धरनीदास जी कऽ तीन गो गेय पद

धरनीदास जी संत परमपरा क भोजपुरी क निरगुन कबी हवीं। रउआँ सभ खाती उहाँ के तीन गो गेय पद परस्तुत बा। एतना बड़ संत के बारे में कुछु कहल सुरुज के दिया देखवला के बरोबर होई। तीनों कबितन में ईश्वर से परेम के कहानी बा; बस अलगा-अलगा ढंग औरी नाँव से। कबी ईश्वर के आपन परेमी मानि के ए तीन कबितन में परेमी के गुन, परेमी से विरह औरी मिलन के बारे में मन के बात कहले बाड़े।
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पिय बड़ सुन्दर सखि

पिय बड़ सुन्दर सखि
पिय बड़ सुन्दर सखि बनि गैला सहज सनेह ।। टेक।।

जे जे सुन्दरी देखन आवै, ताकर हरि ले ज्ञान।
तीन भुवन कै रूप तुलै नहिं, कैसे के करउँ बखान ।। 1।।

जे अगुवा अस कइल बरतुई, ताहि नेवछावरि जावँ।
जे ब्राह्मन अस लगन विचारल, तासु चरन लपटावँ ।। 2।।

चारिउ ओर जहाँ तहाँ चरचा, आन कै नावँ न लेइ।
ताहि सखी की बलि-बलि जैहों, जे मोरी साइति देइ ।। 3।।

झलमल झलमल झलकत देखो, रोम रोम मन मान।
धरनी हर्षित गुनगन गावै, जुग जुग है जनि आन ।। 4।।
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बहुत दिनन पिय बसल बिदेसा

बहुत दिनन पिय बसल बिदेसा।
आजु सुनल निज अवन संदेसा।

चित चिवसरिया मैं लिहलों लिखाई।
हृदय कमल धइलों दियना लेसाई।

प्रेम पलँग तहँ धइलों बिछाई।
नखसिख सहज सिंगार बनाई।

मन हित अगुमन दिहल चलाई।
नयन धइल दोउ दुअरा बैसाई।

धरनी धनि पलपल अकुलाई।
बिनु पिया जिवन अकारथ जाई।
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             अजहूँ मिलो मेरे प्रान पियारे

अजहूँ मिलो मेरे प्रान पियारे।
दीन दयाल कृपाल कृपानिधि करहु छिमा अपराध हमारे।

कल न परत अति बिकल सकल तन, नैन सकल जनु बहत पनारे।
मांस पचो अरू रक्त रहित भे, हाड बिनहुँ दिन होत उधारे।

नासा नैन स्रवन रसाना रस, इंद्री स्वाद जुआ जनु हारे।
दिवस दसों दिसि पंथ निहारति, राति बिहात गनत जस तारे।

जो दुख सहत कहत न बनत मुख अंतरगंत के हौं जाननहारी।
धरनी जिन झलमलितदीप ज्यों, होत अंधार करो उजियारे।

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लेखक परिचय:-

जनम: 1616 ई (विक्रमी संवत 1673
निधन: 1674 ई (विक्रमी संवत 1731) 
जनम अस्थान: माँझी गाँव, सारन (छपरा), बिहार 
संत परमपरा क भोजपुरी क निरगुन कबी 
परमुख रचना: प्रेम प्रकाश, शब्द प्रकाश, रत्नावली

अंक - 25 (28 अप्रैल 2015)
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