कतहीं लउके ना जोति - देवेन्द्र कुमार राय

मन के अंगना में सगरो आन्हार भइल बा
सोंच के कुंचा के खरिका खीआ गइल बा।

संस्कार सिसिकत ढकचत चले राह में
लोर भावना के सगरो सुखा गइल बा।

जीनीगी धरती में लउके ना कतहीं नमी
स्वार्थ के कोंढी़ तबो त फुला गइल बा।

बोवल बेवहा के अंकुर फुटल ना कबो
बाकी फउके के आदत धरा गइल बा।

छल के आन्ही में आम सोंच के कोलांसी भइल
सगरो धोखा के फेंड़ अब धधा गइल बा।

मन के कोठिला में कुछऊ हम संइचीं धरी
बाकी पल पल के चैन अब छीना गइल बा।

छल कुहरा अब अइसन आन्हार कइले बा
एह में एक दोसरा से सभे छिनीगा गइल बा।

फेंड़ अछइत अगुती पिछुती ना छांह मिलता
राय रग रग में जहर घोरा गइल बा।
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लेखक परिचयः
नाम: देवेन्द्र कुमार राय
जमुआँव, पीरो, भोजपुर, बिहार

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