एक मुठी सरसो बनाम भोजपुरिया - केशव मोहन पाण्डेय

गदराइल गेहूँ के खेत में, भा मसुरी-मटर के अगरात फूलवन के बीचे बा ऊँखि के जामत पुआड़ी के पोंछ पकड़ले भा अकेलहूँ अपना हरिहर देहिं पर पीअर अँचरा लहरावत सरसो अपना रूप-रंग, चाल-ढाल आ रस-गंध से अपना ओर बरबस लोग के मन के मोह लेबे के कूबत राखेला। सरसो के पीअर अँचरा देखत कवि लोग के मन कूदे लागेला। शायर लोग शेर लिखे लागेले आ लेखक लोग बड़ा रचि-रचि के कलम तूरेला। हम जब कबो सरसो के फूलन से पाटल खेत के देखेनीं त देखते रहे के मन करेला। अपना मनहर के मनभर देख के कहाँ कबो केहू के मन भरेला? हमरो मनवा ऊहे करेला। रसिक मन में सरसो के अइसन रूप बन जाना कि सगरो सरेह वन जस हो जाता आ अमीर खुसरो जी के गीत कान में सुनाए लागेला, सनसनाए लागेगा- ‘सगन बिन फूल रही सरसो।’

भले कोस-कोस पर पानी बदल जाला त का हऽ, प्रकृति एक्के होले। रीति आ नीति के एक्के भाव होला बाकिर देखे वाला मनई अपना-अपना चश्मा से देखत रहेला। केहू के सरसो के पीअरका फूलवा धरती माई के चुनरी लागेला त केहू के कवनो अल्हड़ लइकी के बेपरवाह दुपट्टा। केहू सरसो के पीअरका फूलवा के हाथ पीअर भइला से जोड़ेला त केहू के पाहुन के विदाई खातिर रंगल धोती के पसारल बुझाला। केहू के पीताम्बरी ओढ़ले अदृश्य पीतांबरधारी विष्णु भगवान बुझाले त केहू के सोना के पानी वाला उमड़त-उफनत नदी बुझाला। केहू के वसंत के अइला के चिन्हा ह सरसो त केहू के ललकार के लहास ह सरसो। ऋषभ देव शर्मा जी लिखले बानी कि -

‘‘सुनो, बगावत कर रहे अब सरसों के खेत
पीली-पीली आग नव जागृति का संकेत’’

‘चंद्र गहना से लौटती बेर’ में गाँव के बहरी, खेत के मेड़ पर बइठल केदारनाथ अग्रवाल जी के सरसो कुछू दोसरे रूप में लउकत बा। ऊहाँ के लागत बा कि सरसो त जइसे सबसे बड़ हो गइल बा। सरसो एतना बड़ हो गइल बा कि ऊ आपन हाथ पीअर करवा लिहले बा आ बिआह के मंडप में बइठ गइल बा। अइसन लागत बा कि होली के गीत गावत फागुन के महीनो ओह बिआह में शामिल हो रहल बा। एह स्वयंवर में प्रकृति अपना नेह के अँचरा डोलावत बा। देखीं -

‘‘और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं, स्वयंवर हो रहा है
प्रकृति का अनुराग अंचल हिल रहा है’’

कवि चंद्रप्रकाश ‘चंद्र’ जी सरसो के फूलाइल वसंत के अइला के प्रमाण मानत लिखले बानी-

‘‘पीली-पीली सरसों फूली, अरु बौर अमवा पे छायो।
हरी-हरी मटर बिछौने ऊपर अमित रंग बरसायो।
सजि आयो रे, ॠतु बसंत सजि आयो।
अजी गाओ रे, ॠतु बसंत सजि आयो।।’’

राष्ट्रीय चेतना के सजग आ स्वाधीनता संग्राम में अनेक बेर जेल के यातना भोगे वाली हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवयित्री आ लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान जी के लागत बा कि सरसउवे अनंग के मधुरस दिहले बा जवना से वसुधा के अंग-अंग फड़कत बा-

‘‘फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग’’

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी ‘ग्रामश्री’ में सरसो के तेलहवा सुगंध के बड़ा मोहक वर्णन कइले बानी। देखल जाव-

"उड़ती भीनी तैलाक्त गंध
फूली सरसों पीली पीली,
लो, हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कलि, तीसी नीली!"

लेखनी के धनिक लोग एगो दोसरे दृष्टि रखेला। केहू के सरसो अपना पिअरका साड़ी पर खेतन में इतरात लागेले त केहू के बुझाला कि कवनो स्वयंवर रचाइल बा आ ओहमे एक्के जइसन साड़ी पहिन के, एक्क रूप में लाहे-लाहे मुस्की मारत कियारी-कियारी रूपी लाइन बना के सरसो जइसन सुन्दरी ठाढ़ बाड़ी। केहू के लागेला कि मंगल रूप धारण क के सुहागिन लोग ऋतुराज वसंत के स्वागत करे आइल बा आ केहू के लागेला कि अपना रूप-रंग से धरती माई के रूप के निखार के सरसो मने मन अपना पर अगरा ताड़ी। केहू के लागेला कि प्रकृति ऋतुराज बसंत के देख के सरसो के फूलन से कनखी मारत बा त केहू के लागेला कि गाँव के गोएड़ा बदलत ऋतु के खुश करे खातिर आस्था आ विश्वास में रमल गाँव के औरत लोग फूल-अछत- रोरी-कुमकुम चढ़ा के पूजा कइले बाड़ी। एतने ना, प्रकृति के सुन्दर चित्रकारी करत लगभग सभे सरसो के सुन्दरता के वर्णन कइले बा। ‘सरसो’ अपना नमवे में सरसता लिहले बा। जहवाँ रस पा, रूप बा, रंग बा, ऊहवाँ सरसता त होखबे करी। जवना तरे अनेक फसलन से भरल खेल के बदला में खाली फूलाइल सरसो अपना ओर मन मोहे के जादू जानेला, ओही तरे मटियो के आपन गुन होला। ‘एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत्। न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना।।’ ‘सरस’ भाव से ई बतिया सरसउओ के तालाब के सुशोभित करत एगो राजहंस जस सिद्ध करत बा।

सरसो के खेती भारतीय किसान खातिर एगो जब्बर लाभकारी खेती हवे। खेती के परंपरागत तौर-तरीका अपनावत बेरा भोजपुरी लोक जीवन में घाघ आ भड्डरी के कृषि-पंडित कहल जाला। कई बेर त ओह लोग के लोकोक्ति चाणक्य के नीति से ताल ठोंकत लउकेली। घाघ जहाँ खेती, नीति आ रोग-व्याधी खातिर अपना कहावतन से विख्यात हवें उहवें भड्डरी के कहावतन में बरखा, ज्योतिष आ सामान्य आचार-विचार के बात मिलेला। इनकर मौसम-ज्ञान आ शुभाशुभ विचार अपना नीति आ अनुभव पर आधारित बा। गँवई मन आजुओ ओह लोग के लोकोक्तियन के दोहरा-दोहरा के अपना ज्ञान, बुद्धिमानी आ चालाकी के परिचय देला लोग। घाघ खेत में बीआ बोए के ढेर गुन बतवले बाड़े। खेत में बीआ केतना डालल बढ़िया रही, ओहके मात्रा के बड़ा शुद्धता से व्यौरा देत सरसो बोवे के रास्ता देखावत बाड़ें। घाघ के ई कहनाम बड़ा मसहूर ह कि -

‘सवा सेर बीघा, सावां जान। तिल सरसों, अंजुरी परमाण।
कोदो, बरै, सेर बोआओ। डेढ़ सेर बीघा, तीसी नाओ।’

एक बिगहा खेत में सवा सेर सावां, तिल आ सरसों एक-एक अंजुरी, कोदो आ कुसुम एक सेर अउरी तीसी के डेढ़ सेर ले खेत में डाले के चाहीं। एहसे दोगुना उपज के संभावना रहेला।

आजुओ, समय के साथे चलत मनई जब एकइसवीं सदी में आ गइल बा, तबो भोजपुरिया क्षेत्र के असंख्य किसान खेती करत एह बातन के मानेलन। घाघ जी के एक अँजुरी वाला बाति के सामने हम त सरसो खातिर कुछू अउरियो देखले-अनुभव कइले बानी। हमरा विचार से सरसो भोजपुरिया लोग के मनोदशा आ मनोवृत्ति के सथवे कूबत के असली परिचायक हऽ।

ई एकदम निर्विवाद बात बा कि आजु भोजपुरी भाषा सगरो संसार में आपन उपस्थिति दर्ज करा चुकल बा। भोजपुरी से केहू अनचिन्हू नइखे। आज भोजपुरी भाषी लोग में उत्साहो के बढ़ंती भइल बा। गहे-गहे लोग सार्वजनिक अथान पर आपुस में भोजपुरी बोलहूँ लागल बा। अब एकर पढ़ाइयो होखे लागल बा। कमे सही, अब भोजपुरी में पत्रिकन के साथे समाचारपत्रो (भोजपुरी टाइम्स) छपत बा। मामला कुछ मजा लेबे वाला गीतन ले नइखे सिमटल, गाहे-बेगाहे, छोट-बड़, सगरो मंच से सलिल आ अश्लील भोजपुरी के चर्चो में लोग सरीक होत बा।

ई तऽ हमेशा से प्रसिद्ध रहल बा कि भोजपुरी भाव के भाषा हऽ। भोजपुरिया मनई अभाव में केतनो रहें बाकिर भाव में तनिको कमी ना रहेला। जिनगी के हर हाल से ताल ठोंक के भीड़ जाए वाला स्वतंत्रता के चिनगारी पैदा करे वाला मरद मंगल पाण्डेय हऽ त बुढ़उतियो में अपना के कुर्बान करे वाला कुँअर सिंह हऽ। भोजपुरियन में भले केतनो आपसी मतभेद होखे, बाकिर भाषा खातिर अगाध नेह होला। भोजपुरिया घाघ के एक अँजुरी भा एक मुठी सरसों अस देखे में कमे हो के आपन दम देखावे में पाछे ना रहेला।

सरसो के सुभाव में विविधता बा। ओकरा उपयोग में विविधता बा। पŸा के साग, फर के देत-मसाला आ डाँठ के जरावन त सबहरिया होला, अनेक लोग एकरा औधषीय गुन के जानत किसिम-किसिम के उपयोग करेला। जिनगी के धीरज धरे के सीख देबे बदे बेर-बेर बतावल जाला कि तरहत्थी पर सरसो ना जामेला बाकिर शुभचिंतक लोग भगवान से आँखि में सरसो जामत रहे के अरज करेला। लोग जानेला कि सरसो जमावल त बड़ा आसान ह बाकिर सरसो के फूलाइल खुशहाली के चिन्हा हऽ। हमरा लागेला कि सरसो प्रकृति के परोपकारी रूप के आइना हऽ। एकर उपयोग कम से कम भोजपुरिया क्षेत्र के पहिचान हऽ। तेल लगावल आ तेल-तासन कइल मुहावरा भले चमचागिरी खातिर होखे, बाकिर सरसो हमनी के संस्कारन में पुष्ठ करेला। एकर अबटन देहिं के रोग-व्याधी त भगइबे करेला, रंगों निखारेला। बिआह-शादी के अबटन होखे भा जिउतिया के अपना पूरखन के प्रति श्रद्धाभाव से देत खरी-तेल, नजर उतारे खातिर मुड़ी उछरूंगे के होखे भा शनिदेव के मनावे खातिर सरसो-तेल के धार चढ़ावल, ई जनजीवन के हर गाँव में आपन ठाँव बनवले बा।

हमरा नजर में खाली सरसो के बहाने केहू भोजपुरी के आत्मा से परिचित हो सकेला। बात वर्तमान के सबसे चर्चित विषय पर्यावरण के होखे चाहे परब-त्योहार के, बात परिस्थितिजनित इतिहास के तथ्यन से साक्षात्कार करावे के होखे, चाहें संस्कारन के समेटे-सजावे के, सरसउवे के बहाने पाठकगण के ढेर सवाल के जवाब मिल जाई। भोजपुरियन के सुभाव जस सरसो के ढेर पौष्टिक मानल जाला आ एकर तासीर गरम। जाड़ा-पाला में एकरा तेल के उपयोग खइला से ले के लगवला ले होला। एहके तेल के मालिस कइला में मांसपेशी मजबूत होली आ खून के बहाव बेरोक-टोक होला। ई चमड़ा, दिल, पेट आ सुभाव, सबके ठीक राखे के ताकत राखेला।

एह लेखवा के नाँव ‘एक मुठी सरसो बनाम भोजपुरिया’ एह से कि सरसो भले जंतर-मंतर में मंतर मार के परोरे के काम आवेला त काऽ, बड़ा शुभ आ सात्विको मानल जाला। जइसे कि पहिलहूँ कहले बानी कि सरसों के अबटन से देहिं के मइल झरि जाला, उछरूंग के जरवला से बाउर नजर उतरि जाला आ मसाला बना के खइला से मन मस्त हो जाला। सरसो के आपन औषधीय गुन होला। तेल खइला के साथे देहिं में लगावहूँ के कामें आवेला। एकरा पतई के उन्नत साग रिन्हाला त डाँठ उŸाम जरावन के काम करेला। सरसो अपना समय के कवनों फसिल (कवनो रवि फसल) के साथे बोआ जाई। कइसनको जमीनो पर छींट दीं, उगि जाई। एह सब के बादो लेख के नाँव ‘एक मुठी सरसो...’ राखला के सबसे बड़का कारन कुछ अउर बा। हमरा मन के भाव। हमार लइकाईं गंडक के किनारे बितल बा। आजु हमार जनम धरती गंडक के गोद में समा चुकल बा बाकिर लइकाईं के बाति ना भुलाला। बाढ़ आ बरसात बितला पर हम देखीं कि माटी ढेर सरस हो जात रहे। रवि के खेती के बेरा कुछ खलार खेतन से पानी उतरते, पाँक के तनी काठ होते, बकला-खेंसारी-मसूरी छिंटा जाव, सथवे ओही में एक मुठी सरसवो मिला दिहल जाव। ना हर-बैल के गरज पड़े आ ना कोड़े-झोरे के झंझट। माटी आ पानी के आपसी सरसता रूपी प्रेम ओह बेरा किसान लोग खातिर आशीष बनि जाव। समय पा के बकला आ सरसो, गेहूँ आ सरसो चाहें खेंसारी-मसूरी आ सरसो के फसिल खूबे लहराए आ बिना कवनो खाद-यूरिया, बिना कवनो डाई-पोटास के लहरत सरसो के डाँठ सबसे ऊपर सीना तान के खड़ा रहे। सरसो अपना गन्हक रंग के फूल में सरस मन के सगरो शूल के मेटा के प्रकृति के कृति बनि के सबके नेह के निमंत्रण भेजहीं लागे। इहे हाल भोजपुरिया लोग के बा। विषम से विषम परिस्थिति में भेज दीं, ऊ लोग बोरा में कसा के कवनो आफत-बिपत सहत चलि जाई लोग आ अपना कूबत से, अपना उद्यम से सबसे ऊपर सीना तान के खड़ा हो जाई लोग। आ बिना कवनो खाद-यूरिया, बिना कवनो डाई-पोटास के अपना पहिचान के झंडा शान से लहरावे लागेले भोजपुरिया। गिरमिटिया के रूप में माटी दे दूर गइल, कुली लाइन्स से जिनगी के कठोरतम रूप में जीअलो त इहे बतावेला। एक मुठी सरसों लेखाँ अनेक खातिर शुभ आ सुखद बनि जाले आ आपन पहिचान बना लेले भोजपुरिया।

हमार लेख कवनो विद्वान के लेख ना हऽ, नाहिए कवनो ज्ञान के गरिमा के प्रमाण हऽ आ ना त कवनो शोध के साधन हऽ। हमार लेख हमरा मन के नम जमीन पर बिना कवनो कोड़-झोर के, बिना कवनो डाई-पोटास के ऊपजल भाव के लहलहात फसिल हऽ। माई के ममतासिक्त दुलार ह तऽ सुरक्षा खातिर बान्हल लवंग-भभूत आ गाँती ह तऽ, कुरूई में भरल सोंह-गरम भूजा ह आ गुन-अवगुन के चिंता से दूर ककहरा के कोठार में संचित करे के बेचैनी हऽ।

अपना माटी-मनई से दूर भइला पर मन में ढेर हिरोह जागेला। मजबूरी में बिछड़ल ममता के मलाल त रहबे करेला बाकिर मिताई के मिठाई जब मिले लागेला त मन के ढेर घाव मरे लागेला। सरसो जइसन सुभाव लिहले भोजपुरिया लोग भले एक्के मुठी होई लोग त का, मिलला पर आपन दुःख-सुख, आपन हाल-बेहाल पर दू-चार टुम गलचाउर क के खुश हो जाई लोग। मजबूरी में घर छोड़ के ट्रेन पकड़ले हम दिल्ली अइला से पहिले करीब पाँच बरीस ले ‘संवाद’ के संयोजन क चुकल रहनी। हर महिना के दूसरका सनिचर के होखे वाले ओह साहित्यि गोष्ठी के परिणाम आजु देश में आपन पहिचान बनावत बा लोग बाकिर दिल्ली अइला के बाद जइसे हमार लेखनी सूख गइल रहे। धीरे-धीरे भोजपुरिया भाई लोग मिले लागल त समय के साथे कबो रून्हाइल बान्हा तूरी के भाव के बाढ़ चारू ओर सरस क दिहलस।

कवनो आड़ा-तीरछा खेत में एक मुठी सरसो छींट दीं, समय पाके ऊहे एक मुठीया घर भरि देला। सरसो से कबो मुँह मत फेरब। भोजपुरिया से कबो मुँह मत फेरब। सरसो सगरो रोग-व्याधी मेटावेला। स्वाद, सुभाव, स्वास्थ्य, शीलता, शालीनता, संस्कार आ संस्कृति के पहिचान ह सरसो आ भोजपुरिया। रउआ प्रेम देखाएब, माथा नवाई, पावर देखाएब त उलटा माला जाप क के मंत्र परोरी। एह के रहला से राउर घर भरल रही। एहके सुवास से लछमी जी के बास होई। एह के मान दिहला से राउर सम्मान बढ़ी। खाली साँझा देत रहेब त एकर रूप लहरत सोना से कब लहास बनि जाई, पते ना चली।
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लेखक परिचय:-
2002 से एगो साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ के संचालन।
अनेक पत्र-पत्रिकन में तीन सौ से अधिका लेख
दर्जनो कहानी, आ अनेके कविता प्रकाशित।
नाटक लेखन आ प्रस्तुति।
भोजपुरी कहानी-संग्रह 'कठकरेज' प्रकाशित।
आकाशवाणी गोरखपुर से कईगो कहानियन के प्रसारण
टेली फिल्म औलाद समेत भोजपुरी फिलिम ‘कब आई डोलिया कहार’ के लेखन
अनेके अलबमन ला हिंदी, भोजपुरी गीत रचना.
साल 2002 से दिल्ली में शिक्षण आ स्वतंत्र लेखन.
संपर्क –
पता- तमकुही रोड, सेवरही, कुशीनगर, उ. प्र.
kmpandey76@gmail.com

मैना: वर्ष - 11 अंक - 122 (फरवरी-मई 2024)

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