अमृत नीक कहै सब कोई
अमृत नीक कहै सब कोई, पीय बिना अमर नहिं होई।कोई कहै अमृत बसै पताल, नर्क अंत नित ग्रासै काल।
कोई कहै अमृत समुंदर माहिं, बड़वाअगिन क्यों सोखत ताहिं।
कोई कहै अमृत ससि में बास, घटै बढ़ै क्यों होइहै नास।
कोई कहै अमृत सुरगां मांहि देव पिवैं क्यों खिर खिर जाहिं।
सब अमृत बातों का बात, अमृत हे संतन के साथ।
दरिया अमृत नाम अनंत, जाको पी पी अमर भये संत।
--------------------------------------
मन तुम कसन करहु रजपूती
मन तुम कसन करहु रजपूती।गगन नगारा बाजु गहागहि, काहे रहो तुम सूती।
पांच पचीस तीन दल ठाढ़ो, इन सँग सैन बहूती।
अब तोहि घेरी मारन चाहत, जब पिंजरा मँह तूती।
पइहो राज समाज अमर पद, ह्वै रहु विमल विभूति।
धरनी दास विचारि कहतु है, दूसर नाहिं सपूती।
--------------------------------------
मैं निरगुनिया गुन नहिं जाना
मैं निरगुनिया गुन नहिं जाना।एक धनी के हाथ बिकाना।
सोइ प्रभु पक्का मैं अति कच्चा।
मैं झूठा मेरा साहब सच्चा।
मैं ओछा मेरा साहब पूरा।
मैं कायर मेरा साहब सूरा।
मैं मूरख मेरा प्रभु ज्ञाता।
मैं किरपिन मेरा साहब दाता।
धरनी मन मानों इस ठांउं।
सो प्रभु जीवों मैं मरिजाउँ।
--------------------------------------
हरिजन बा मद के मतवारे
हरिजन बा मद के मतवारे।जो मद बिना काठि बिनु भाठी, बिनु अगिनिहि उदगारे।
वास अकास घराघर भीतर, बूंद झरै झलकारे।
चमकत चंद अनंद बढ़े जिव, सब्द सघन निरूवारें।
बिनु कर धरे बिना मुख चाखे, बिनहि पियाले ढारे।
ताखन स्यार सिंह को पौरूष, जुत्थ गजंद बिडारे।
कोटि उपाय करे जो कोई, अमल न होत उतारें
धरनी जो अलमस्त दिवाने, सोइ सिरताज हमारे।
--------------------------------------
राम बिन भाव करम नहिं छूटै
राम बिन भाव करम नहिं छूटै।साथ संग औ राम भजन बिन, काल निरंतर लूटै।
मल सेती जो मलको धोवै, सो मल कैसे छूटै।
प्रेम का साबुन नाम का पानी, दीय मिल तांता टूँटै।
भेद अभेद भरम का भांडा, चौड़े पड़ पड़ फूटै।
गुरू मुख सब्द गहै उर अंतर, सकल भरम से छूटै।
राम का ध्यान तु धर रे प्रानी, अमृत का मेंह बूटै।
जन दरियाव अरप दे आपा, जरामन तब टूटै।
--------------------------------------
अजहूँ मिलो मेरे प्रान पियारे
अजहूँ मिलो मेरे प्रान पियारे।दीन दयाल कृपाल कृपानिधि करहु छिमा अपराध हमारे।
कल न परत अति बिकल सकल तन, नैन सकल जनु बहत पनारे।
मांस पचो अरू रक्त रहित भे, हाड बिनहुँ दिन होत उधारे।
नासा नैन स्रवन रसाना रस, इंद्री स्वाद जुआ जनु हारे।
दिवस दसों दिसि पंथ निहारति, राति बिहात गनत जस तारे।
जो दुख सहत कहत न बनत मुख अंतरगंत के हौं जाननहारी।
धरनी जिन झलमलितदीप ज्यों, होत अंधार करो उजियारे।
--------------------------------------
बहुत दिनन पिय बसल बिदेसा
बहुत दिनन पिय बसल बिदेसा।आजु सुनल निज अवन संदेसा।
चित चिवसरिया मैं लिहलों लिखाई।
हृदय कमल धइलों दियना लेसाई।
प्रेम पलँग तहँ धइलों बिछाई।
नखसिख सहज सिंगार बनाई।
मन हित अगुमन दिहल चलाई।
नयन धइल दोउ दुअरा बैसाई।
धरनी धनि पलपल अकुलाई।
बिनु पिया जिवन अकारथ जाई।
--------------------------------------
पिय बड़ सुन्दर सखि
पिय बड़ सुन्दर सखिपिय बड़ सुन्दर सखि बनि गैला सहज सनेह ।। टेक।।
जे जे सुन्दरी देखन आवै, ताकर हरि ले ज्ञान।
तीन भुवन कै रूप तुलै नहिं, कैसे के करउँ बखान ।। 1।।
जे अगुवा अस कइल बरतुई, ताहि नेवछावरि जावँ।
जे ब्राह्मन अस लगन विचारल, तासु चरन लपटावँ ।। 2।।
चारिउ ओर जहाँ तहाँ चरचा, आन कै नावँ न लेइ।
ताहि सखी की बलि-बलि जैहों, जे मोरी साइति देइ ।। 3।।
झलमल झलमल झलकत देखो, रोम रोम मन मान।
धरनी हर्षित गुनगन गावै, जुग जुग है जनि आन ।। 4।।
--------------------------------------
लेखक परिचय:-
नाम: धरनीदास
जनम: 1616 ई (विक्रमी संवत 1673)
निधन: 1674 ई (विक्रमी संवत 1731)
जनम अस्थान: माँझी गाँव, सारन (छपरा), बिहार
संत परमपरा क भोजपुरी क निरगुन कबी
परमुख रचना: प्रेम प्रकाश, शब्द प्रकाश, रत्नावली
नाम: धरनीदास
जनम: 1616 ई (विक्रमी संवत 1673)
निधन: 1674 ई (विक्रमी संवत 1731)
जनम अस्थान: माँझी गाँव, सारन (छपरा), बिहार
संत परमपरा क भोजपुरी क निरगुन कबी
परमुख रचना: प्रेम प्रकाश, शब्द प्रकाश, रत्नावली
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें