कवना अँटका में अँटकल बसंत - कनक किशोर

मौसम के सिरमौर हऽ बसंत। अइसे सब मौसम के आपन महत्व आ विशेषता होला। बाकिर बसंत के एगो अलगे राग आ रंग होला। बसंत आवते मन रंगीन हो जाला। का बूढ़ा का जवान, का खेत का बधार, का हवा का बयार सब में मादकता भर जाला। सब जीव जंतु में एगो उल्लास भर जाला शीत ऋतु भाग खड़ा होला। चहुंओर हरियर बधार रंग-बिरंग के फूल से भर जाला। बधार देख लागेला कवनो तरूणी हरियर समीज पर गोटेदार दुपट्टा लहरवले आकाश अपना मुट्ठी में करे खातिर उड़ रहल बिया भा सज-धज के अपना प्रेमी से मिले बदहवास भाग रहल बिया, एने-ओने तिकवत।

जइसे मनई के जिनिगी में यौवन आवेला ओसहीं बसंत प्रकृति के यौवन हऽ। 'बसंत पंचमी' बसंत के आगमन के त्योहार हऽ। भागत सर्दी, बड़ होत दिन, गुनगुनी धूप शीत से दुबकल मनई के देह में गर्मी आ मन में उज्जास भर देला।

कवि बसंत के अपना कविता में समेट लेल चाहेला। प्राकृतिक चित्रण बिना कविता के दुनिया अधूरा रह जाला। कवियन के प्रिय ऋतु हऽ बसंत। पतझर के मारल नंगा गाछि-बिरिछ-धरती हरियरी के आगोश में समाई अइसन इतराले जइसे बिरह में जरत कनिया एकाएक बिना कवनो पूर्व संदेश के अपना प्रियतमा के आगमन पर इतराले। आम पर मंजर के माधुकता, सेमर वन लाल फूल से लदल, टेसू के बन के एगो अलगे लालित्य, कचनार अपना जवानी पर, महुआ से टपकत मदन रस,बाग-बगइचा-फूलवारी फूल आ फल से लदल आ ओह पर फगुनहटा बयार मन आ मनई के कहाँ रहे देला अपना आप में। ढोल, मंजीरा, झाल संग फगुआ के ताल, चइता के बोल पर डोलत गोल सुतलो बिरह के जगा देला।

प्रेम के ताकत बसंते ऋतु में देखत बनेला। भाई केशव मोहन पांडे भले कहत होखस जिनिगी रोटी ना हऽ बाकिर ओहू बदहाल जिनिगी में प्रेम के ताकत के अनुभव करत कहले बाड़ें- " नेह से/ रसगर होके/बज्जर रहिलो/ अँखुवाये लागेला"।

कोयल के कुक मीठ होला बाकिर बिरहिन के ना भावे। प्रेम के गीत एक देने सुनाला त दूसर देने बिरह अग्नि के ज्वाला धधकत रहेला। ओहू धधकत ज्वाला के बीच प्रेम अंखुआ प्रेमी मन हिरण जस कुलांच मारेला अपना प्रेम से मीले खातिर। बसंत आ गइल पूछे के ना परे केकरो से, ऊ खुद बता देला कि हम आ गइनीं। माटी के आपन एगो सुगंध रहेला बाकिर बसंत आ ओह पर आ वातावरण में प्राकृतिक इत्र के छिड़काव कर देला। तबे तऽ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहले बाड़ें-

लता-मुकुल-हार-गंध भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर,
जामी नयनों में वन-
यौवन की माया।

बसंत के मनोहर छंटा निराला जी के नजर में -

रँग गई पगइ-पग धन्य धरा
हुई जग जगमग मनोहरा।

भारत त उत्सव के देश ह।हर माह में कवनो ना कवनो परब उत्सव आवेला। बाकिर बसंत ऋतु तऽ पूरा महीनवे उत्सव आ उल्लास के हऽ। एही से एह राग रंग के उत्सव के नाम बसंतोत्सव पड़ल। भोजपुरिया संस्कृति में बसंत के सांस्कृतिक आ सामाजिक दूनों महत्व बा। फगुआ आ चइता समष्टि के समरसता के त्योहार हऽ। सरसों आ गेहूं के खेत मन के लुभावे लागेला। रबी फसल घरे आवेला। किसान गदगद हो जाला।शादी बिआह के बाजा बाजेला। होली के रंग से कपड़े ना मनो रंगा जाला। होली के राग रंग में बुढ़वन अपना के ठुमके के से ना रोक पावे। संबन्धो के बन्धन टूट जाला, मनई के मस्ती के आलम ई रहेला।तब त कहल गइल बा 'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे'। अतनो भर रहित तऽ ठीक रहे मनसोख बुढ़वा पूछ बइठेला बुढ़िया से 'कवना घर में सुतले पतोहिया'। निराला जी होली के इहे रंग देखि कहले होइहन-

होली मची ठौर - ठौर
सभी बन्धक छूटे हैं।

एह छूट आ बंधन टूट में अश्लीलता नइखे, प्रेम के झलक आ नोंक-झोंक बा। बाकिर एही छूट के कुछ लोग नजायज फायदा उठा के रंग के बदरंग कऽ देला। पारंपरिक होली आ चइता में खूब सिंगार रस मिलेला, जे कहीं से अश्लील ना होखे। बाकिर आजु ओहि छूट के लाभ लेत अश्लीलता एह ढंग से परोसा रहल बा कि अश्लील देख के लजा जाता। कुछ लोग सलिलो के नाम पर का परोस रहल बा ओह खातिर अश्लील के डिक्शनरी देखे के पड़ेला। राग रंग आ उत्सव के ऋतु बसंत मनो के बउरा देला। चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह जी एकरा के मस्त महीना के संज्ञा देत आपन ' बसंत ' कविता में कहले बानीं कि -

आइल मस्त महीना सजनी, धरती पर मुस्कान रे।।
झुकल आम के डाढ़ि बौर से, भीतर कोइली बोलल
साँझ समीरन बहल मस्त हो, बिरहिनि के मन डोलल
महुआ के डाढ़ी पर उतरल, हारिल लेइ जमात रे।।

पौराणिक कथा के अनुसार बसंत के कामदेव के पुत्र कहल गइल बा। कवि देव बसंत ऋतु के वर्णन करत कहले बाड़े कि रूप आ सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति के समाचार मिलते प्रकृति झूम उठल, पेड़ नव पल्लव के पालना डाल देलस, फूल वस्त्र पहिरवलस आ पवन झूला झुलावे लागल आ कोयल गीत सुनाके बहलावे लागल।भगवान कृष्ण गीता में कहले बाड़ें कि ऋतुयन में हम बसंत हईं। बसंत प्रेम के पर्याय ह, काम आ सिंगार के सहाय्य ह।अमीर खुसरो के शब्दन में बसंत के निखार देखत बनेला -

सकल बन फूर रही सरसों
अम्बवा फूटे, टेसू - फूले,
कोयल बोले डार - डार,
और गोरी करत सिंगार।

बाकिर सभकर बसंत एक जस कहाँ होखेला। सुभद्रा कुमारी चौहान इहे बिचारत कहले बाड़ी 'वधु वसूधा पुलकित अंग - अंग/ है वीर देश में किन्तु कंत/ वीरों का कैसा हो बसंत।' ओइसहीं रोटी आ पेट खातिर पलायन के दंश झेल रहल युगल के मन में बसंत फुटे - फरे - फुलाये के पहिले मुरझा जाला।पेट के भूख के आग बसंत के झुलसा देला।फगुओ के रंग काटे दउड़ेला। हरियर पियर बधार नीक ना लागे। ओकरा इयाद आवेला भारतेन्दु के 'टूट टाट टपकत घर खटियो टूट, प्रिय की बांह उसिसवा लूट'।

साल में बारह महीना होला बाकी फागुन आ चइत हटा देल जाय तऽ जिनिगी में कतना रंग- रास बाची, गंवई संस्कृति के सुगंध कतना बाची ई केकरो से छुपल नइखे। 'बाकी चइत के झकोर जनि माँगऽ' में लेखक बलभद्र फागुन आ चइत के विविधता आ उल्लास से तऽ परिचय करावते बाड़न साथ हीं फगुआ, चइता के लय -ताल, धुन, गाँव के रीति-नीति, खेत-बधार के हाल, गँवई जिनिगी के चाल,आपस के बात -विचार, किसान आ मजूर के मनोभाव, किसान के दरद पर बड़ा खुल के आ बेवाकी से आपन बात रखले बाड़े जे गँवई माटी के साँच है। तनि लेखक के शब्द में किसान के पीर देखीं।

"जे देश-दुनिया के अन्न देला - आपन रंग में रंग देवे के कूबत राखेला - जे मौसम के मतलब बूझेला - एह सोगहग समाज के हालत आज ठीक नइखे। एह समाज के साथे क्रूर मजाक कइल जा रहल बा। ई बेवस्था एह समाज के हित के अनदेखा कर रहल बिया। आपन उपेक्षा कबले सही!ई हिस्सा खड़ा हो रहल बा। आपन हक अधिकार खातिर आवाज उठा रहल बा। फागुन के रंग आ चइत के झकोर बेकार ना जाई। धूर से गुलाब तक के हउवे ई सफर। गावे से ललकार तक के।"

प्रेम आ बिरह जस सुख आ दुख साथे चलेला आगे पीछे बाकी गाँव के माटी में रचल बसल मनई के याराना पीर से अधिका बा तवनो पर हार माने वाला जीव ना ह फागुन के रंग आ चइत के झकोर से जिनिगी के रंगे रचे के कोसिस से बाज ना आवे। एह में कवनो शक के गुंजाइश नइखे।

बसंत के कहानी कहला से ना ओरिआई त सार बाति कहत अतने कहब -

पीत सरसों,हरियर गेहूं, आहट बसंत के आ गइल
आमे मोजर,सेमर फूल, देखि धरती बउरा गइल।

पतझड़ भागल, कोंपल फुटल, जंगल गावे गीत
रंग गुलाल भरल बगिया,देखि मन अगरा गइल।

मंद पवन मन आग लगावे, चहुंओर मंगल गीत
कहीं फाग मृदंग संग बाजे, सुनी मन रंगा गइल।

बसंत दुआरी पर दस्तक दे रहल बा। मन ओकर आगाज़ नइखे महसूसत। मौसम के मिजाज गरमा गइल बा। बाग- बगइचा कटा गइल। जंगल- पहाड़ उधिया गइल। नदी- ताल- तलैया सूखा गइल। हिमालय दरकत बा। ग्लेशियर पिघलत बा। परिवेश विकास रथ के धूल- धुआं से भर गइल बा। प्रकृति से दूर जा रहल मनई कृत्रिमता के जाल में फँस गइल बा। लोक परंपरा से दूर जात मनई के करनी आज बसंत के राग रंग बदरंग कर देले बा। रूसल बसंत के मनावे के आई? सांच बतावत ओकर गुण गावे के होई स्थिति के भयावहता के समझे खातिर। ना मानी मनई त कागजी आ आभासी बसंत निर्मित कर मन के बहलावे के होई। एही भाव के एगो रचना -

बसंत उदास आज ,बदलत आपन रूप देख
उजड़त बाग बगीचा देखि, बसंतो खउरा गइल।

रोज ओला, रोज बारिश,मादक गंध धोआ गइल
राग - रंग अब ऊ ना रहल,मधुमास के खा गइल।

रूप लावण्य बसंत के, नइखे लउकत आज कहीं
रोमांस के रोमांच ना रहल,सेज के आस सेरा गइल।

किशोर के कुटिया बिरान, बसंत राह भूला गइल
सेज सजावे के ख्याल, मौसम देखि ओरा गइल।

ई देख बुझात नइखे, सांचहूं राग-रंग से भरल बसंत राह भूला गइल बा। बुझाता कवनो बरियार अँटका में अँटक गइल बा बसंत। 'अँटका में परल बसन्त' के लेखक बलभद्र गाँव- घर, खेती - बारी, रीति - नीति के बदलत चाल संगे भागत बसन्त के रूप देखि, डिजिटल बसन्त के गाँवन में घुसत देख चिंतित नजर आ रहल बाड़ें। ऊ कहत बाडें कि आदमी के बदलत जीवन शैली में रूहचूह बसन्त कहीं भेंटाइयो जाता तऽ मन उदास रहता। प्रकृति में बसन्त कम बेसी हेर फेर में लउक जाता बाकी आदमी के बसन्त त भागल जा रहल बा अँटका में। कारण बा बेरोजगारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, तिकड़मबाजी के जबरदस्त मार। ई हम ना बलभद्र कह रहल बाड़ें जे देख रहल बाड़ें आदमी के माथ पर रखल समस्या के बोझा के। माथ भारी रहेला तऽ कुछुवो नीक ना लागे आ रोकलो प माथे हाथ चलिए जाला। बाहरी खाद बिया बले बधार हरियर पियर लउकतो बा तऽ चिरई चुरंग, मधुमाखी, कउवा, कोइलर नदारद।ई साफ बता रहल बा कि प्राकृतिक बसन्त अँटका में परल जा रहल बा, बढ़ल जा रहल बा। बलभद्र के चिंता वाजिब बा तब तऽ कह रहल बाड़े कि माॅल कल्चर पसर रहल बा। ई कल्चर हमनी के जीवन आ समाज में अन्हार बो रहल बा। मस्ती के नांव पर आत्महीनता, खोखलापन, बजारू बसन्त। आशावादी लेखक मन तबो साफ कह रहल बा कि बसन्त ठस्स ना होखे। मुई ना भले रूप बदले। चलल चल आवत बसन्त के बूझ के बचावे के संदेश देत एगो नया बसन्त के कामना करत बाड़े। असहूं कहल गइल बा धीरज धर रे मन 'कबहूं त अइहें बसंत ऋतु '। बाकिर धीरज हाथ पऽ हाथ रख के ना धरे के होखी। कुछ करे के होखी प्राकृतिक परिवेश के बचावे खातिर। पर्यावरण आ जैवविविधता बांची तऽ अँटकल बसंत के रास्ता मिली आ राग रंग के साथे आई हमनी के बीच। चलीं प्रकृति संरक्षण के संकल्प के साथ-साथ बसंत के स्वागत के तइयारी मिलजुल कइल जाय।
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