बइठीं।
कुछ कहीं,
कुछ सुनबो करीं।
अधछुट बा जे गाथा कहनीं
टप्पा धरी।
एकरे अलमें जिनिगी-जाड़
अनगिन जंगल तुंग पहाड़,
अनगैरी दुर्गम रहता के मिलके काटीं।
सुखम-सितम जवने भेंटत बा
भोगीं, बाँटी।
माया रचले बाड़े कतिने
सोना मिरिग मारीच।

पुरुखन के ई सीख
गेंठी बान्हीं -
आपन कहल, अनकर सुनल,
आँतरमन के चाह-बिथा के
बूझल, गुनल,
छाँटेला अन्हियार हिया के।
निगरे सबहीं खार जिया के।
नेह अमल झकझक पानी में
जिया जुड़ाईं,
लोभ सवारथ, अहम भाव के
अतल बुड़ाईं।
हम हमार के कुरुखेत में
काहे कटी फरीक?
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बास्तुदोख

कुछ त फरक बा
दुनो मूरतियन का मधे
तबे त?

बेहिसाब उम्मीदन के अलम पोसपूत कुरहनी
चले बेफाँट
ओह बाप के का?
अधरतिया के जसन से बिमुख
तन से जादे मन से थाक चुकल बूढ़
कर गइल 'सत्य' के सफल 'शोध'
जेकर 'अनुप्रयोग' अपूरन बा अब तक
तहिआवल तलघर में,
धूर के मोट परत,
मकरीजाला,
बिसकुतिया के लेंड़ी बीच,
बाकि कुछ त बा एह मूरत में बिसेख,
नजर परते सिर झुक जाला,
ओकरो, जे बूढ़ा के मुखौटा पेन्ह के
सरबस खुटचालि चलल,
कइलस कुकरम,
ओकरो, जे चउल कइल छिब काढ़ल,
ओकरो,
जे हाथ जोरल माथ नावल आ गोली मार देल,
ओकरो,
जे टूट के बिखरल चस्माँ के सीसा के पार झाँकत
देखऽता भाँगल सपनलोक,
रोअता जार-बेजार।

जब कबो बाजेला भोंपू
थम जाला सारा आलम, स्तब्ध।
मूरतवत,
माथ नँव
आँखि नम।
सिलसिला जारी बा अब ले।

एहू मूरत प कउआ हगे से बाज ना आवस
बाकि ई त पथराह आकीरति ह।
तेकर पाछू से उभरत मुखदीपति ओहरल ना।
जतिने गहिरोर देखीं
रोशनी तेजे होत जाला।
ए से चौराहा आबाद बा, अबो ले।
कुछ त बिसेख बा एह मूरत में।

दोसरकी मूरत रहे हाल तक
नियरे का नगर में-
जीत के गरब से अलगल छाती,
धिरावत अँगुरी,
घमंडे आकास के ओछा बूझत कौड़िया आँखि,
खउफ पैदा करत बकरदाढ़ी,
डरे चिरइयों ना बइठत रहीसँ ओकर कान्हें।
ओकर असर नकारा रहे का त।
तबे त।
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आवाज

सबद आवाजें त ह।
आवाज लउके ना सिरिफ सुनल जाला।

अनगिनत किसिम के आवाज,
फरक बा त ओ से भइल कँपकँपी के जोर के,
बारंबारता के।
ई तय बात ह कि कहईं कुछ टकराइल होखी,
कुछ रगराइल, टूटल, काँपल आ चमकल होखी।
कुछ आग में जरल होखी,
कुछ पानी में सनल होखी।

सबद आवाजें त ह।
सुनऽ कि कतिना जोर बा ए में,
सुखद बा कि तकलीफदेह,
बेरि-बेरि बा कि फगुनी भोर में कोइलर के टाँसी,
कि फुट् दे भइल आ सब शांत।
देखऽ कि बनल का, बिगरल का?

बहुते आवाज बाड़ीसँ बर्हमंड में,
भितरा के, बहरी के।
ई त आदिमी के सामरथ
जे आवाज के बूझे लें,
डाँगर सिरिफ सुने लें, बूझस ना ठीक से।

भीतर के सुने से ज्ञानी।
बहरी के सुने आ बूझे सेहू ज्ञानी।
आ बहिरा?
ना सुने, ना बुझे।
ऊ अपने हद का हिसाब से
आउँ-आउँ कइले जाला,
आन के बुद्धि प तरस खात।

कुछ आवाज खाली चमगुदरिए सुनेलीसँ।
एही से सामने जवन अचल कालपरबत बा नू
ऊ खाली भूभुन टकराए से लाल भइल बा
आ नीचे के तलहटी में
कतिने ना चमगुदरिन के सुखवँता बन गइल बा।
दिकदारी ई बा
कि पूरा माहौल सड़ांध से भरि गइल बा।
महामारी फइले के साँका बा।
देखऽ,
आदिमी बाँची कि का?
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कथा कस्बा

जहवाँ तक नजर धावे
झिलमिल पानी परिखा,
भीतरी गझिन हरियर जंगल दबा के
निकसल टेढ़मेढ़ पथल के भव्य कोट,
ऊपर ढीह से मध ढलान तक,
नीचे के चउरस मैदान तक,
जीवंत मनसायन।

आँखि मुकुले से मुलुके आ मूने के बीच के
डरपोक बाकिर सुघर जिनिगी के एह सङ्ह सरूप के
का कहल जाव?
गाँव, कस्बा, नगर, कि देश, कि देह?
हिंहवें बिलम गइन्हँ बस चार दिन बदे।
मौसम भरुआह रहल ह
थकल देह आ मनो गरुआह रहल ह।
ढेर त हिंहाँ के सुखमा रहल ह
थोरे मन के चाह रहल ह।
हिंहवें बिलम गइन्हँ बस चार दिन बदे।
कुछ बेबसी रहल ह, कुछ उछाह रहल ह,
हम बिलम गइन्हँ त बिलम गइन्हँ,
रमता जोगी बहता पानी।
खूबे घुमिन फिरिन आ देखिन-
करियट्ठी रतिया से जनमत भोर रहे,
चुप्पी में से कढ़ि आइल बड़मनी शोर रहे,
साधू नियन चोर रहे,
सलग रहे, थोर रहे,
हाट अ बाजार रहे,
कतिने बैपार रहे,
पाना कुछो, खोना कुछो
तनीमनी सुख अउरी दुख बेसुमार रहे।
जतिने बटोरऽ तले भर भरकि जाला
छबनी-खदोनों में से
खर से खरकि जाला।
कसबिनियाँ रे! मरलू करेजवा में बान।
मोर जनियाँ रे! छछनत रहले परान।

एक दिना गफलत में रहे सारी नगरी।
कवन भीतरघतिया उछाल गइल पगरी।
मनगवें खोल गइल बजर केवाँरी,
हहरात ढूकि अइलन अनगिन तातारी।

कस्बा भ गइल छत-बिछत।
चिराइँध धूँआ ऊपर उठल आ पसर गइल जंगल का ऊपर।

चारि ओरी लउकऽता अन्हरिया हो राम!
डूबि रहल सगरी नगरिया हो राम!
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तीन साँझ

(एकम एका) 

धूसर साँझ
बिरिछन का मध पसर गइल।
धरती नियरे धूँआ जइसन ससर गइल।
अब्बो ले ऊपर अकास कुछ ऊजर बा।
मेंट चुकल चुरुँगन के सब धमगूजर बा।
नवकी कनियाँ
बहुते बनेयाँ,
साँझा-बाती बारे ना।
अन्हियारे में पितर-पियारे-अँखियाँ
तरसत तारे रे।

(दोयम दूज)

नदी मधे पसरल बा
बालू के रेती,
रेतिए प सुते साँवरी।
माँगि के सेंदुर झरि
माथे छितरइले,
लट्ट अझुरौले बावरी।
गेंसू के अन्हरिया में
डूबे जोत बिन्दुली के
नथिया चनरमा
धरत छाव री!
दूरि एगो कौनो पाँखी
ठीक तड़बन्ना ऊपर
घूरि-घूरि देवे भाँवरी।

(तीयम तीज)

नदिया में
नाव तरे।
नाव में
दियना बरे।
दियना से
मोती झरे।
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सपूत

बइठल-बइठल अंडा पारे,
हद अलहद्दी!
हूनरवंता हाड़ ठठावे,
ई रजगद्दी।

चूल्हा दे रे, चक्की दे रे,
अवरि रुपैया।
कर्जा-वर्जा माफी दे दे,
नतु तनखैया।

समता, समरस भाँड़ भुँजाए,
जेठ-हेठ करीं।
चाभऽ तू नकबोल बुड़ा के,
हमूँ इचि चरीं।

मरे नीति तऽ कथी फिकिर बा,
धरन ध द चड्डी।
तरिगर ना तऽ छाल्ही चाभऽ
लबा-दुआ हड्डी।

ऊपर से चिक्कन बन घूमऽ,
कवन ताके तर?
गज भरि के उपवीत कान पऽ
तुरी छर्राछर।

लोकतंत्र के डफली कूटऽ,
गावऽ जनमन।
केकर हिम्मत, कथी बिगारी
कथी के खखन?
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मेघराग

टेसू लहकल,
चिरईं चहकल,
मन बहकल,
तन सहकल।
बहल बयारि रेत भरकल मुट्ठी भ।
आसा के दरिआवे पानी
बाँचल अब घुट्ठी भ।
मन-मछरी पिअराइल गुइयाँ
खीन चातकी।
मेघा बूनी दे।

चुनरी सरकल,
मुनरी खरकल,
हिय दरकल,
जिय फरकल।
चाह छाँह के दुबकल अब बरगद तर।
कगवा के नेटी में अँटकल
साँय-साँय के घर्घर स्वर,
अब भाखी कवन उदेस ?
पिया परदेस, पातकी।
मेघा बूनी दे।
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मरजीवा

एगो गाँव।
पुरना नीम के ठूँठ,
कँटइली झूँटी,
तकरो ओपार।
रखि ल कवनों नाँव।

ओजा सँझवत के बेरा में,
ओरी के नीचे आ धूँआ के घेरा में
चूल्हा जरा के
बइठलि बहुरिया हव
घूघा गिरा के।
बेरि-बेरि मँइसे से अँखिया पिराला।
खाटी प पीट-पीट
रोवे नन्दलाला।

बइठल मँचोली प
ओसरी में बूढ़ऊ
जाँगर बिटियवा के ब्याहे के फिकिर में
जिनिगी जरावत बा,
काल के हरावत बा।
चिलिम प धूँटघूँट,
कँउची त पीअता।
कइसे त जीअता।
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दुरजन पंथ

गसल निठुरता
हद गहिरोर
पोरे-पोर।
पोंछ उठवले हरदम सगरी,
सींघ लड़ावे के तत्पर।
सकल उधामत चाहे करि ल
जीति ना पइब कबो समर।
अनकर माल-मवेसी, धनि पऽ
निरलज आँखि उठावे,
सुजन बंधु सन इरिखा पारे,
दुरजन जान सुभावे।

पढ़ल-लिखल भल सुकराचारी
ताने रहे।
कतो बिछंछल मनियारा के
कवन गहे?

गने मंदमति धुर विनयी के
ब्रतधारी पाखंडी,
भलमानस के कपटी भाखे,
तेजसवंत घमंडी,
बीर बाँकुरा बड़ निरदइया,
मुनि सनकी घरनाँसी,
दीनहीन भोला मिठबोला,
बड़ बकता बकवासी,
धीर-गँहीर पुरुख अलचारी,
गुनवंता गुनहीना,
कवन सुजन नामी के जग में,
दूसे दुस्ट कभी ना।

अउ अवगुन का लोभ भरल जब,
चुगली तब अधमाई का?
का तप, जब बा सत्यवादिता,
मन सुचि तिरिथ घुमाई का?
भलमनसी तऽ कवन आन गुन,
साज-सँवार सुनामा का?
सद् विद्या तब का धन चाहीं,
कवन मरन बदनामा का?

दिने धुँआइल चान,
ढलल बय सरम बिहूनी,
राँड़-तलैया जल बिन सूनी,
निपढ़ पुरुख सुन्नर सुभ भेखे,
धन संगरिहा राजा देखे,
सज्जन लो' बदहाली झेले,
उचरुंग, लंपट, बकवादी जन
राजसभा में खेले,
कइसे नीमन लागी हो?
कबले लोगवा जागी हो?
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कतिना पानी

ठोरे खने धूर,
एने-ओने घूर,
फुर्र-फुर्र-फुर्र।
गड़ही में पानी,
कउआ असनानी,
छुपुर-छुपुर।

भर घुट्ठी पानी,
तहँ अकिल नसानी,
थह-थह रुक।
जब हँसी क सुजोग
त ना हँसिहन लोग?
खिहि-खिहि-खुक।

न चले के सऊर,
ना मिटले गरूर,
गिरल भहर।
रचल महाभारत,
होखल सब गारत,
मचल कहर।

नदिया जे थाही,
तर तल बलुआही,
झकझक जल।
जिय जगन जुरा लीं,
तन तपन सिरा लीं
थकन सकल।

जहाँ कुक्कुरलँघन,
उहाँ उघरे जघन,
एहर-ओहर।
जहँ हथियाडुबान,
नद लिहले उफान,
सजग सुतर।

छाती-छाती जल,
लग घाट-बाट भल,
अमल-अमल।
तलई क भीतरी,
छरपेली मछरी,
छहल-छहल ।

आँखि रखीं पानी,
हर दिल दरियानी,
सुगम सुगत।
चुरू में समुन्दर,
सरगो ले सुन्दर,
सकल जगत।
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