आजु हमरा के नियरा बइठा के
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ।
दुनियाँ–समाज के रहन सभ
हमरा के विस्तार मे बतउनी हँ।
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ॥
राजनीति के रहतब–करतब
एनी ओनी के ताक-झाँक
बोली ठिठोली के मतलबों आ
नीक–निहोरा क आईना देखवनी हँ।
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ॥
लोक-परब के मर्यादा भी
बेमतलब के अक–बक मे
साँच झूठ आ सुभूमि कुभूमि
जीयला क मरमों बतउनी हँ।
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ॥
घर दुअरा के सिकुड़न मे
रिस्ता निभवला के बिपत होला
हाड़ी पतरी औरो गाँव देहात मे
परसिद्ध मनईन के चरित्तर जनवनी हँ।
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ॥
एगो अलगा पहचान के मंतर
समवेत स्वरन के अनंतर से
मिजाज के नेह छोह क उड़ान
मित्तर संहतिया के माने गुनवनी हँ।
बाबूजी बहुते कुछ समुझवनी हँ॥
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएं