भाषा के खातिर तमाशा - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

इ भाषा बदे ही तमाशा चलत हौ
बिना बात के बेतहासा चलत हौ
इहाँ गोलबंदी, उहाँ गोलबंदी
बढ़न्ती कहाँ बा, इहाँ बाS मंदी।

कटाता चिकोटी सहाता न बतिया
बतावा भला बा इ उजियार रतिया
कहाँ रीत बाचल हँसी आ ठिठोली
इहो तीत बोली, उहो तीत बोली।

मचल होड़ बाटे छुवे के किनारा
बचल बा इहाँ बस अरारे सहारा
बहत बा दुलाई सरत बा रज़ाई
न इनके रहाई न उनके सहाई।

भगेलू क इहवाँ बनल गोल बाटे
सुमेरु क उहवाँ बनल गोल बाटे
दुनों के दुनों ना भगीरथ कहालें
सभहरे क दुख देख गंगा नहालें।

घरे मे इहाँ पे उठल बाS हल्ला
इहाँ हउवन जुटल लखेरा निठल्ला
कबों बुनत बाना,कबों मार ताना
कहीं निगहबीनी कहीं बा निशाना।

करीं काम भाषा क होवे बड़ाई
शुरू होत जमके लिखाई पढ़ाई
इ भाषा बनै सिरजना कै निशानी
सँवारे सही से सभेके जवानी।

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लेखक परिचय:-
नाम: जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
संपादक: (भोजपुरी साहित्य सरिता)
इंजीनियरिंग स्नातक;
व्यवसाय: कम्पुटर सर्विस सेवा
सी -39 , सेक्टर – 3;
चिरंजीव विहार , गाजियाबाद (उ. प्र.)
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