करनी के फल - केशव मोहन पाण्डेय

महंथ जेतने सीधवा हवें ओतने ईमानदारो हवें। दगाबाजी से कई कोस दूर रहेलन बाकीर करीको करेजा के लोग से साधुए नीयर बतीआवेलन। ऊ सोचेलन कि सभे अपना करनी के फल भोगबे करेला, तऽ हम आदमी होऽ के काहें आपन परलोक बिगाड़ीं। 
गाँवन में ई ढेर देखे के मिलेला कि तनीक लउके भर जमीनो वाला आदमी भी मोट गुने मतवा बनल रहेला, बाकीर महंथ में ई कवनो ओर से झलकबो ना करेला। गाँव के कई जाना उनसे ईर्ष्या रखेला लोग, बाकीर सगरो जानते हुए भी उनकर मन गंगा जल बनल रहेला। महंथ जेऽ तरेऽ खाये-पीये में मन बदलत रहेलन, ओही तरेऽ खेतीओ में कई रंग देखावेलन। ऊ मानेलन कि धरती माई के हँसी में ही किसानन के खुशी छुपल रहेला। पुरखन के आशीष से उनके लगे पाँच बिघा जमीन बा। . . पछिम टोला में सबसे अधिका आ सबसे ऊँचास पर। सबसे हलगर आ सबसे ऊपजाऊँ। सबके फसल जब बरसात के खीस आ गंगा माई के पेट में पड़ जाला, बाकीर महंथ के खेत खातीर आशीष हो जाला। ऊ पैतालीस-पचास के होत होइहें, बाकीर मलिकाइन ललिता के कोख टाँड़े रहलऽ। उनका मन मारला पर महंथ ढाढस देलन, - ‘प्रभु के नजर होई तऽ तहरो अँचरा मँहकी ललिता। . . खाली एतना देखत रहीहऽ कि केहू दुआर से मन थोर कऽ के नाऽ जाव। . . भले अपना खातिर सीधा-बारी ना होखे तऽ का हऽ, दोसरा के भूख ना माराव।’ 
ललिता अपने पति परमेश्वर के ई भावना पर कबो सीना फूलावेली तऽ कबो तरस खाली। मने मन बुदबुदाली, - ‘ई जुग में अइसन सीधवा आदमी! . . तबो ऊपर वाला किरपा नइखन करतऽ।’
महंथ खातीर ई सगरो गँउवे आपन परिवार हऽ। गाँव के सगरो लइका आपने संतान हँवे सों। लइकन के हँसी-किलकारी बटाइल बा काऽ? लइकन से कवन द्वेष? लइकन से कवन बैर? लइका तऽ भगवान के रूप होले। भगवान खातीर के आपन, के बीराना? . . काऽ भगवान कबो केहू से बैर कइले बाड़े कि हमनी के करेऽ के चाहीं? . . ऊ एही भाव के मनका मन में घूमावत सबेरे-सबेरे लाठी कंधा पर ले केऽ खेत आ टोला के एक चक्कर जरूर लगावे ले। खेत घूमत अइहें तऽ सबसे हाल-चाल लेत अइहें तले किरीन कपार पर आ जाई। ललिता के भी काम बटाइल बाऽ। उठते धवरी के नाद पर बान्ह के झाड़ू-पोंछा में लाग जाली। 
ललिता आ महंथ के ईऽ छोटका संसार मन में मसोस रखला के बादो बड़ा गदगद रहेला। ओह लोग के प्रसन्नता ओह लोग के देखतहीं लउक जाला। दिल एक दम दर्पण। मन में ना कवनों मइल, ना कवनो मलाल बा। ना तिरछोलई राखेला लोग, आ ना भावेलाऽ। मन के साथे-साथे भगवान ओह लोग के तनो स्वस्थ देहले बाड़े। सुहाग के निरोग से ललिता भी निरोग रहेली। महंथ तऽ ऊपर वाला के प्रसाद समझेलन। उनकरो चेहरा पर अजीब चमक रहेला। चेहरा चौड़ा तऽ बड़ले बाऽ, सीना भी छौ फूट्टा जवान जइसन चौड़ा बाऽ। कजरौटा के आभा लिहले आँख में एगो अद्भूत चमक रहेलाऽ। बड़का बाल वाला मोंछ पर बिना बनवलहीं ताव रहेला। उनकर बनावट आ डीलडौल देख के बड़का-बड़का अनुभवी लोग भी चकमा खा जालें। आज ले केहू उनकर सही उमीरीए ना बतावल। गरदन में करीआ डोरा में कपड़ा के ताबीज आ कंधा पर एगो गमछी महंथ के एगो अलगे पहचान बनावेलाऽ। 
ललिता मझीला काठी के एगो सुघर गृहिणी हई। गोर भभुका आ गोल-मटोल चेहरा पर उनके भंटा जइसन बड़की आँख उनके और आकर्षक बना देले। भरल देंह पर प्रीत के भाव ओह नारी के नारीत्व के निखार हऽ। आज एहू उमीर के केहू के नजर ललिता के रूप पर तनी डंडी मारीए लेबे के चाहेला। ऊहो मन में हमेशा ईश्वर के गुणगान करेली आ पति के परमेश्वरे जइसन आदर देलीऽ।
सावन के झपसा अपना जवानी पर बाऽ। आपन करीका मुँह लेहले बादर आकाश से धरती रानी के निहारत बाड़े सों आ लहलहात हरियाली देख के अपनो भूमिका पर खुशी लुटावत बाड़े सों। झपसा में लसीआइल रसगर हवा ओह बादरन के अपना अँगुरी के ईशारा पर मनमौजी उड़ावत बिआ। गाँव से तनी बहरी भइला पर जेने देखऽ ओनहें, धरती धानी चुनरी में सजल बाड़ी आ तरह-तरह के फसलन के खेती से साज-सिंगार कइले बाड़ी। बरगद के पतइन में लुकाइल कोइलर कबो बोलावत बिआ तऽ कबो उतरही गड़हा के किनारे से पपीहा के पुकार सुनाताऽ। आम के अन्हारी बारी में बगुला अपना खोंता पर पाँख फैला के रखवारी करत बाड़ें सों तऽ कबो अमरूद के गाछ पर बइठल मिट्टू राम टें-टें कऽ के हूँ में हूँ मिलावत बाड़ें। 
महंथ अपना खेत के किनारे बइठ के खुश होत बाड़े आ मने मन मुस्कातो बाड़े। ऊ एतने खेतवा में कहीं मकई बोअले बाड़े, कहीं एके में रहर आ कोदो, तऽ कहीं मोथ-बाजरा, आ बाकी में धान। महंथ दूर से ही जाटा के एनहे आवत देखलन तऽ मन में कुछ खटका भइल। जाटा उनका खातीर कबो भलाई ना चाहेलन। ऊ गरज पड़ला पर महंथे से ही पँइचा-उधार लेत रहे लेऽ बाकीर हमेशा उनकर नुकसाने चाहेले। सगरो टोला काऽ, पूरा गाँव जानेला कि उनका मन में महंथ खातीर काई रहेला।
जाटा के एक बिघा जमीन बाऽ बाकीर एगारे गो भँइस पोसले बाड़े। सात गो छोट से बड़ ले बेटा आ दू गो बेटी। घर भर भँइसन के सेवा में लागल रहेला आ ओकनीए के परताप से निमन चिकन चलेला। उनकर तीनो बड़का बेटा साइकिल पर शहर में जा के दूध सप्लाई करेलें सों। ऊ जब लगे अइलन तऽ महंथ आपन अदब ना भूलइलन। आवते पूछलन, - ‘एह साल फसल के का हाल बाऽ जाटा भाई?’
‘गंगा माई नाराज ना होइहें तऽ नगदे कटी एह साल।’ - जाटा कहत रहलन, - ‘बाकीर तहार फसल तऽ बड़ा लहर मारताऽ। एह साल तऽ तहरा दू-चार गो अउरी बखार बनवावे के पड़ीऽ।’
‘ई सब तहार आशीष आ गंगा माई के छोह बाऽ। . . तहार नजर रही तऽ जरूर बखार बनी।’
‘हमार नजर तऽ बड़ले बाऽ भाई।’ - जाटा बड़ा तिरछोलई से कहलन आ करीका मुस्की मारत चल दिहलन। किरीन के पछिम जाए के बेरा आइल तऽ फेर से सावन के लड़ी लाग गइल। महंथ घरे आवत-आवत चभोराऽ गइलन।
सावन के ऊ लड़ी तीन-चार दिन ले चलल आ एही में महंथ के बुखार धऽ लिहलस। बुखार के कारण ऊ खेतन के दर्शनो करे ना जाऽ पइलन। आज जाऽ के मौसम तनी साफ भइल हऽ तऽ इनकरो जीव टूकटूकाइल हऽ। मन हरिहर होते लाठी कंधा पर धऽ के चल दिहलन। अभीन दू-चारे डेग बढ़ल रहलन कि निजमवा आइल, - ‘ए काका! . . अरे मर्दवा, . . तू एहीजा बाड़ऽ आऽ तहरा खेतवा में आठ-दस गो भँइस पड़ल बाड़ी सों।’
महंथ से छाती भाती जइसन तेज-तेज चले लागल। उनका कदम में मोटर के गति हो गइल। धावत गइलन। कई बेर गोड़वो बिछलाइल। लाठी ना रहीत तऽ मुँह फूट गइल रहीत। खेत देखलन तऽ कपारे हाथ धऽ के बइठ गइलन। सगरो खेत सफाचट हो गइल रहे। सफाचट ना, ऊ तऽ चरावल रहे। काहें कि खेतवा में आदमीयो के गोड़ के चिन्हा लउकत रहे। भँइसन के खुर के पिछा कइलन तऽ चिह्न जाटा के दुआर ले आइल रहे।
ऊ घटना के एक हप्ता हो गइल। पीड़ा तऽ ढेर भइल। अपना मेहनत आ अपना खेत पर भइल एह अत्याचार के एगो बाउर घटना समझ के भूलाए के चहले। ललिता के आँख से तऽ लोर के लड़ीए ना सूखे। महंथ हिम्मत देहले कि जेऽ जइसन करीऽ, ओके ओही तरेऽ फल मिली। बसल घर, हरिहर खेत आ मधुमक्खी के बास उजाड़ल सबसे बड़का पाप हऽ पाप। भगवान सब पाप अगर एक बेर माफो कऽ दिहें तऽ एह पाप के ना माफ करीहें। . . दूनो परानी के दिल कई टुकड़ा हो गइल रहे। ओह लोग के नाऽ घर के काम में मन लागे, ना बहरी केऽ। धवरीयो कई दिन से भर गाल कुछ खइले ना रहे। धवरी के ईयाद आवते ललिता उठली कि रवीन्दर चैबे कई लोग के साथे दुआर पर जुम गइले। महंथ पूछलन, - ‘काऽ बात हऽ चौबे जी?’
‘खेत खाय गदहा आ मार खाय जोलहा तऽ सुनले रहनी, बाकीर ई काऽ हऽ महंथ?’
‘कहवाँ का हऽ चौबे जी?’
‘तहार खेत तऽ गोरू चरऽ गइलें सों, . . तऽ अपना गइया खातीर हमार धनवा काहें कटलहऽ हो संत बाबा?’ 
‘काऽऽ? . . ई काऽ कहऽ तानी चौबे जी?’
रवीन्दर छँटकट्टा मशीन के लगे से एक पाँजा अपना खेत के काटल धान उठाऽ ले अइले। ई देख के महंथ पानी-पानी तऽ हो गइले, बाकीर ई खेल ना बुझाइल। पाछे से जाटा के मुस्की मारत देख के उनका नजर के भाषा पढ़ लिहले बाकीर कह ना पवलन। 
गाँव में महंथ के जवन प्रतिष्ठा पहिले रहल, ओह पर अब बट्टा लाग गइल रहे। महंथ अब एगो छोट लइको से नजर मिलावे के साहस ना बटोर पावें। उनका करेजा में एह घटना से बड़ा गहरा घाव लागल रहे। एह चोट के दवाई कवनो बैद-जराह लगे ना रहे। उनकर मन अब कोठे-कोठे दउड़े लागल। कहीं चैन ना मिले। पता ना कवना करनी के सजा भगवान देत बाड़े। दोषी मस्ती में बा आऽ निर्दोष कुफुत में। काऽ हे भगवान? . . कब अँजोर होईऽ? . . हम तऽ ओह गलती के सजा भोगत बानी, जवन कइलहीं नइखीं। अब तऽ लागताऽ कि ईऽ घर-दुआर, ईऽ गाँव-नगर छोड़ले में भलाई बाऽ। एहीजा तऽ हम पटपटाइए जाएब। भगवान एको संतान ना देहले तऽ आपन किस्मत ठोक लेहनी। घर में केहू अउरी सहारा नइखे तबो किस्मत ठोंक लेहनी। बाकीर ई तऽ पानी मुड़ी से ऊपर बहे लागल। ना हम केहू से कुछ कहि सकतऽ बानी आऽ ना केहू सुनी। ना हमरा लगे जाटा के कवनो सबूत बा आऽ ना हमरा चाहींऽ। रहे जेकरा खुश रहे के बाऽ। हमार करेजा जराऽ के केहू चैन से नइखे रहि सकतऽ। . . . महंथ एकदम मन बना लिहलें कि अब ऊ ई गाँव छोड़ के कहीं अंते बस जइहें। बेचारू अब ना हाटे जास, ना खेत-खलिहाने। दिन भर दुआरी पर बइठल रहस। उनका में अब खेतवो में जाए के साहस ना रहे। अब ललिते खेत देखे जात रहेली। 
कई दिन बाद टहकदार सूरज निकलले। कई दिन के बरखा-बुनी के बाद समूचा धरतीए आज अँगड़ाई लेत रहे। रास्ता में जहाँ-तहाँ जवन किचिर-पिचिर भइल रहे, आज सूख गइला के उम्मीद रहे। टोला के लइका मछरी, घोंघा आ केकड़ा पकड़े निकल गइल रहलें सों। कहीं शीशैली गोली के खेल जम गइल तऽ कहीं चिक्का आ ठाढ़ी-टीका केऽ। पेड़न पर बइठल चिरइयो कुल चोंच से आपन पाँख साफ कऽ के आपन आलस भगावत रहली। माल-गोरू, सब देंह हिलाऽ-हिलाऽ के आपन मुर्चा छोड़ावत रहलें। सब कुछ ठीक रहे, सभे खुश रहे, बाकीर महंथ के चिन्ता बढ़त रहे कि संझा झोहे लागल, टोला के सभे आ गइल आ ललिता अभीन खेत से ना अइली। हिम्मत बटोरलन आ लाठी लेऽ केऽ चल दिहलन। घवरी खूँटवे पर से मुँह पगुरावत उनका के देखे लागल।
महंथ खेत में पहुँच के देखलन तऽ ललिता मुड़ी पर साड़ी के कोना धऽ के खेत सोहत रहली। लगे जा के कहलन, - ‘घरे चले के अभीन बेरा नइखे भइल का होऽ? . . अब का बचल बा कि लागल बाड़ूऽ?’ 
‘जवन गइल तवन आपन ना रहे बाकीर जवन बाँचल बाऽ ऊ तऽ आपन हऽ। . . सोचनी हँऽ कि ई पहीया पूरा कऽ दींऽ। . . कमजोरी के देंह। रउओ हार गइल होखेब। दू मिनट सुस्ताऽ लीं तऽ चलल जाला।’ 
‘हँऽ। . . कपार तऽ एतने में टनके लागल। . . ठीक बाऽ, . जल्दी करऽ।’
महंथ बइठे के चहलन तऽ लागल कि मकई के पतइया बोलावताऽ। मोथ आ बजरा बतिआवे के चाहऽ तारें। रहरीआ के छोटका पौधवा अँकवार में भरेऽ के चाहऽता। उनकर आँख भर गइल। फफकऽ पड़लन। धीरे-धीरे आधा घंटा बित गइल। बीमारी वाला देंह, महंथ के सोंचते-सोंचत नींद आ गइल। नीद में एगो बड़ा भयानक भूत के देखलन। ओकर कुछ-कुछ चेहरा जाटा से मिलत रहुए। ऊ भूतवा कई गो हथियार लेहले रहुए आ हरिहर साड़ी में सजल एगो औरत के भगावत रहुए। ललिता जगवली आ देखल सपना पर चर्चा करत दूनो जना घरे चल दिहल लोग। 
पति-पत्नी के साथ तऽ जीवन के मँहकदार बनावेला। भले महंथ आ ललिता के जीनगी में चाँद जइसन सूरत नाऽ उतरल तऽ का हऽ, एक-दूसरे के सुख-दुख बाँट के दूनो परानी बड़ऽ-बड़ऽ बिपत के ठेंगा देखावत आइल बाड़ें। दूनो जने आज ले अपने ओर से कुछ बिगाड़े के ना चहले आ दोसरा के बाउर नजर के भगवान के भरोसे छोड़ देलन। . . टोला में पहुँचते घेंवड़ा-तिरोई के साथे लौकी-कोंहड़ा के मँहक मन के मदहोश करे लागल। सबके घर पर एह घरी ईऽ मौसमी फरहरी के लत्तर देखे के मिलेलाऽ। केहू-केहू के आँगन में ललका पताका फहरावत महावीर जी के ध्वजा भी लउकेलाऽ। . . . दूनो जाने जब अपना दुआर पर पहुँचल लोग तऽ देखल लोग कि धवरी अपना गोंसया के जोहत-जोहत सुत गइल रहे। घास के बोझाऽ पटक के ललिता भीतर चल गइली। महंथ धवरी के उठाऽ के नाद पर बान्हें खातिर गइलन। ऊ नाऽ उठल। कई बेर जोर लगवलन के अहवा तऽ ना धऽ लिहलस, बाकीर ऊ मुँह से गाज फेंक के बड़का नींद में सुति गइल रहे। महंथ डेकरले। ललिता दउड़ली। टोला के लइका-सेयान आ मरद-मेहरारू भी आ गइल। जाटा भी अइले। आवते महंथ के कंधा पर हाथ धऽ के कहलन, - ‘हे भगवान, . . ई काऽ भइल प्रभु? . . आरे, धान कटले महंथ आ सजा मिलल धवरी केऽ?’
महंथ जब जाटा के देखलन तऽ दूनो जने के नजर एक-दूसरे के मन के भाषा भी पढ़ लिहलस। महंथ खातीर जाटा के बात जरला पर नून मलत रहेऽ। कुछ कहले ना। सगरो बीख पीऽ केऽ रहि गइले। 
महंथ के एह गाँव से अब एक दम चित्त फाट गइल। गाँव! जहाँ एह शब्द से सूखल मन भी हरिहर हो जाला। जवना शब्द के सुनतहीं मन में प्रेम, सद्भाव, सेवा आ समर्पन के मोहक इंद्रधनुष बन जाला, आज के ओह गाँव के माहौल अब अइसन क्लेश आ दुश्मनी के हो गइल। ऊ जानत रहले कि एह सब करनी के पाछे जाटा के हाथ बा, बाकीर मुँह से कुछ ना कहले। जाटा से खाली एतने कहलन, - ‘जाटा भाई, . . तूऽ हमार सगरो जमीन ले लऽ। अब हमनी के ईऽ गाँव में नाऽ रहेब जाऽ।’ 
‘एह तरे हिम्मत मत हार भाई! . . सब ठीक हो जाई।’
‘बड़ा मन मार के हमनी के ई नतीजा पर पहुँचल बानी जाऽ। . . ऊ मानुष तऽ सबसे अभागा होला, जवन अपना माटी के छोड़ेऽ। . . अरे, हम कहऽ तानी कि ई जमीन तहरा ढेर कामे आई। ले लऽ।’ 
जाटा आधा जमीन लेबे के तैयार भइलन। आधा परधान जी लेबे के कहले। जाए के तैयारी होखे लागल। महंथ ना जाने काहें हरदम मने मन कुछ सोचते रहेंऽ। सूख के कंडा हो गइले। जाटा जहीया जमीन लिखवले ओह दिन गाय के घीव में सँझवत जरवले आ आधा रात ले मछरी भुजाइल, पाउच फराइल। 
आज ऊ दिन आइए गइल जब महंथ के ई गाँव के गोड़ लागे के बाऽ। उनका देंह में तऽ तनीको दम रहल नाऽ, से जाटा गाँव दू-चार गो छवारीकन के लेअइले आ बेरा कपार पर चढ़त-चढ़त सगरी सामान दूऽ गोऽ बैलगाड़ी पर लदाऽ गइल। गाँव भर के लइका-जवान, मरद-मेहरारू मजमा लगवले रहलें। सभे बड़ा दुखी रहे कि एगो सुख-दुख में साथ देबे वाला परिवार पराऽ ताऽ। कवनो मेहरारू के विचार रहे कि दैब अगर एगो सोंझो-टेढ़ लइका देहले रहते तऽ एह लोग के मन ना टूटीत। सबके आपन-आपन विचार रहे। सबके सब बात सुने तऽ सभे, बाकीर जवाब केहू ना देऽ। ललिता गाँव छोड़ला के कुफुत के साथे-साथे महंथ के बीमार शरीर से अउरी चिंता में रहली। कुछ बोलें तऽ हइए नाऽ, खाली लोर पोंछें। महंथ तऽ खाली टूकूर-टूकूर सबके देखें आ बेर-बेर धरती के गोड़ लागें। 
बैलगाड़ी नधाए के भइल तऽ जाटा उठले, महंथ के काँख में हाथ लगा के लेअइले आ बइठा देहले। बैलगाड़ी पर सामान ढ़ेर रहे, से बैल जोरे ना मारेऽ सों। जाटा के तऽ लागल रहे कि केहू तरे हाली से ई लोग एह गाँव से विदा होखे लोग कि चादर तानाव। अपना ललका गमछा के पगड़ी बान्हत बैलन के हूरपेटे लगले। जोर ना लागल तऽ आगे से पालो उठाऽ के खींचे के जोर लगवले। जाटा जइसहीं जोर लगवले कि उनका ललका गमछी से दूनो बैल बिदक गइले सोंऽ। बँयवार तनी ढेर बिखिआह रहे। एक्के जोर में उनका के सींग से उठाऽ के दूर फेंकलस। गबरू-जवान जाटा हवा में नाचत जाके धवरी के खूँटा पर गिर गइले। सभे चिहाऽ के दउड़ल। महंथो धीरे-धीरे डेगत पहुँचलन। 
धवरी के खूँटा से पेट फाट गइल रहे। जाटा ओल्ह गावे चल देहले रहले। ललिता तऽ देख के काँपे लगली। महंथ एगो लमहर साँस लेहले आ अपना गमछी से मुँह पोंछत बैलगाड़ी के लगे आ गइले। केहू के कहल सभे सुनल कि ‘हर करनी के फल एही जनमवा में भोगे के बाऽ ए भाई।’

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लेखक परिचय:-

2002 से एगो साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ के संचालन।

अनेक पत्र-पत्रिकन में तीन सौ से अधिका लेख, दर्जनो कहानी, आ अनेके कविता प्रकाशित।
नाटक लेखन आ प्रस्तुति।
भोजपुरी कहानी-संग्रह 'कठकरेज' प्रकाशित। 
आकाशवाणी गोरखपुर से कईगो कहानियन के प्रसारण, टेली फिल्म औलाद समेत भोजपुरी फिलिम ‘कब आई डोलिया कहार’ के लेखन अनेके अलबमन ला हिंदी, भोजपुरी गीत रचना. 
साल 2002 से दिल्ली में शिक्षण आ स्वतंत्र लेखन.
संपर्क –
पता- तमकुही रोड, सेवरही, कुशीनगर, उ. प्र.
kmpandey76@gmail.com
अंक - 43 (1 सितम्बर 2015)

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