गँवावे के पड़ल - भोला प्रसाद ‘आग्नेय’

जवन चाहीं ओ के गँवावे के पड़ल।
ना चाहीं ऊ हे अपनावे के पड़ल॥

सपना तऽ टूट के टुकी-टुकी हो गइल
बाकिर फेरु माला गुहावे के पड़ल॥

ई जानि के कि नइखे फायदा कवनो।
करेजा चीर के देखावे के पड़ल॥

जे रहे डूबल पाप के समुन्दर में।
कपारे पऽ अपने बइठावे के पड़ल॥

तूफान तऽ हिया में उठत रहे बहुते।
समय के साथे मन दबावे के पड़ल॥

इन्सानियत के बदलत परिभाषा के।
मजबूरन हमें गले लगावे के पड़ल॥

बसखट के पावा, पाटी चउकी के।
मिला के बड़हन बेड बनावे के पड़ल॥

पोस ना सकलन गाय-गोरु ‘आग्नेय’।
महज पिल्ला पऽ साध बुतावे के पड़ल॥
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