आकाश महेशपुरी के चार गो कविता

गउँवों में काँव काँव बा

बिगड़त जात सुभाव बा गउँवों में काँव काँव बा
रहिया चलत डेराला जियरा अइसन भइल दुराव बा
बिगड़त जात सुभाव........

मारा-मारी झूठे झगरा
दुःख से भरल मन के गगरा
आफत बीपत कुफुत सगरी
लागे जइसे बइठल पँजरा
बड़ी तेज बा झूठ के धारा सच वाली में ठहराव बा-
बिगड़त जात सुभाव........

लोगवा बोले मरिचा तरे
सुनि के बतिया जिउवा जरे
साझों-बिहाने होता हाला
कांपे करेजा थर थर डरे
पीपर नीचे बइठि के लोगवा लगा रहल अब दाव बा-
बिगड़त जात सुभाव........

बेइमानन के लागे नारा
बेईमान बनल आँखी के तारा
भलमनई त बिलखत बाटे
ओकरा उपरा चले आरा
भले-आदमी लोगवा बदे लउकत ना कहीं ठाँव बा-
बिगड़त जात सुभाव........

इहे सुनाता मारू-मारू
गारी दे लोग पी के दारू
आकाश महेशपुरी का करबऽ
छाती पीटे सं मेहरारू
भइल डाह के धूप घनेरी कहाँ प्रेम के छाँव बा-
बिगड़त जात सुभाव........
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रहे इहाँ जब छोटकी रेल

देखल जा खूब ठेलम ठेल
रहे इहाँ जब छोटकी रेल।

चढ़े लोग जत्था के जत्था
छूटे सगरी देहि के बत्था।

चेन पुलिग के रहे जमाना
रुके ट्रेन तब कहाँ कहाँ ना।

डब्बा डब्बा लोगवा धावे
टिकट कहाँ केहू कटवावे।

कटवावे उ होई महाने
बाकी सब के रामे जाने।

जँगला से सइकिल लटका के
बइठे लोग छते पर जा के।

रे बाप रे देखनी लीला
चढ़ल रहे ऊ ले के पीला।

छतवे पर कुछ लोग पटा के
चलत रहे केहू अङ्हुआ के।

छते पर के ऊ चढ़वैइया
साइत बारे के पढ़वइया।

दउरे डब्बा से डब्बा पर
ना लागे ओके तनिको डर।

कि बनल रहे लइकन के खेल
रहे इहाँ जब छोटकी रेल।

भितरो तनिक रहे ना सासत
केहू छींके केहू खासत।

केहू सब केहू के ठेलत
सभे रहे तब सबके झेलत।

ऊपर से जूता लटका के
बरचा पर बइठे लो जाके।

जूता के बदबू से भाई
कि जात रहे सभे अगुताई।

ट्रेने में ऊ फेरी वाला
खुलाहा मुँह रहे ना ताला।

पान खाइ गाड़ी में थूकल
कहाँ भुलाता बीड़ी धूकल।

दारूबाजन के हंगामा
पूर्णविराम ना रहे कामा।

पंखा बन्द रहे आ टूटल
शौचालय के पानी रूठल।

असली होखे भीड़ भड़ाका
इस्टेशन जब रूके चाका।

पीछे से धाका पर धाका
इस्टेशन जब रूके चाका।

कि लागे जइसे परल डाका
इस्टेशन जब रूके चाका।

ना पास रहे ना रहे फेल
रहे इहाँ जब छोटकी रेल।
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पढ़बऽना पछतायेक परी

दर-दर ठोकर खायेक परी
पढ़बऽ ना पछतायेक परी।

पढ़ लिख के राजा के होई
ई सोची जिनिगी भर रोई
आइल बाटे नया जमाना
भइल कहाउत बहुत पुराना।

कहे इहे अब सउसे टोला
पढ़े उहे बस राजा होला
अनपढ़ कइसे राजा होई
दुसरे के बस्ता जब ढोई।

इस्कूली में जा ये बाबू
विद्या में असली बा काबू
विद्या के तू यार बना लऽ
हक वाला हथियार बना लऽ।

आवारा के संघत छोड़ऽ
शिक्षा से बस नाता जोड़ऽ
मनवा के नाहीं भटकइबऽ
काहें ना नोकरी तू पइबऽ।

नोकरी का! डी यम हो जइबऽ
पढ़बअ तअ सी यम हो जइबऽ
पढ़-लिख के खेतियो जे करबऽ
सबसे बेसी पइसा झरबऽ।

बिजनस या दोकानोदारी
पढ़ी उहे बस बाजी मारी
गाँव नगर में इज्जत पाई
पढ़ी उहे दुनिया में छाई।

कदम कदम पअ कामे आई
पढ़बअ ऊ बाँवे ना जाई
छुछनरई येही से छोड़ऽ
विद्या धन से नाता जोड़ऽ।

गलत-सलत से ध्यान हटा के
अच्छाई के पास बुला के
बाबू हो तू नाव कमा लऽ
गाँव-नगर में धाक जमा लऽ।
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दलीदर

दीपावली के होते भोर
कि लागेला अइले सन चोर।

सुतले-सुतले कर दे बारे
जागेला ऊहो भिनुसारे।

सूपा लेके फट फट फट फट
बकरी जइसे पट पट पट पट।

खटर पटर खट खट खट घर घर
लोगवा खेदे खूब दलीदर।

घोठा घारी चउकी चारा
घर दुवार अउरी ओसारा।

चुल्ही तर आँगन पिछुवारे
लोगवा खूब दलीदर मारे।

सूपा के सुनि के फटकारा
पगहा तूरे भागे पाड़ा।

भागे बिल्ली बड़ी डरा के
चूहा बीयल में घबरा के।

सहमें चिरई कउवा तीतर
बाकिर नाहीं हटे दलीदर।

बैर भाव त जाते नइखे
मनवा कबो नहाते नइखे।

पसरल बाटे कइ कइ मीटर
झाकीं ना मनवा के भीतर।

मनवा के पाँको आ काई
सूपा से कइसे फटकाई।

राखीं पानी आ सच्चाई
सदगुण के साबुन से भाई।

मनवा के पहिले झटकारीं
मन में उहे दलीदर मारीं।

काम करीं खूबे सुरिया के
धन दौलत आई धरिया के।
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लेखक परिचय:-
नाम: वकील कुशवाहा 'आकाश महेशपुरी'
जन्म तिथि: २०-०४-१९८०
पुस्तक 'सब रोटी का खेल' प्रकाशित
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
कवि सम्मेलन व विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मान पत्र
आकाशवाणी से कविता पाठ
बेवसाय: शिक्षक
पता: ग्राम- महेशपुर,
पोस्ट- कुबेरस्थान
जनपद- कुशीनगर,
उत्तर प्रदेश
मो नं: 9919080399

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