अछूत फूल - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’गुरदासपुर, अगस्त 1937

मीरा हवा खाए खातिर चलल जात रहे, लेकिन ओकर गरदन निच्चे झुकल रहे, आँखि आधा खुलल रहे। आ ओकर ध्यान अपनी नगिच्चे की चीजुए की ओर, रस्ता की दुन्नो ओर बिखरल (छिटाइल) आ आतम-निवेदन करत ‘संस्कृत’ परकृति की ओर एकदम ना रहे।

मीरा क उमिरि छब्बिस बरिस कऽ हो गइल रहे। ए छब्बिस बरिस की समें में बयस्क (जवान) भइले की बाद ऊ अपनी कॉलेज की चारि बरिस में बी.ए. क डिगिरी पा लिहले रहे आ ओकरी बाद रजनीतियों में हिस्सा लिहले रहे, जेलिओ हो आइल रहे, ‘सोसइटी’ में सभ समाज में आपन मेलजोल बढ़वले रहे आ आपन अहथान बनवले रहे। बीमा कऽ एजन्टिओ कइले रहे। कहल जा सके ला कि ऊ अपनी समाज में एगो खास अहथान बनवले रहे।

अदिमिन पऽ परभाव डाले खातिर ओकरी में कुछ बिसेख ताकति रहे। ओ ताकति के परतिभा कहल जाव त तनिको अनुचित ना रही मीरा क हमजोली सभ भासा में कहे लोग कि ‘शी हैज ए वे विद मैन’। अब्बो घुम्मत की समे आपन धेयान आसपास की सौन्दर्य खींचि के, अपनिए भित्तर समेटि के इहे बाति सोचति रहे। जहवाँ ले ओकर इयादि जाति रहे, अपनी पिछला दस बरिस में, जबसे ऊ होस सम्हारि के आतम निरनय कऽ अधिकार पवलसि आ बिदयारथी - समाज की सोछन्द वतावरन में गोड रखलसि, तबसे ओके कवनो अइसन अदिमी ना मिलल जवन ओकरी परिचे में आइल होखे आ बिना परभावित भइले रहल होखे।

अदिमी आवें सऽ कवनो झूकि के, कवनो अकड़ि के, कवनो लोलुप भाव से, कवनो कठोर उपेच्छा से, लेकिन फेनु उनहन पऽ लागे की कवनो समोहनी ताकति छा जाति होखे, अइसन लागे की उनहन कऽ पाँखि भीजि गइल होखे, आ फड़फड़ाइल बन हो जाव- आ अइसन कहल जा सके ला कि कवनो फेंसी नसल की कुक्कुर की तरे ऊ सब मीरा की पीछे-पीछे पोंछि हिलावत चलि परें सऽ। मीरा उनहन से खेले, उनहन के नचावे आ उनहन से काम ले। कुकुरपन की कारन ऊ ओकर सेवा करें सऽ। जबकि फेंसीपन की कारन ऊ ओकरी मुहें लागलो रहे लोग आ अइसन लागे की थोर बहुत दुलार पुचकार खातिर भुखाइल होखे सऽ। मीरा ई, सगरो बाति जानत रहे आ ओकर अनदेखीयो ना करे।

लेकिन एतना भइले की बादो मीरा अदिमिन से एगो बिसेख दूरी बनवले रहे, एगो अलगाव अहथापित कइले की बादो, उनहन से मीलि जूलि के रहले की बादो, उनहन से ‘मिक्स’ भइले की बादो ऊ अछूत रहि गइल रहे, खाली अछूते ना असपीरीसो रहि गइल रहे। ए बाति से ओके अभिमानो रहे। इस्तीरी खातिर एगो पुरुष समाज में आ के बचल रहल एगो बड़ि बाति होला, आ फेनु भारत अइसन ‘नव-संस्कृत’ समाज में जवना में अचार-बिचार कऽ पुरान सास्त्र नष्ट हो गइल होखे आ नया ‘स्टैंडर्ड’ ना बनि पवले होखे, उहवाँ स्त्री के अपनी सील कऽ इच्छा कऽ पावल बहुते मोसकिल काम होला। मीरा इहे महान काम बहुते सफलता की साये कइले रहे, तऽ एफेर ओकर अभिमान अनुचित ना रहे।

ए समे टहरे खातिर घरे से निकलि के पैदल घुम्मत खानी मीरा एही बाति पऽ बिचार करति रहे। मने मन उनहन लोकन के गिनत रहे जवन ओकरी अर्दली में आइल रहे लोग, लवन लोग ओकरी जीवन की रंगशाला में पारट टाइम अदा करत रहे, केहू नाचि के, केहू झल्ला के केहू हँसि के, केहू रोआइन मुंह बना के, अउरी जिनहन के एक एक कऽ के ओकरी मंच से हटा दिहले रहे। ए लिए निहचिते ऊ अपनी ए सफलता खातिर अपने के बधाई दे सकत रहे। ‘कीचड़ में कमल’ कऽ उपमा साइतन एगो अनुचित डींग होखे, लेकिन ऊ आपन तुलना ओ मधुमक्खी से जरूरे कऽ सकत रहे जवन भाँति-भाँति की फूलन कऽ रस ले के मधू ‘एकट्ठा करे ले, लेकिन आपन पाँखि ओम्में कब्बो ना लपेटाए देले।

इहे कुल सोचति मीरा टहलत चलति जात रहे, लेकिन ऊ खुस ना रहे। ऊ अपने के बधाई देत जात रहे लेकिन ओकर मन मुरझाइल रहे। ओकरी बधाई कऽ शब्द जइसे अर्थहीन रहलँ सऽ। ऊ उनहन के दोहराइयो-दोहरा के तनिको संतोख आ चाहे अनंद ना खींचि पावत रहे। आकर गोड रस्ता प लगातार पड़त जात रहलँ सऽ, इहे ओकर टहरल रहे।

मीरा कऽ रस्ता पूरा निरबिधिन ना रहे। साँझि होत आवत रहे, आ सेर करे वाला बहुते लोग बूढ़, लइका, अउरति अपनी-अपनी घर घोसला की ओर चऽल दिहले रहे। तब्बो ओ साँकर रस्ता प कवनो सइकिल प सवार नवयुवक सैलानी निकलि आवत रहे आ मीरा की लग्गे से सरसरात निकलि जात रहलँ सऽ आ तब मीरा के चिहा के एक ओर हटे के परत रहे। ओ ढंग कऽ सेलानी बिना रोसनी कऽ घरे से निकले लँ सऽ आ फोनु समें पा के आ तंग जगहि पा के खूबे तेज से घरे की ओर सइकिल दउरा देलँ सऽ। घंटी बजावल, आ चाहे बिरेक लगावल तऽ उनहन खातिर महापाप कऽ गौरव पावल होला आ जवन तनी अउरी मनचला होलँ सऽ ऊ तऽ हण्डिलवो के हाथे से छूअल अनुचित समुझे लँ सऽ। तब एगो अवस्था अइसन आवे ले कि सतयुग से हमनी कऽ युग बढ़त चलल जात बा। सतयुग में लोग परलोक की तलास में घुम्में आ ओके पा ना पावत रहे, अब त परलोके मुँह बवले घुम्मत बा आ पैदल चले वाला लोगन के आपन जान बचा के भागे के परत बा।

अइसन बाति ना रहे कि मीरा के ए ढंग की लोगन पऽ किरोध ना आवत होखे- साहस तऽ ओकरी में खूब रहे आ खतरा क निसा तऽ ऊ खूबे पहिचानत रहे, लेकिन ओ समें तऽ ओके अकारने किरोध आइल रहे। ऊ भितरे भित्तर कूढ़त रहे। ओकरी मन में बार-बार खुजली होत रहे ऊ केहू से तनी कडेर बेवहार करे, केहू से लड़े, बहुते खराब ढंग से पेस आवे, केहू के चोटि पहुँचावे आ कवनो चीजु के बिगाड़ देव।

काहें, कइसे, केकर ई सब ओकरी आगे साफ ना रहे, लेकिन ओकर मन मानुस-मात्र खातिर एगो तेज अप्रीति से लबालब भरल रहे आ छलकि परत रहे।

समने से जे लोग सइकिल पऽ आवे, मीरा ओके घूरि के देखे। जे तनी देखले में खराब रहे ऊ ओकरी किरोध से बचि जा लेकिन ओकरी अलावा दूसरे लोगन पऽ ऊ अइसे नजर डाले जइसे उनहन के भसम क देई।.... सगरो आवत जात अदिमिन पऽ ओकर रोस बढ़ते जात रहे। अखिरी में एगो अइसन अवस्था आइल की ओकरी खातिर ए उबलत किरोध आ रोस के दबावल मोसकिल हो गइल। आ जइसे ऊ काज की रूप में फूटि के निकलल चाहत रहे।

तनी दुरहीं से सइकिल कऽ घंटी बाजल सूनि के मीरा चौंकि गइलि आ फेनु रस्ता से एगो टूटल छोट खानी डारि उठा लिहलसि। सम्हनवे सड़की कऽ मोड़ रहे। साइतन एही खातिर ओहँर से आवत सइकिलिहा घंटी बजवले रहे। धुधुराह में मीरा तबके आके ना देखि जबले रहे जबले ऊ नगिच्चे ना आ गइल रहे। आ तब ऊ हाथ में उठावल छोटहन खानी डारि सइकिल की पहिया की निच्चे फेंकि दिहलस।

सइकिल तेज जाति रहे एसे डारि ओकरी तिल्ली में अडकि गइल, सइकिल एकदम लड़खड़ाइल आ रूकि गइलि। सवार ओप्पर से उछरि के छः सात फुट दूरे औंधे मुँह गीरि गइल। एगो बाँहि से सइतन ऊ आपन मुँह बचवलसि, लेकिन ओकर कपार सड़की की किनारे एगो फेंड़ से टकरा गइल।

सइकिल छन भर बिना सवारे क खड़ी रहल, फेनु कुछ इंच आगे बढ़ि के एक ओर गीरि गइल।

बिजुरी की गति से हो जाए वाली ए घटना कऽ पहिली परतिकिरया मीरा की मन में अनंद की रूप में परगट भइल, ऊ अनंद जवन बिजयी भइल की बाद होला, जब बहुते दिन की असफलता की बाद एक दिन अचनके सफलता मिलला की बाद होला। दूसरे छन ऊ समाझि गइल कि ई उत्साह उलास जीत कऽ नाहीं, कवनो काम कऽ लिहले कऽ नाहीं, बलुक उलास ए बाति क बा कि समने कुछ काम करे के बा। कैदी के जब जेलि से मुकुती मिलेला, तऽ एक तरे कऽ अनंद ओके होला लेकिन ए समें मीरा के जवन अनंद होत रहे ऊ बहुत दिन से कालकोठरी में निकम्मा परल कैदी के ओ समे होला जब ओके मशक्कत दिहल जाला फेनु ऊ चाहे पत्थर कूटे आ ‘जगाई’ आ चाहे कोल्हू काहें ना होखे? मीरा लपकि के ओ अदिमी की लग्गे पहुँचल। ऊ सड़की मऽ पसरल परल रहे। ओकरी देहिं में कवनो हलचल ना रहे। मीरा ओकर गट्ठा (कलाई) पकड़ि के देखलसि, ऊ नबुजो ना पा पावत रहे। ऊ ओ नवजवान कऽ मूड़ी उठाके देखलसि, ऊ भारी जनाइल आ एक ओर डगरा गइल।

तब मीरा अचनके घोर चिंता से सिहर उठलि। आँखि फारि-फारि के ऊ देखे लागल, कब्बो नवजवान की ओर, आ कब्बो सइकिल की ओर, कब्बो अपनी ओ हाथे की ओर जवने ऊ डारि सइकिल की पहिया में अड़कवले रहे।

बहुते शोर की बाद अगर अचनके मौन हो जाला तऽ अइसन लगे ला कि हमनी की भित्तर से कवनो चीख उठत बा आ एकदम्में सांती हो पावेला। मीरा की भित्तरों केहू अचनके पुकार उठल की सड़की पऽ केहू नइखे, आस-पास केहू नइखे आ घुमले कऽ, सएरि कइले कऽ समें खतम हो गइल बा।

अउरी बरिसन बाद अब मीरा कऽ नई सिच्छा ओकरी कामें आइल। ऊ बिना कवनो संकोच के ओ अंजान युवक के घुमा के सीधा कइलसि आ ओह, लार्ड! कहि के बाँही में उठा लिहलसि। ओकर ओजन अधिकी रहे, लेकिन परिताप में तऽ दानव जइसन ताकिति होले।

लगभग डेढ़ फर्लांग चलि के मीरा एगो चौराहा पऽ पहुँचलि, जहवाँ एगो खाली बेंच परल रहल। मीरा हाँफत ‘हुफ्फ’ कऽ के युवक के ओप्पर डालि दिहलसि। फेनु कुछ कदम आगे बढ़ के एगो ताँगा (एक्का) वाला के पुकरलसि आ ओकरी मदति से युवक के एक्का में लादि के कहलसि- ‘अस्पताले चलऽ!’’

‘कानकशन ऑफ द ब्रेन’। कानकशन। कानकशन आफ द ब्रेन’। ब्रेन। कानक्शन ऑफ द ब्रेन। अस्पताल की दुर्घटना वारड की बहरा बरमदा में मीरा बइठि गइलि। ओके ओही तरे बइठल करीब पवन घंटा बीति गइल बा। बेंच पऽ ऊ एकदम सीधा बइठलि बा, मुँह पऽ तनिको मलिनता नइखे। कवनो तरे क गति नइखे। ऊ आँखिओ नइखे झपकावति। लेकिन एतनी काल कऽ ऊ निच्छल तनाव ई बतावत बा कि ओकरी भित्तर कइसन असंती भरल जात बा।

अइसन लागत बा कि मीरा अपनी नाड़ी-स्पन्दन की साथे ताल देत गिनत जा रहल बा कि ओ घटना के केतना देरी हो गइल बा, हर सेकण्ड अउरी केतनी देरी होति जा रहल बा। आखिरकार डक्टर बहराँ आ के असुवासन देत कहलँ, ‘‘अब चिंता क कवनो बाति नइखे।’’

‘‘का?’’

डक्टर अपनी अवाजि में तनी घनिस्टता आ वतसलता ले आके पूछल, ‘‘ई तोहार कवनो सम्बंधी हवँ का?’’

मीरा जल्दी से बोललसि, ‘‘नाहीं सड़की पऽ एगो दुरघटना हो गइल रहल, ओहीं जा से... डक्टर तनी बदलल अवाजि में दैनिक बेवहार की तरे तब्बो तनी दया भरल अवाजि में कहलँ, ‘‘कवनो चिंता कऽ बाति नइखे। बचि जाई।’’

मीरा बेंच पऽ से उठि के एक कदम चलि दिहलसि। डक्टर कऽ बिनय भाव वाला परसंसा सविकार करे आ चाहे सुनहू खातिर ऊ ना रूकलि- ‘‘आपकऽ सहिरदयता।’’

मीरा घरे लउटि के सीधे अपनी कमरा में चलि गइल आ धड़ाक देनी दरवाजा बन कऽ के खिड़की की लग्गे बइठि गइलि। खिड़की आधा खुलल रहे, आधा दूर कऽ लगल रेसमी छींट कऽ परदा हवा की हल्लुक छोंका से मदमातल झुम्मत रहे, कब्बो भित्तर की ओर आ कब्बो बहराँ की ओर। दूरे गझीन साफ नीला असमान में तारा टिमटिमात रहलँ सऽ। मीरा के इयाद आइल, जब ऊ घोर अकंच्छा से भरि के ओ बेहोस युवक की बन पलकि के खोलि के भित्तर झँकले रहे, तब ओम्में एगो सोभाविक अलोक बुझाइल रहे। अतमा कऽ ऊ दुआरि बन ना भइल रहे, लेकिन ओकरी आगे एगो छीन परदा छवले रहे। ओ फीका परल चेहरा में ऊ जबरदस्ती खोलल आँखि अइसन लागत रहली स जइसन.....।

लेकिन ऊ ना चाहत रहे ओ युवक की बारे में सोचल। ओ के का अब ओ युवक से? ऊ ओके अस्पताल पहुँचा आइल, आ ऊ अब ठीके बा। मूई ना अब।

लेकिन ओकर चेहरा मीरा की आँखी की समने फिरे लागल रहे।

नाहीं मीरा तनी आपन ओठ काटि लिहलसि। ऊ ना देखी ओ चेहरा के, ऊ पीड़ा से सिकुड़ल देहिं। ऊ ना देखी।

लेकिन का ना देखी, दोहरावत ऊ बेर-बेर ओकर चेहरा देखति जात रहलि। ऊ फेनु ओठ काटि लिहलसि आ मुट्ठी घोंटि लिहलसि।

एगो मुट्ठी में अबहिन ले ऊ फूल दबावले रहे, जवन ऊ टहरत समें रस्ता की किनारे लागल कियारी से तुरले रहे। अबले ले ऊ ओ के मुठिये में लिहले रहे।

मीरा कऽ देहिं ढील परि गइल रहे, ओकर देरी ले कऽ संचित तनाव मेटाए लागल रहे। ऊ इहथिर अनदेखल नजर से ओ फूल के देखे लागल।

मुरझाइल, कचराइल, गरमी, पसीना आ दबाव से आपन सफेदी छोड़ि के करिया परल फूल।

ओ के आपन डींग इयादि आइल। ‘पंक’ से ‘पंकज’ त नाहीं, लेकिन हँ, ऊ ऊ मधुमक्खी जरूर बा, जवन अपनी संचित कइल गइल मधु में आपन पाँखि ना लपेटे ले, ना फँसेले, मुक्त रहेले... अछूत। असपिरिस्य....।

अब ऊ फेनु आपन होठ काटि किहलसि.... अबकी बेर कुछ भुलाए खातिर ना। एक पारी खाली ओ सबद का उच्चारन रोकि देबे खातिर, जवन ओकरी सगरो बिदेस की सिच्छा, समता अउरी संस्कृति के निचोड़ि के बनल ओकरी ओठे ले आइल रहे- ‘‘डेम!’’

तबले अचनके ओकरी आँखी से आँसू गिरे लागल। सबदहीन, लेकिन बड़-बड़ गोल-गोल आँसू।
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लेखक: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
अनुवादक परिचय:-
नाम: डॉ. त्र्यम्बक नाथ त्रिपाठी
असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी
महाराजा अग्रसेन कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली

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