चंद्रशेखर मिश्र जी के एगो गीत 'गाँव क बरखा' गाँव के जिनगी गुन गावत बे जेवन ओ सभ चीझ के बात करत बे जेवन हमनी रूपक लागी पर उँहा के समय के ई एगो सच हऽ।
----------------------------------------------------------
हमरे गाँव क बरखा लागै बड़ी सुहावन रे।।सावन-भादौ दूनौ भैया राम-लखन की नाईं,
पतवन पर जेठरु फुलवन पर लहुरु कै परछाईं।
बनै बयार कदाँर कान्ह पर बाहर के खड़खड़िया,
बिजुरी सीता दुलही, बदरी गावै गावन रे।। हमरे....
बड़ी लजाधुर बिरई अंगुरी छुवले सकुचि उठेली,
ओहू लकोअॅरी कोहड़ा क बतिया, देखतै मुरझेली।
बहल बयरिया उड़ै चुनरिया फलकै लागै गगरिया,
नियरे रहै पनिघरा, लगै रोज नहावन रे।। हमरे....
मकई जब रेसमी केस में मोती लर लटकावै,
तब सुगना रसिया धीर से घुँघट आय हटावै।
फूट जरतुहा बड़ा तिरेसिहा लखैत बिहरै छतिया,
प्रेमी बड़ी मोरिनियाँ लागै मोर नचावन रे।। हमरे....
--------------------------------------------------------------
अंक - 4 (11 अगस्त 2014)
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें