देवेन्द्र कुमार राय के छव गो कविता

तलफत भुभुरी सोंच के

सोंचे में सकुचातानी
कहे में भीतरे डेराइला,
रोज अंजुरी में धुंध सहोरले
दिल के कठवत में नेहाइला।

बेवहार के बागि नोचाता
फीकीर केहुके हइए नइखे,
जब कहीं करम के पटवन कर
त हम केकरो ना सोहाइला।

सभे बवण्डर बनिके चले
रेगिस्तानी राग अलापता,
कपट के करवन लोटकी से
सभके के नेहवाइला।

कसमकस से कलपत काया
करीखा के बनल संघाती,
सोंच के तलफत भुभुरी में
डेगे डेग नहाइला।

जेने देखीं झूठ के ढेरी
ना बाजे कवनो रणभेरी,
आंखि अछइत आन्हर भइनी
कुकुर जस चिचिआइला।

कइसन दइब के ज्ञानी बस्तर
झूठ फरेब भइल बा सास्तर,
सांच के चोला चंचरी रोवे
हम सुखले रोज नहाइला।

कतना ले सबद के साज सजाईं
केकरा ले आपन दरद बताईं,
अंखिया के फफकत फोरा के
राय कसहूं राज छिपाइला।
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रखवार भइल लुटेरा

पेट काटि दुगो पाई धइनी
अब हमहीं भइनी लाचार
हर चौकठ लट धुनि के रोईं
लुटलसि हमरे चुनल सरकार।

टुअर बिटिया कइसे बिहबि
सरकारी दरद ई कइसे सहबि
तिलक दहेज के लोभी ना देखे
घर में बिटिया बाडी़ कुंआर।

हम ना जननी जेकरा के चुनबि
कही,पांच बरीस तोहरे के धुनबि
जीनीगी के जतन जवन जोगवल रहे
अब ओकरे छछनत करीं गोहार।

धनि भइल शासन धनि सरकार
जनता के अजबे ई कइले लाचार
रखवारे जब भइल लुटेरा
रउवे कहीं जाईं कवन दुआर।

भले धन मेटा में गाड़बि
आपन फटही घरही सारबि
भूखे मरबि बैंक ना जाइबि
बैंक के नामे बथेला कपार।

शासन के सासत से सेंकाइल बानी
उजर कुर्ता देखि के भकुआइल बानी
राजनीति के अंगोरा में जरत
फुंकाइल राय जीनीगी के आधार।
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आव बदरी आव

आव आव बदरी आव।
झूम झूम पानी बरसाव॥

सागर से जल भरि लाव
आव बरीस लड्डू पाव,
झम झम जब बरसी पानी
सजी खेत चुनर से धानी,
अब भादो के मति तरसाव।
आव आव----पानी बरसाव॥

उपजी धान गेहूँ हरिआइ
चारो देने खुशियाँ छा जाइ,
खेती से जब घर भरि जाइ
दादी तोहरा के पुआ खिआइ,
आव बनि धरती के संघाती
एही खातीर हम भेजीं पाती,
अब ना तनिको देर लगाव।
आव आव----पानी बरसाव॥

उपजी सगरो बांगर खादर
करी सभे तोहरा के आदर,
लहरी तल तलैया खेत
होइ जब बदरा से भेंट,
चारो देने जब बरखा होइ
भारत से दु:ख चली पराइ,
भारत के खेतिहर खेत पटाव।
आव आव---पानी बरसाव॥
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अदरा के संग बदरा

पानी बदरा के धरती से जसहीं मिलल
सुखल माटी के अंचरा फहराए लागल,
सोन्ह माटी के गमक गगन में उड़ल
तिनका तिनका खुशी में लहराए लागल॥

धरती के मांगि हरिअर टिकुली निरेख
नयकी कनिया के उपमा दिआए लागल,
जतना रहले बरतीहा एह मौसम के संग
पागल पुरवा के रुप प धाधाए लागल॥

फेंड़ के डार्हि पात लागे सिंगार कइले बा
नेह बदरा के पाइ सभ कुलबुलाए लागल,
अदरा बदरा के संगे बिहंसि के चलल
गीत खुशी के चहुँ दिश में गवाए लागल॥

चंवर डोलाए नीमीआ झुमि झुमिके
देखि पीपरा के पात झरझराए लागल,
नीर नेह अपना गोदिया में सहोरल देख
अदरा बदरा के संग झमझमाए लागल॥

परदा बदरा से लुकि छिपि सुरुज झांकेला
देखि बदरा के कजरा कीरीनीया लजाए लागल,
राय छन छन में बदरा बदल लेता रुप
एही सांवर सुरत प मन लोभाए लागल॥
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कतहीं लउके ना जोति

मन के अंगना में सगरो आन्हार भइल बा
सोंच के कुंचा के खरिका खीआ गइल बा।

संस्कार सिसिकत ढकचत चले राह में
लोर भावना के सगरो सुखा गइल बा।

जीनीगी धरती में लउके ना कतहीं नमी
स्वार्थ के कोंढी़ तबो त फुला गइल बा।

बोवल बेवहा के अंकुर फुटल ना कबो
बाकी फउके के आदत धरा गइल बा।

छल के आन्ही में आम सोंच के कोलांसी भइल
सगरो धोखा के फेंड़ अब धधा गइल बा।

मन के कोठिला में कुछऊ हम संइचीं धरी
बाकी पल पल के चैन अब छीना गइल बा।

छल कुहरा अब अइसन आन्हार कइले बा
एह में एक दोसरा से सभे छिनीगा गइल बा।

फेंड़ अछइत अगुती पिछुती ना छांह मिलता
राय रग रग में जहर घोरा गइल बा।
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करेजवा सुसुकता

करीं धरीं चाहे कतनो मरीं
ना सोंच के जांगर घुसुकता,
दुशासन के शासन में हमार
करेजवा रहि रहि सुसुकता।

सुघर सोंच बिला गइले
समय के अइसन फेरा बा,
झमकि झमकि के झूठ चले
आ जहर भाव के टुसुकता।

लुट खसोट चम चम करे
ईमान के घर भइल आन्हार,
करम के फेंड ठूँठ भइल
कपट काल के मुसुकता।
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लेखक परिचयः
नाम: देवेन्द्र कुमार राय
जमुआँव, पीरो, भोजपुर, बिहार

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