भोरहीं के भूखे होइहें चलत पग दूखे होइहें - महेन्द्र मिश्र

भोरहीं के भूखे होइहें चलत पग दूखे होइहें
प्यासे मुख सूखे होइहें जागे मगु रात के।

सूर्य के किरिन लागी लाल कुम्हिलाये होइहें
कंठै लपटाय झंगा फाटे होइहें रात के।

आली अब भई साँझ होइहें कवनो बन माँझ सोये होइहें
छवना बेबिछवना बिनु पात के।

महेन्द्र पुकारे बार-बार कौशल्या जी कहे
ऐसे सुत त्यागी काहे ना फाटे करेजा मात के।
----------------------------------------------
लेखक परिचय:-
नाम: महेंद्र मिश्र (महेंदर मिसिर)
जनम: 16 मार्च 1886
मरन: 26 अक्टूबर 1946
जनम स्थान: मिश्रवलिया, छपरा, बिहार
रचना: महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र चंद्रिका,
महेंद्र मंगल, अपूर्व रामायन अउरी गीत रामायन आदि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैना: भोजपुरी साहित्य क उड़ान (Maina Bhojpuri Magazine) Designed by Templateism.com Copyright © 2014

मैना: भोजपुरी लोकसाहित्य Copyright © 2014. Bim के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.