अविनाश चन्द्र विद्यार्थी के दू गो कविता

भुइँया सरग बनि जाई

आई, उहो दिन आई, अन्हरिया राति पराई
लीही अकासे छाई, किरिनि धरती पर धाई।

कठमुरकी कन-कन के छूटी
सकदम साँस-साँस के टूटी
लीही पवन अँगडाई, गमक वन-वन छितराई।

चह-चह बोल चुचूहिया बोली
जबदल कंठ मुरुगवा खोली
भँवरा पराती गाई, कली के मन मुसुकाई।

डगर-डगर तब होई दल-फल
निसबद रही पाई ना जल-थल
जगरम घर-घर समाई, नगर में सोर सुनाई।

भायी मोर, नयन ना निहँसी
धूमिल मुँह अँजोर में बिहँसी
भूँइया सरग बनि जाई, सुदिन तब साँच कहाई।
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बिनु गीत के

कुँहुँकत बा जहान बिनु गीत के
डहकत बा परान बिनु मीत के।

हरिअरिया बे-फुहार के झुरात बा
फुलवरिया ई बहार में धुँवाँत बा
धन्हकत बाटे आँचि अनरीत के।

बा लहरिया, ना नजरिया में हुलास बा
लहवरिया में नगरिया ई उदास बा
चहकत बा बिचार हार-जीत के।

मोहेला अल्हड़ करेज तनिक छोह से
सोहे ना बचनियाँ मुँह में मन का द्रोह से
सहकत बा सिंगार बे-पिरीत से।

झलकी रूप-रंग असली नवका भोर में
तनिका नेहिया लगवले जा अँजोर में
लहकत बाटे जियरा दियरा हीत के।
डहकत बा परान बिना मीत के॥
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