बढ़नी - विद्या शंकर विद्यार्थी

आज से ना पुरातन समय के चीझ हउए बढ़नी। घर में बढ़नी ना लागे त माछी भनभनाये लगिहन सँ। जेकरा चले के लूर ना होई उहो सहूर सिखावे लागी कि घर में बढ़नी देबे के चाहीं। साफ सुथरा रहे से घर में बरकत होला आ दोसर बात ई कि जहाँ साफ सुथरा रहेला तहाँ सभे स्वस्थ रहेला। ई बढ़नी के देन ह कि बर बेमारी के आवग ना होखे देला।

बाकि हँ कुछ लोग बा कि बढ़नी से लाभो लेला आ सौतेला नियन बेवहारो करेला। बढ़निया तनि ओनिये राखऽ हो, ठेके जन। हम कहऽतानी बढ़निया साफ सफेयाना करऽता आ उहे घृना के चीझ हो गइल । केतना मन में मइल बइठल बा लोग के कि ओकरा से बहार के ओकरा के धो नइखे सकत। आपन असकत नइखे तिकत लोग आ बढ़निये के छूत के नजर से तिके लागता। लछिमी पुजा में बढ़नी किनाये के चाहीं। ना किनाई त लछिमी ना अइहें। ई मान्यता बा मन के बाकि मन के ई नइखे मनावे के आ सदियन से बइठल रूढ़ी भावना के बहार फेंके के। बाह रे लोग सोच बढ़निया बेजइहाँ हो गइल । ना कवनो गुनाह कइलस ना कबो अनभल तिकलस। जवन तिकलस तोहार नजर तिकलस। जवन सोचलस तवन तोहार मन सोचलस।

हम त कहब कि जवन भइल तवन भइल अब सोच में परिवर्तन होखे के चाहीं।

बढ़निया बनावे ओला के भी त अइसने बिचार निरादर देले बा। जबकि ऊ एगो कलाकार बा। ओकरा कला के साथे ओकरो सम्मान मिले के चाहीं। बढ़निया के आ ओकरो दिन बहुराईं लोग। ई मत सोचीं कि तब हम बढ़निया कपार पर का धरीं आ बढ़निया ओला के बिस्तर का दिहीं। गोड़ का पखारीं।

कपार के बात मन से निकाल दिहीं। वक्त आवेला त पात्र के करेजा से लगावे के परेला। आ खाली बिस्तरे ना ओह कलाकार के कुरूसी देबे के परेला। सम्मान के बिस्तर आ सम्मान के कुरूसी।

जमीन पर बानी रउरा सभे त जमीन पर तिकीं आ जमीन के आदमी से रिश्ता राखीं, आदर के रिश्ता, मरजादा के रिश्ता। नजर उठा के तिकीं कहाँ सुतल बानी अबहीं रउरा सभे , रउरा सभे के घर में बढ़निया रूप बदल के समाइल बउए कि ना। ऊ कलकरवो रउरा सभे से दूर नइखे ,बदलीं सभे बस अपनावे के बिचार बदलीं। कसेया हटाईं मन के पितरिया बर्तन चमक जाई। आ संसार के लोग जान जाईं। कसेया के जमकल रूढ़ भावना मिट गइल । लोग जीए के तरीका जान गइल । केहू से केहू दूर नइखे । आ बढ़नी अगरात बउए जगहा से।
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लेखक परिचयः
नाम: विद्या शंकर विद्यार्थी
C/o डॉ नंद किशोर तिवारी
निराला साहित्य मंदिर बिजली शहीद
सासाराम जिला रोहतास (सासाराम )
बिहार - 221115
मो. न.: 7488674912

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