जा बरखा - सत्यनारायण मिश्र ‘सत्तन'

सूतल सपना, सोच सिर्हाने
जा बरखा अब खेत सुखाने।

पल-पल पीटत, पर, पलुवार,
बीपत, बिटियन क बढ़वार
गर-गर गरत पसीना पीठि
सर-सर सरकत चढ़त कपार
लागल, थसमस होस, ठेकाने।

मुंह फेरि अंहुई अंहुआय
आंखिन आई असाढ़ समाय
चूल्हि चुहानी करै उपसा
खाइल-पीयल परे पराय
बिरथा, बिनती थान्ह-पवाने।

बाउर बखत बड़ा बरियार
जग अनगैया, कहां चिन्हार
हितई गईल, नतैती लोप
बनले पर त, बहुत इयार
के तर दिन बहुरत, का जाने।
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सत्यनारायण मिश्र ‘सत्तन'

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