दोहा सलिला - संजीव वर्मा 'सलिल'

संजीव वर्मा 'सलिल' जी कऽ आठ गो दोहा जेवन जिनगी कई गो रंगन के बात बतियावत बाड़ी सऽ। हो सकेला रउआँ सलिल जी से सहमत ना होखीं लेकिन उंहा के बात के इनकार ना कऽ पाइब। अपनी दोहन में इहाँ के किसान, खेती, पानी, माटी, जंगल, झाड़, बेईमानी, सेवा के नाँव पर होखे वाला चोरी औरी धंधा पर आपन बोली ऊँच कइले बानी। कुछ अंगरेजी औरी हिन्दी के सबदनो के परियोग इहाँ कइले बानी जेवन आज के रोज-रोज के जिनगी औरी बोलचाल में आ गइल बा।
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घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
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जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार

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खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान

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विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार बा, अफसर बर पहचान

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घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम

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दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान

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आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर

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बुरबक चतुरान के पढ़ा, गढ़ दिहली इतिहास
सौ चूहे खा बिलौतिया, धर लीन्हीं उपवास

--------संजीव वर्मा 'सलिल'

अंक - 36 (14 जुलाई 2015)
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