राम : एक अखंड अवतार-चेतना - दिनेश पाण्डेय

अवतार के साँच

‘अवतार’ शब्द के प्राचीन प्रयोग यजुर्वेद में प्राप्त बा- “उप ज्मन्नुप वेतसेऽवतर नदीष्वा। अग्ने पित्तमपामसि मण्डुकि ताभिरागहि सेमं नो यज्ञं पावकवर्णं शिवं कृधि- (यजु० १७.६) ।” [ अग्नि! धरती में से ऊपर आईं, बड़वागि का जवरे नदियन में बहीं, काहे से कि रउआ जल के तेजस रूप हईं। दादुर! तूहूँ धरती से निकल के जल में पइठऽ। हमार यज्ञ के पबित्तर आ कल्याणकारी करऽ।] हिंहाँ एह शब्द में अव्यक्त या कि प्रछन्न वस्तु के व्यक्त होखे, परगट होखे, सतह प आवे के अर्थबोध बा, भलहीं ऊ अगते से ऊपर, नीचे, भीतर कहऊँ होखे। ‘अवतार’ (अव+तृ+घञ्) के मूल मे ‘तृ’ धातु ह जवन- ‘प्लवन तरणयोः’ यानि पँवरे, निमग्न होखे के अर्थ में ह। कुल मिला के देखल जाव त एह शब्द से उतराए, उपराए, उदय, रूपाकृत होखे, परगट होखे, प्रस्तावना आदि के अर्थबोध होला। शाक्त दर्शन में एकर प्रयोग वंश-प्रक्रिया (अर्थात् दृढ़ता), शैव दर्शन में ‘परंपरा के रेख’ आ बौध दर्शन में ‘काज अउ आचरण में पइस करे’ के आशय में भइल बा। ‘शिशुपाल बध’ में ज्ञात स्रोत आ खास रीति से प्राप्त होखे या उत्पन्न होखे के ‘अवतार’ कहल गइल बा- “व्युत्पन्न रूपः अवतारः (१.४३)।”

भारतीय संस्कृति में अवतार के ले के जवन आम-धारणा बा ओह में सूक्ष्म भा पारलौकिक ईश्वर के मानुस
रूप में धरती प उतर आवे के दृढ़ विश्वास के रूढ़ि बा। जानल बात ह कि निरंतर आघात से कवनों चीज में टूटन आ बिखराव होला। कुछ परिस्थिति में त एक अजीब घठुआरपना पैदा होखल ताज्जुब के बात नइखे जहाँ चोट त होला बाकिर चोट खाएवाला अतिना अभ्यस्त हो जालनि कि ऊ लगभग असरहीन रह जाला, ई पाषाणी-मुद्रा ह, अदबद के कछुआ के पीठ प हुरवठला जइसन बेअरथ। एक अउ स्थिति हो सकेला जवना में आघात सहे के बेबसी के बावजूद ई उम्मीद कायम रहेला कि आज ना सही, काल्ह निजात मिली जरूर। एह उम्मीदी के दू स्तर ह, एक कि चोट निवारण के खुदहीं भरपूर आ निरंतर जतन कइल जाय, दोसर कि कवनों आन मदद, जवना के चरम रूप अलौकिकता में हो सकेला, के हालात पैदा होखे के आसरे जीवटता बरकरार रखल जाय। बेसक पहिला में कर्मशीलता, लगातार प्रयास आ संघर्ष के तार्किक संगति बा जवना में इच्छित प्रतिफल प्राप्ति के संभावना अधिका बा। दोसरका में फौरी संबल के गुन के सेवाय सबकुछ नियति-संयोग के आसरे बा, एकर नकारात्मक असर ई होला कि ए से बेहद अकर्मण्यता, भाग्यवाद, कादरपन जइसन ऐगुन चोर-दरवज्जे हावी हो जालें। अइसन हालात, चाहे कवनों जन के स्तर प पैदा होखे अथवा जन-समूह के दूनों विनाशकारी परिनाम देलें। दुर्भाग्य से भारतीय सभ्यता-संस्कृति के इतिहास में दोसरकी बात कवरे रुझान जियादह रहल। हजारहन साल के इतिहास में बाहरी आक्रमण, नियामक वर्ग के भीतरी घात-प्रतिघात, मिथ्या-अहं, विचारगत विघटन, नैतिक-गिरावट आदि के असर आम-जन प ना पड़े ई कइसे संभव बा? ए में कुछ दुर्गुण बाहरी दबाव से रहलन त कुछ भीतरी अधःपतन का ओजह से। अवतार के ले के एह आम-धारणा के विकास एही हालात के उपज ह।

दुनिया सतत गतिशील ह त हर पल बदलाव निश्चत बा। बदलाव के दिशा गुन-सुभाव के अनुरूप होला - “प्रकृतेः क्रियमाणाणि गुणैः कर्माणि सर्वशः” (गीता- ३.२७) – यानि सबकुछ प्रकृति के गुन से क्रियाशील ह। तीन गुन वाली प्रकृति में संतुलन एक सहज स्थिति ह असंतुलन अस्वाभविक। मूल प्रकृति से अननुरूपता के स्थिति के परिनाम तेही अनुरूप असंगत होखेला। ईहे विसंगतिपूर्ण स्थिति धर्मविरूद्धता के स्थिति ह। गीता के व्याख्या में एह तथ्य के स्पष्ट करत डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचार ह- “धर्म का शाब्दिक अर्थ है- वस्तु या प्राणी की विशिष्टता (भूतवैशिष्ट्य)। प्राणी का मूल स्वभाव ही उसके व्यवहार के रूप का निर्धारण करता है। जब तक हमारा आचरण मूल प्रकृति के अनुकूल है, तब तक हम सही ढंग से कार्य कर रहे हैं। अपनी प्रकृति के अनुकूल न होना अधर्म है।” एकर अगली कड़ी कवनो कालखंड में खास गुन-सुभाव के प्रतिगामी होला। सामाजिक स्तर प एह प्रतिगामिता के चरम रूप, ऊ चाहे व्यक्ति, विचार भा मानवीय मूल्य के सरेखपन से संबंधित होखे, के प्रतिनिधित्व जवन व्यक्ति में मिलेला उहे अवतार ह। गीता के प्रसिद्ध उक्ति – “यदा यदा हि धर्मस्य गलानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”- के वास्तविक तात्पर्य ईहे ह। अवतार एक तरह से क्षर में अक्षर के गुणात्मक परगटन ह। राधाकृष्णन के कहनाम कि अवतार के अर्थ ह नीचे उतरल, ऊ जे नीचे उतरल ह। दिव्य भगवान संसार के एक ऊँच स्तर तक उठावे खातिर दुनियावी स्तर पर उतर आवेलें। जब आदमी ऊँचा उठेला, तब परमात्मा नीचे उतर आवेलें। कहल जा सकेला कि अवतार एक अटूट मूल इकाई के भिन्न सोपान भा नया रूप ह। ईश्वर के तेज खास रूप में जब कवनों पदार्थ भा प्राणी में उतर आवेला ओही के अवतार कहल जाला। एह संबंध में भागवत महापुराण के एक कथन ध्यान देवे जोग बा-

“अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्वनिधेद्विजाः।
यथा विदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः।।
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजशः।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा।।”
(१.३.२६-२७)

[जइसे झील से हजारन नदी-नहर निकसेली, सत्त्वनिधि ईश्वर से हजारन अवतार भइलें। ऊ मुनि-मनीषी, देव आ मानव महान ओजस्वी भइलें।]

सनातन धर्म मूल सरूप में कवनों देश, काल, व्यक्ति भा विचार के रूढ़ि से बंधल कबो ना रहल। सनातन
[‘सदा+ट्युल्, तुट, नि० दस्य नः’- आप्टे कोश] के शाब्दिक अर्थ प्रकृति आधारित एक स्थिर नैतिक व्यवस्था के निरंतरता से जुड़ल ह जेकर कालिक फैलाव पुरातन से आज तक बा। ज्ञान समय का संगे सभ्यता-संस्कृति के क्रमिक विकास आ अनुभव के विस्तार से संबंधित ह। सनातन में प्रगतिशीलता के अर्थ-बोध खुद-ब-खुद शामिल बा। युग के अनुरूप नित-नूतन अनुभव से प्राप्त ज्ञान के जुड़ाव आ तदनुरूप बदलाव आ परिशोधन एकर खासियत ह। सनातन में अवतार के अवधारणा के पीछे कवनों अतार्किक आ काल्पनिक मिथ्यावाद नइखे। अवतार के अपार प्रयत्नवाद, अविरत कर्म आ अखंड उद्योग के अर्थ में अंगीकार करत साने गुरुजी के कथन ह कि- “हाथ पर हाथ रख कर बैठने से अवतार नहीं होते। बिलोए बिना मक्खन नहीं मिलता। बिना परिश्रम के फल नहीं मिलता। बिना कष्ट उठाए काम नहीं होता। इसी तरह बिना प्रयत्न के अवतार नहीं होता। प्रयासों की पराकाष्ठा में ही अवतार रुपी फल लगता है।”

साफ बा कि अवतार के परिस्थिति एक-दू दिन में ना तैयार होखे। अयुक्त आचार-विचार के व्यापक फैलाव, मानवीयता के घोर अवमूल्यन आ एह परिस्थति से उपजल असह संत्रास के दीर्घ दौर में जनता के संघर्ष, उम्मीदी, चाहना, भावना, परोजन, सुख-दुख आ मन के विचार जेकरा में साकार लउके उहे अवतार ह। अवतार में नजर आवत असीम शक्ति कहईं आकाश से ना टपके बलु समाज के एही विराट सरूप से प्राप्त होला। अवतार दीर्घकाल में जड़-चेतन, पशु-पंछी, मानव-समाज सबसे प्राप्त शक्ति के समवेत रूप ह जेकर भूमिका उत्प्रेरक के ह आ जे दबल-सुगबुगात जन-चेतना के समुचित दिशा आ विस्तार देवे में समर्थ होला। अवतार प आरोपित अन्य अर्थ, अनजानेपन में भा साजिशन, अपार जनचेतना के चरम-बल के एक अन्हार गुफा में ढकेल देवे अथवा तेकर अनवरत बह रहल धारा के आन दिशा में मोड़ देवे के प्रतिकांक्षी उपक्रम हो सकेला जेकरा प गहराई से मनन कइल एक सामाजिक जरूरत ह।

अवतारी राम

राम (रम् कर्तरि घञ्, ण वा) के मूल धातु ‘रम्’ (‘रमु क्रीडायाम्’- धातुपाठ) क्रीड़ा, खेल, आनंद आ रमे (रहे, ठहरे) के अर्थ में ह। ‘राम’ सुहावन, मनहर, साँवर, उज्जर आदि के अर्थबोधक शब्द ह। सारा विश्व-प्रपंच के विशाल रंगमंच प निरंतर चल रहल एक तमाशा के रूप में देखे के नजरिया बहुत पुरान ह। गोस्वामी तुलसीदास जी उमा से कहल शिवजी के एक उक्ति में ईहे तथ्य परगट कइले बानीं-

“उमा दारुयोषित की नाईं। सबहीं नचावत राम गुसाईं।।”

एह में कठपुतरी सरिस दुनियावी खेल के सूत्रधार राम के कह के एह नाँव के परम अर्थ के अभिव्यक्ति दिहल गइल बा। कतना सटीक उपमा बा? सूत्रधार खुद तमाशा के हिस्सा होखला के बावजूद ओ में संलग्न ना होखे। ए तरे ऊ सरबस खेल में शरीको बा, नाहिंयों बा बाकिर एक बात तय बा कि ओकरा बेगर खेल के विस्तार संभव नइखे।

वैदिक वाङ्गमय में रामकथा से जुड़ल कुछ पात्रन के नाँव के उल्लेख मिलेला बाकिर रामकथा से तेकर अभिन्नता सिद्ध नइखे हो सकत, ना ओह आधार पर कवनों कथासूत्र के पहिचान कइल जा सकत बा जेकर संबंध बाद में विकसित कथा के बीजसूत्र के रूप में स्थापित कइल जा सके। आदिकवि वाल्मीकि रचल रामायण में सबसे प्राचीन आ तेकर पूरा पकठाइल रूप प्राप्त बा। ओ में मिलल कुछ संकेतन से अतिने कहल जा सकेला कि वाल्मीकि से अगतहूँ जनमानस में रामकथा के मौजूदगी रहल होखी (इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः। आदि।) । डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (भारतीय दर्शन, भाग-१, अ० ८) के मत में रामायण आ महाभारत दूनों महाकाव्य पुनर्गठन काल के ओह विकास के बखान करत बाड़े जवन भारत के आर्यजाति के विस्तार काल में पूरा भइल रहे आ जवना में जुग-सापेक्ष अनेक संस्कृति के तत्त्व, विचार आ नवाचार के शामिल करे के जतन कइल गइल रहे।

नारायण ऋषि रचित ‘पुरुषसुक्त’ से नारायणीय धर्म के रूप में वैष्णव धर्म के उत्पत्ति मानल जाला जवना
में ‘पुरुष’ शब्द के ईश्वर के वाचक कहल गइल जबकि अगते ई मानुसवाची शब्द रहे। हिंहाँ ईश्वरत्त्व के विस्तार के तीन स्तर के रूपकत्त्व में बान्हल गइल बा, जहाँ एक में ब्रहमाण्ड, दोसरका में समाज आ तिसरका में देह आपन समूचेपन में समाहित बाड़न। ईहे विराट से वामन आ वामन से विराट के परस्पर-व्याप्ति ह। वास्तविक आध्यात्म विद्या के शुरुआत ईहें से भइल। धर्म के इतिहास में पुरुष तत्त्व के कल्पना क्रांतिकारी ह। आदमी के अनुभव में आपन आत्मा में ईश्वरत्त्व के पहिचान मानसिक विकास के नजरिए बेशक सबसे ऊपर ह। बकौल तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी, मानव जब ईश्वर के आत्मा के रूप में या मनुष्य के रूप में देखे तबे भक्ति के उदय संभव बा। भक्ति सब धर्म के सर्वोपरि रहस्य ह (वैदिक संस्कृति का विकास पृ- १५१)।

भौतिकता से ले के आध्यात्मिकता आ ओकरो से गहिरोर परम तात्विक स्तर तक राम के एतिहासिक विकास के एही क्रम में देखल जा सकेला। रामायण में नारद के मुँह से राम के चरित्र में आन विलक्षण गुन के बखान करत ‘विष्णुना सदृशो’ उपमित कइल गइल बा। ‘हनुमन्ननाटक’ (१.६) में ‘तेषामीश्वरतागुणैश्च जनुषा ज्यायानभूद्राघवो’ याने ‘ईश्वरता के सिद्ध करे वाला गुन के राम’ के कथन के अलावे उनका के पूर्णरूप, सर्वव्यापी, पूजनीय, परम-सुजस वाला प्रतच्छ नारायण कहल गइल बा, जे बर्बरता के बोझ से त्रस्त धरती के भार कम करे बदे अपने मूल सरूप के चार विग्रह क के पुत्रभाव के प्राप्त भइले-

“उर्वीबर्बरभूरिभारहरणे भूरिश्रवाः पुत्रतां
यस्यार स्वमथो विधाय महितः पूर्णश्चतुर्धा विभुः।”
(१.५)

गोस्वामी तुलसीदास तक आवत-आवत राम में ईश्वर के सर्वोच्च रूप के पूर्ण-प्रतिष्ठा भ गइल। ठीक ह कि
‘राम ब्रह्म परमारथ रूपा’ हवें बाकिर देखे के आपन-आपन नजरिया ह। दृष्टिकोण के तनिक विचलन ढेर अंतर पैदा क देला आ परिनाम के कल्याणमयता के देखते ब्रहम से इचिको अलग राम के कवनो रूप तुलसी के मंजूर नइखे। सब त मने के खेला ह-

“मनसैन कृतं कार्यं राम न तु शरीरेण हि।
येनैवालिङ्गता कान्ता तेनैवालिङ्गिता सुता।।”
(योगवासिष्ठ)

[राम! मन से कइल कामें के पहिचान होला। देह प्रधान ना ह। पत्नी भा बेटी के कइल आलिंगन में शरीर के क्रिया में समानता के बावजूद मानसिक क्रिया बिल्कुल अलग होली।]

एक बड़ मकसद से एह उच्चभाव के अंगीकार जरूरी रहे। ईहे कारन रहल कि राम के साधारण आदमी कहला के विरुद्ध ‘राम मनुज कस रे सठ बंगा’ जइसन कड़कस प्रतिक्रियात्मक उक्ति बहरिया आइल। राम में ईश्वरत्त्व के अनुभूति ओतिना सहजो नइखे एकरा बदे एक खास दृष्टिबोध जगावे पड़ी, ठीक ओसहीं जइसन समुझदार सिद्ध-साधक आँखि में सिद्धांजन आँजि के जंगल, पहाड़ आ जमीन का तरे के सारा अजगुत संपद देखि लेलें।

“जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।”
(मानस- बालकांड)

दुनिया ‘रसरी में सरप के भरम’ जस अवास्तविक ह। एकर मूल सरूप के ज्ञान एह मोह-जनित संशय के
हटले प संभव बा। राम के जथारथ कवनो खास इकाई में देखे के बजाय ओह व्यापकता में देखे पड़ी जवना में समूचा विश्व-ब्रह्मांड समाहित बा। एकर बिल्कुल उलटा जस लागत बाकिर हकीकत में समान रीति, इकाई के भीतर अनंत के दर्शन ह। एह दृष्टि के विकसित भइले सारा दुनियावी अंतर्विरोध तिरोहित हो जाई। एक रोचक प्रसंग बा। रात-दिन संगे रहे वाला आ लगभग अभिन्न व्यक्ति से अचके ‘तूँ के हवऽ?’ जइसन सवाल उछाल दिहल जाय त का होई? कबो राम के एह प्रश्न के उत्तर में हनुमान के जवन कथन बा, ऊ वास्तव में अरहत के कथन ह-

“देहबुद्धया तु दासोऽस्मि, जीवबुद्धया त्वदंशकः।
आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।”
(वा०रा०)

[देह के नजरिए हम राउर सेवक हईं, जीवदृष्टि से राउर अंश, आत्मबुद्धि से हम उहे हईं जवन रउआ हईं।]

राम के प्रति ई दृष्टिकोण एक अटूट चेतना के रूप में भारतीय संस्कृति के हरेक जर्रे में आज ले व्याप्त बा
जेकर असर कबो कुंद ना परल। एह प्राणशक्ति के हरन के निरंतर साजिश का बादो रामत्त्व के असर कबो फीका ना परल। अइसन कवनों संभावना एह जीवंत आ न्यारी संस्कृति के मउअत के काल होखी, जीवन के आदर्श के बिखराव आ संबल के टूट जाए के छन होखी, सामाजिक बिघटन के दौर होखी, सरबस चुक जाए के भयावहता होखी। तब ना राष्ट्र बाँची, ना संस्कृति, ना समाज ना मानवीय गुन से संपन्न आदमी।
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लेखक परिचय:-
नाम - दिनेश पाण्डेय
जन्म तिथि - १५.१०.१९६२
शिक्षा - स्नातकोत्तर
संप्रति - बिहार सचिवालय सेवा
पता - आ. सं. १००/४००, रोड नं. २, राजवंशीनगर, पटना, ८०००२३







मैना: वर्ष - 10 अंक - 121 (जनवरी 2024)

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