रमि रमिता सों गहि चौगानं, काहे भूलत हो अभिमानं।
धरन गगन बिच नहीं अंतरा, केवल मुक्ति भैदानं।
अंतरि एक सो परचा हूवा, तब अनंत एक में समाया।
अहरिण नाद नैं ब्यंद हथोड़ा, रवि ससि षालां पवनं।
मूल चापि डिढ आसणि बैठा, तब मिटि गया आवागमन।
सहज षलांण, पवन करि घोड़ा, लय लगाम चित चबका।
चेतनि असवार ग्यान गुरु करि, और तजो सब ढबका।
तिल कै नाके त्रिभवन सांध्या, कीया भाव विधाता।
सो तौ फिरै आपण ही हूवा जाको ढूँढण जाता।
आस्ति कहूँ ता कोई न पतीजै बिन आस्ति (अनंत सिध) क्यूँ सीधा ।
गोरष बोलै सुनौ मछिन्द्र हरै हीरा बीधा।।
धरन गगन बिच नहीं अंतरा, केवल मुक्ति भैदानं।
अंतरि एक सो परचा हूवा, तब अनंत एक में समाया।
अहरिण नाद नैं ब्यंद हथोड़ा, रवि ससि षालां पवनं।
मूल चापि डिढ आसणि बैठा, तब मिटि गया आवागमन।
सहज षलांण, पवन करि घोड़ा, लय लगाम चित चबका।
चेतनि असवार ग्यान गुरु करि, और तजो सब ढबका।
तिल कै नाके त्रिभवन सांध्या, कीया भाव विधाता।
सो तौ फिरै आपण ही हूवा जाको ढूँढण जाता।
आस्ति कहूँ ता कोई न पतीजै बिन आस्ति (अनंत सिध) क्यूँ सीधा ।
गोरष बोलै सुनौ मछिन्द्र हरै हीरा बीधा।।
--------------संत गोरखनाथ
अंक - 43 (1 सितम्बर 2015)
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