भाषा, भोजन, भुजा कि भाषण के सवाल के खोंप,
कइसे मानीं ई सब ह खट्टा अंगूर के झोंप।
आलस के केंचुल, माथा पर छतराइल अभिशाप
भोथराइल जे बान का करी चढ़िए के ऊ चाप।
फूट गइल ई आँख बिछाईं कब तक इनका के हम
असगुन, आशा, सगुन कि कइसे होखे मनवाँ पेहम?
चारो ओर अँधेरा, कहवाँ तनिको कहीं अँजोर?
माया, दया, त्याग, करुणा ना, खुदगर्जी के जोर।
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लेखक परिचय:-
नाम: गोपालजी ‘स्वर्णकिरण’
जनम: 16 मार्च 1934
जनम थान: आरा, भोजपुर, बिहार
परमुख रचना: चारो ओर अन्हरिया, ले के ई लुकार हाथ में, सँझवत आदि
अंक - 83 (7 जून 2016)
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